Monday, December 15, 2008

मानव एकता का एक नायाब पैगाम - हजरत ख्वाजा गरीब नवाज

... वही अजमेर जाते हैं
जिन्हें ख्वाजा बुलाते हैं।

इनाम मुहम्मद

संप्रति : तीन सालों से दैनिक 'हिन्दुस्तान' नई दिल्ली में सेवारत।तमाम कविताएं, कहानियां, लेख, दूरदर्शन, आकाशवाणी और समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रसारित एवं प्रकाशित हो चुकी हैं।सांप्रदायिकता के संदर्भ में 'गुजरात 2002' पर आधारित कविताओं जैसे ज्वलंत विषय पर जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से एम।फिल की डिग्री।संपर्क : inam.md@gmail.com

देश विदेश के तमाम नेताओं-महान हस्तियों और फिल्मी कलाकरों का राजस्था न के अजमेर स्थित महान सूफी संत हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती (रहमतुल्ला अलैह) की मजार में आना और चादर पेश करना साथ ही उनके दर पर माथा टेकने की खबरें आए दिन आती रहती हैं. इसके अलावा हर वर्ग, जाति का व्यक्ति यहां आकर अपने आपको धन्य मानता है.
एक ऐसी जगह जहां पर मुसलमानों से ज्यादा गैर मुस्लिम उनके दर पर माथा टेकने जाते हैं. एक ऐसी शख्सियत जिसके नाम पर लाखों कुरबान हो जाएं. जिनके नूर को देखकर हजारों एक साथ उनके साथ हो लिये हों. ऐसे ही अल्लाह के करीबी हैं राजस्थान के अजमेर स्थित हजरत ख्वाजा मोइन उद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह. यहां पर न सिर्फ पूरे हिन्दुस्तान से बल्कि समूची दुनिया से लोग रोजाना हजारों की तादाद में उनके दरबार में अपनी हाजिरी देने के लिए आते हैं. खास बात ये है कि यहां वे लोग ही आते हैं, कहते हैं जिन्हें ख्वाजा बुलाते हैं.
यूं तो बारह महीने यहां आने वालों का तांता लगा रहता है. मगर साल में एक बार अरबी कलेंडर के रज्जब महीने में पहली तारीख से लेकर नौ तारीख तक यहां उर्स का आयोजन होता है, जिसमें पूरी दुनिया से अकीदतमंद लाखों की तादाद में यहां पहुंचते हैं. गरीबों की हिमायत करने वाले और इनसानियत के अलमबरदार ख्वाजा गरीब नवाज की मजार पर लाखों बच्चे, जवाने, बूढे़ अमीर-गरीब सभी अपनी-अपनी श्रद्धा जताते हैं. इस महान सूफ संत का संदेश मानव एकता का एक नायाब पैगाम है.
मानवता की एक अलग मिसाल कायम करने वाले महान सूफी संत ख्वाजा हजरत मोइन उद्दीन चिश्ती पूरी दुनिया में आध्यात्मिक क्षेत्र में एक अलग मुकाम रखते हैं.
परिचय
ख्वाजा साहब के नाम से विख्यात इस महान सूफी संत का पूरी दुनिया में सम्मान के साथ नाम लिया जाता है. अपनी जिंदगी में मानवता, आध्यात्मिक आजादी और व्यक्तित्व विकास, ध्यान, प्रैक्टिस, करिश्माई और एक आदर्श संत के तौर पर जाने जाते हैं. उन्होंने हमेशा सच्चाई को अपनाया. वे प्रेम, त्याग और सच्चाई के प्रतीक हैं. वे अपनी पूरी जिंदगी में पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के रास्तों को अख्तियार करते रहे और उनकी बातों को लोगों तक पहुंचाते रहे.
जन्म
गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) का जन्म संजर के सीस्तान नामक गांव में 9 रज्जब 537 हिजरी यानी 1143 ईस्वी में हुआ था. यह जगह उत्तरी कंधार में स्थित है. उनके पिता सैयद गयासुद्दीन हसन (रहमतुल्ला अलैह) जो कि हजरत मूसा करीम (रहमतुल्ला अलैह) के नाती थे. ख्वाजा गरीब नवाज की बीबी उम्मुल वरा जिन्हें बीबी माहे नूरे के नाम से जानते हैं हजरत इमाम हसन (रहमतुल्ला अलैह) की नातिन थीं. वे मां की तरफ से हसनी सैयद के परिवार से संबंध रखते थे. इनके पूर्वज संजर में रहते थे, इसलिए आपको संजरी कहा जाता है और उनके खानदान के ख्वाजा इशहाक शामी हिरात के पास चिश्त कस्बे में आकर रहने के कारण उन्हें और उनके शिष्यों को चिश्ती के नाम से भी जाना जाता है.
शिक्षा (तालीम)
ख्वाजा गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) ने शुरुआती शिक्षा घर पर ही हासिल की. ख्वाजा साहब (रहमतुल्ला अलैह) को नौ साल की उम्र में ही कुरआन मुंहजबानी याद हो गई थी. बाद में वे संजर में मकतब में गए जहां पर उन्होंने बहुत कम समय में तफ्सीर और फिकाह व हसीद की शिक्षा हासिल की. उन्होंने इन सब विषयों पर गंभीर ज्ञान प्राप्त किया.
जीवन में नया मोड़
जब ख्वाजा साहब महज 14 साल की उम्र के थे, तब उनके पिता इस दुनिया से पर्दा कर गए. उनके पिता का एक बाग और कारखाना था. पिताजी के इंतकाल के कुछ महीने बाद ही मां भी इस दुनिया से चल बसीं. इस तरह बहुत कम उम्र में ही ख्वाजा साहब दर्वेश और फकीरों की मंडली में शामिल हुए और वहां उन्हें बहुत सम्मान मिला.
एक दिन जब वे बाग में पौधों पर पानी सींच रहे थे, एक मजूब वहां पहुंचे. वह मजूब शेख इब्राहीम कुन्दौजी (रहमतुल्ला अलैह) थे. जब ख्वाजा साहब ने उस बुजुर्ग आदमी को देखा तो वे अपना काम छोड़कर उस बुजुर्ग आदमी के स्वागत के लिए दौड़े. उन्होंने उस आदमी के हाथों को चूमा और उन्हें एक पेड़ की छांव की ओर ले जाकर बैठने का आग्रह किया. उस समय ख्वाजा साहिब ने कुछ भी नहीं मांगा. वह मौसम अंगूरों का था और पेड़ों पर अंगूर के गुच्छे लटक रहे थे. उन्होंने अंगूर का एक गुच्छा तोडा़ और रस वाला अंगूर लाकर उन्हें दिया और चुपचाप उनके पास बैठ गए. अल्लाह के प्यारे मजूब की खातिरदारी और कुछ अंगूर के फली से खुशी का आनंद का नजारा ही कुछ और था. तब मजूब ने तुरंत माना कि यह बच्चा सच्चाई की तलाश में है. इसलिए उन्होंने तेल का एक टुकडा़ उठाया और उसे अपने दांतों के नीचे दबाया और उसको ख्वाजा साहिब के मुंह पर रख दिया. जैसा कि वे दर्वेश और फकीरों का सम्मान किया करते थे, उन्होंने इसे निगल लिया और अचानक से पूरी दुनिया के बीच खाई खत्म हो गई. फिर उनके और अल्लाह के बीच की दूरी मिट गई. तेल के टुकड़े को निगलने के साथ ही, वे आध्यात्मिक दुनिया में मशगूल हो गए और अपने आपको अकेला पाने लगे.
हालांकि शेख इब्राहीम (रहमतुल्ला अलैह) ने ख्वाजा साहिब को अकेला छोड़ दिया, लेकिन वे उनकी आध्यात्मिक दुनिया के साक्षी हैं. इसे कोई कैसे भुला सकता है. उन्होंने बहुत ही सब्र के साथ काम लिया. वे खुद पर काबू नहीं रख सके. उन पर प्रेम का प्रभाव और सच्चाई के प्रति लगाव की सीमाएं पार हो गईं. पूरी दुनिया उनके लिए कुछ भी नहीं रह गई. इस तरह उन्होंने सबको छोड़ दिया और अपना खजाना अपने मानने वालों में बांट दिया, साथ ही जरूरतमंदों और गरीबों में इसे खर्च किया और सच्चाई की खोज में अपनी जिंदगी बिता दी.
पीर-और-मुर्शिद के साथ बैठकें
हालांकि हारून एक छोटा सा कस्बा था लेकिन अल्लाह का करम कि उन दिनों लोग इस बारे में काफी कुछ जान गए. हजरत ख्वाजा शेख उसमान हारूनी (रहमतुल्ला अलैह) उस समय वहां पर थे और उनकी मौजूदगी में वहां पर अल्लाह की रहमतें बरसती थीं. हजरत शेख उसमान हारूनी (रहमतुल्ला अलैह) माशाइक-ए-कुब्रा में थे जहां पर दूर-दूर से लोग अपनी मन्नतों को पूरी करवाने के लिए आया करते थे.
आखिरकार प्रेम और सच्चाई का उनका जज्बा अपने मकसद को पाने में कामयाब हुआ और वे हारून शहर में पहुंचे और जब वहां पर उनको ख्वाजा गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) के बारे में पता लगा तो हजरत शेख उसमान हारूनी (रहमतुल्ला अलैह) और पीर-ए-कामिल ने मुर्शिद के तौर पर उनको अपना लिया. ख्वाजा गरीब नवाज ने यूं बयां किया -
मैं खुद को उन हस्तियों में शामिल करना चाहता हूं जहां पर विशेष सम्मान दिया जाता है.
हुजूर ने फरमाया है कि
"दो रकआत नमाज अदा करो."
मैंने इसे अपनाया
तब उन्होंने मुझसे पूछा -
"बैठ जाओ और किबला का सम्मान करो."
मैं बड़े सम्मान के साथ किबला की ओर बैठ गया.
तब उन्होंने मुझसे पूछा- "सूरे बकर पढ़ो."
मैंने उनकी बात मानी. तब उन्होंने फरमाया कि "सुब्हानअल्लाह" 60 बार पढ़ो. मैंने ऐसा ही किया. हुजूर ने मेरे हाथ को अपने हाथ पर रखा और आसमान की ओर देखा और कहा कि "मैंने आपको अल्लाह को दिया."
आखिर में हजरत ख्वाजा शेख उसमान हारूनी (रहमतुल्ला अलैह) ने एक विशेष टोपी रखी जिसे कुलह-ए-चहार-तुर्की कहते हैं और उनको चुगा-ए- मुबारक (गाउन) से नवाजा और तब बैठने के लिए कहा. अब उन्होंने सूरा-ए-इखलास को एक हजार बार पढ़ने के लिए कहा. जब मैंने इसे पूरा किया तब उन्होंने कहा कि "हमारी मशाइक दिन और रात की एक पूरी मुशाहिदा है, इसलिए जाओ और मुशाहिदा पूरी करो. इस तरह मैंने एक दिन और एक रात इबादत में गुजारी और अल्लाह की इबादत की. अगले दिन मैंने उनसे पहले ही अपने आपको पेश किया. उन्होंने मुझे बैठने के लिए कहा और मैं बैठ गया. उन्होंने कहा कि "आसमान की ओर देखो" मैने ऐसा ही किया. तब उन्होंने कहा कि "आप कहां देख रहे हैं?" मैंने जवाब दिया "अर्श-ए-मुअल्लाह की ओर."
उन्होंने मुझे जमीन की ओर देखने के लिए कहा. मैंने ऐसा ही किया. तब उन्होंने मुझसे सवाल किया कि "आप कहां देख रहे हैं?"
मैंने कहा कि "तैतुस्सरा की ओर." उन्होंने कहा कि सूरा ए इखलास को हजार बार पढ़ो. जब मैंने इसे पूरा किया तब हजरत ने कहा कि आसमान की ओर देखो. मैंने देखा और कहा कि "मुझे हिजाब-ए-हिजमत तक स्पष्ट दिखाई दे रहा है." तब उन्होंने मुझसे आंखें बंद करने को कहा. मैंने वैसा ही किया. तब उन्होंने दो उंगलियां दिखाईं और मुझसे कहा कि आप क्या देख रहे हैं? मैंने जवाब दिया कि 18000 ब्रह्मांड मेरी आंखों से पहले हैं. जैसे ही मैंने अपना वाक्य पूरा किया उन्होंने कहा कि "अब काम हो गया."
इसके बाद उन्होंने पत्थर की ओर इशारा किया और इसे किनारे करके मुझसे पूछा कि इसे हटाओ. उसके नीचे कुछ दिनार थीं. उन्होंने मुझसे कहा कि इनको गरीबों में बांट दो और मैंने ऐसा ही किया. आखिर में उन्होंने कहा कि "हमारे साथ कुछ दिन रहो." और उनके साथ रहने के लिए यह मेरे लिए बेहद खुशी का पल था.
हजरत ख्वाजा गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) ने लंबे समय तक पीर-और-मुर्शिद की सेवा में जीवन बिताया और इस दौरान उन्होंने एक किताब लिखी जिसे नाम दिया "अनीस-उल-अरवा" जिसमें उन्होंने अध्यात्मिक दिशा-निर्देश और अपने गुरु हजरत ख्वाजा उसमान हारूनी (रहमतुल्ला अलैह) के बारे में बताया है कि किस तरह से उन्होंने उसे सजदानशीं बनाया और उनको पैगंबर हजरत मुहम्मद (सल्लललाहु अलैह वसल्लम) की पवित्र श्रृंखला में से चिश्ती की गद्दी सौंपी.
अपने पीर-और-मुर्शिद को फलों की सेवा करने के बाद ख्वाजा गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) सच्चाई और अमन की खोज में निकल पड़े और अपना ज्यादातर वक्त अल्लाह की इबादत में बिताया.
भारत में आगमन
गरीब नवाज अपने पीर की आज्ञा का पालन करते हुए भारत और अजमेर को अपना निवास स्थान बनाया. कहा जाता है कि ख्वाजा साहब को मदीना में रहते हुए एक बार ख्वाब में अजमेर के भौगोलिक क्षेत्र का दर्शन हुआ और यहां आने की प्रेरणा प्राप्त हुई.
अल्लाह के वली हरजत गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) ने भारत की ओर रुख किया और अपने मुरीदों के साथ अल्लाह की इबादत और नबी-हुजूर सल्लललाहु अलैह वसल्लम की राह में चल दिये. सबसे पहले वे सब्जवार पहुंचे जहां का बादशाह शेख मोहम्मद यादगार था जिसका चरित्र गिरा हुआ था, लेकिन वह वली के संपर्क में आया और अपने पुराने गुनाहों की माफी मांगी और गरीब नवाज ने उनको सही रास्ते पर चलने का रास्ता दिखाया. गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) बहुत दयालु थे और अल्लाह के बताए रास्ते को अख्तियार करने के लिए कहते थे और बाद में यही बादशाह खुश हुआ और हजरत ख्वाजा गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) के बताए रास्ते को अपनाने लगा.
सब्जवार के बाद गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) गजनी पहुंचे और वहां पर वली सुल्तान उल मशाइख सैयद अब्दुल वाहिद (रहमतुल्ला अलैह) से मिले. वहां वे हजर कुतबुल अक्ताब (रहमतुल्ला अलैह), ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तयार काकी (रहमतुल्ला अलैह) , शेखुल मशाइख हजरत मुहम्मद यादगार (रहमतुल्ला अलैह) और सैयदना सदात हजरत ख्वाजा फखरुद्दीन गुर्देजी (मेरे उत्तराधिकारी) ख्वाजा गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) के सफर में शामिल हुए.
अल्लाह के संतों का यह कारवां अब भारत की सीमा पर पहुंचा. ऊंचे पहाड़ रास्ते पर थे लेकिन ख्वाजा साहिब (रहमतुल्ला अलैह) इससे किसी भी तरह से विचलित नहीं हुए. अल्लाह की शान में उन्होंने पहाड़ों की ओर कदम रखा और पहाड़ियों, घाटियों को पार करने के बाद वे पंजाब की सीमा में पहुंचे.
अजमेर आगमन
अजमेर पहुंचने पर ख्वाजा साहिब ने पेड़ के नीचे आराम किया. कुछ ही समय के बाद ऊंट वहां आ पहुंचे और चरवाहे ने उनसे कहीं और आराम करने के लिए जाने को कहा क्योंकि वह जगह राजा के ऊंटों के लिए थी. ख्वाजा साहिब ने उनसे कहा कि वे ऊंटों को कहीं और बैठा दें. उन्होंने बहुत ही सादगी से उस चरवाहे से ऐसा कहा था, मगर वह आपे से बाहर हो गया.
"लो हम यहां से जाते हैं अब आपके ऊंट भी यहां नहीं बैठ सकेंगे."
यह कहकर वे और उनके मानने वाले अन्न सागर (अजमेर में झील) की पहाड़ी में जाकर ठहरे. अगले दिन चरवाहे से वे ऊंट वहां पर खड़े न हो सके. इसका मतलब उस जमीन में कुछ करिश्मा हो गया. इससे वे आश्चर्यचकित हो गए. आखिरकार वे पृथ्वीराज की अदालत में पहुंचे. जब राजा से पूरी कहानी दोहराई गई तो वह भौंचक्के रह गए. उसे पृथ्वीराज की बहादुरी पर बेहद गर्व था, लेकिन ख्वाजा साहिब (रहमतुल्ला अलैह) के मानने वालों के लिए यह पहला करिश्मा कुछ भी नहीं था. इसलिए उन्होंने चरवाहे से कहा कि वह फकीर से भीख मांगे. तब चरवाहा ख्वाजा साहब के पास पहुंचा और माफी मांगी और उनके सम्मान में झुक गया. उन्होंने दयालुता से कहा कि "जाओ और अल्लाह की मर्जी से आपके ऊंट अपने पैरों पर खड़े हो सकेंगे."
जब लौटकर चरवाहे ने देखा कि वाकई ऊंट वहां पर खड़े दिखाई दिये.
ख्वाजा गरीब नवाज और उनके मानने वाले रोजाना गुसल करने अन्ना सागर के किनारे जाते थे और इबादत किया करते थे. एक दिन उनके मानने वालों को राजा के कुछ आदमियों ने अन्ना सागर के किनारे गुसल करने से मना किया और उनको धमकाया. उनके मानने वाले ख्वाजा साहब के पास वापस आए और आपबीती सुनाई. उन्होंने अपने मानने वालों में से एक को कहा कि जाओ और एक कुजा (एक बर्तन) में पानी भर लाओ. जब उनके मानने वाले ने कुजा में पानी भरा तो पूरे अन्ना सागर का पानी उसमें समा गया. वह कुजा को ख्वाजा साहिब (रहमतुल्ला अलैह) के पास ले आए जब राजा के आदमियों को इस बारे में पता चला तो वे लौटे और पूरा शहर भौंचक्का रह गया और यह सबको पता चल गया कि एक महान सूफी संत ने इस झील को सुखा दिया क्योंकि राजा ने मुसलमानों को अन्नासागर में जाने से मना किया था. और आखिर में स्थानीय लोग आ गए और उनसे माफी मांगने को कहा, ख्वाजा साहब बहुत ही दयालु थे और उन्होंने इस झील को फिर से पानी से लबालब कर दिया.
इस करिश्मे से बड़ी तादाद में लोगों को इस्लाम में भरोसा जागा और अजमेर में एक साथ हज़ारों लोग इस्लाम में शरीक हो गए.
ख्वाजा साहब ने अपने जीवनकाल के विभिन्न अवसरों पर जो उपदेश दिये, उनमें से कुछ हैं-
8 अल्लाह का कृपा पात्र वही मानव होता है जिसके दिल में दरिया जैसी दानशीलता और सूर्य जैसी दयालुता और जमीन जैसी खातिरदारी हो।


8 ज्ञानी वह है जिसकी नजर भाग्य का निरीक्षण कर सके.
8 ज्ञान वह है जो सूर्य की तरह उभरे और सारा संसार उसके प्रकाश से रोशन हो जाए.
8 दुनिया में दो बातों से बढ़कर कोई बात नहीं - एक विद्वानों की संगति और दूसरा बड़ों का सम्मान
8 सदाचारी लोगों की संगति सदाचार से अच्छी है और दुराचारी लोगों की संगति दुराचार से बुरी है.
8 भक्ति और तपस्या में सबसे बडा़ काम विनम्रता है।
8 अगर मित्र की मित्रता में सारा संसार त्याग दिया जाए तब भी वह कम है.
8 ज्ञानी हृदय सत्य का घर होता है.
ऐतिहासिक मजार
दरगाह का मुख्य धरातल सफेद संगमरमर का बना हुआ है. इसके ऊपर एक आकर्षक गुम्बद है, जिस पर सुनहरी कलश है. मजार पर मखमल की गिलाफ चढ़ी हुई है. इसके चारों ओर परिक्रमा के स्थान पर चांदी के कटहरे बने हुए हैं. यह वह स्थल है जिसके सामने चंद लम्हे गुजारने की तमन्ना लिए दूर-दूर से जायरीन आते हैं और इस महान सूफी संत के निकटस्थ संपर्क स्थापित कर सत्यम् शिवम् सुदरम् की कल्पना में स्वयं को भूल जाते हैं. यह वह स्थल है जहां मनुष्यों के बीच व्याप्त धर्म या जाति के भेद समाप्त हो जाते हैं. यहां पर गुलाब के फूलों, चंदन, अगरबत्ती और लोभान की खुशबू महकती रहती है.
ख्वाजा साहब की मजार-ए-मुबारक बहुत दिनों तक कच्ची ही बनी रही. सुल्तान गयासुद्दीन ने इसका गुंबद बनवाया था. गुंबद पर नक्काशी का काम सुल्तान महमूद बिन नासिरुद्दीन के जमाने में हुआ. मजार का दरवाजा बादशाह मांडू ने बनवाया था. मजार के अंदर सुनहरी कटहरा बादशाह जहांगीर का और दूसरा नूकरई कटहरा शाहजी जहांआरा बेगू द्वारा चढा़या हुआ है. मजार के दरवाजे में मुगल बादशाह अकबर द्वारा भेंट की हुई किवाड़ों की जोड़ी लगी हुई है. इसके अंदर के हिस्से में बहुत सुंदर सुनहरा काम किया हुआ है और छत में मखमल की छतगिरी लगी हुई है. इसे 1047 हिजरी में मुगल बादशाह शाहजहां ने लाल पत्थर से बनवाया था. नक्कारखाने के ऊपरी हिस्से पर अकबरी नक्कारखाने रखे हुए हैं.
बुलंद दरवाजा
इस दवाजे का निर्माण सुल्तान महमूद खिलजी ने 700 हिजरी में करवाया था. यह 85 फुट ऊंचा है. अंदर के फर्श पर संगमरमर के पत्थर जुड़े हुए हैं. दरवाजे के बुर्जियों पर ढाई फुट लम्बे सुनहरे कलश लगे हुए हैं. इस नक्कारखाने का निर्माण 1331 हिजरी में हैदराबाद के नवाब मीर महबूब अली खान ने करवाया था. इसके दरवाजे की ऊंचाई 70 फुट है, इस पर रोजाना पां चार नौबत बजाई जाती है.
अकबरी मस्जिद
मुगल बादशाह अकबर ने 978 हिजरी में लाल पत्थर से यह मस्जिद बनवाई थी. यह मस्जिद जमीन से 15 फुट की ऊंचाई पर बनी हुई है.
महफिल खाना
दरगाह का एक प्रमुख स्थान महफिलखाना है. यहां उर्स के दिनों में कव्वालियां होती हैं. झाड़फानूस लगे हुए इस भवन की अपनी अलग अहमियत है. इसका निर्माण हैदराबाद के नवाब बशीरुद्दौला ने कराया था.
सहन चिराग
यह चिराग दरगाह के प्रवेश द्वार बुलंद दरवाजे के सामने आंगन में रखा हुआ है. इसको मुगल बादशाह अकबर ने भेंट किया था.
बड़ी देग
बुलंद दरवाजे के पश्चिमी हिस्से में यह देग रखी हुई है. इसे 976 हिजरी में मुगल बादशाह अकबर ने भेंट किया था. इस देग में करीब 40 कुंतल चावल पकाया जाता है. घी, छुआरा, किशमिश एवं खोपरे आदि मेवों से बनी खाद्य सामग्री को तबर्रुक कहा जाता है. पकने के बाद सारा तबर्रुक गरीबों और जरूरतमंदों में बांटा जाता है.
छोटी देग
बुलंद दरवाजे के पूर्वी हिस्से में यह देग रखी हुई है. इसे 1022 हिजरी में मुगल बादशाह जहांगीर ने भेंट किया था. इसमें करीब 32 कुंतल चावल पकता है.
लंगरखाना
दरगाह के उत्तर में लंगरखाना बना हुआ है. इसके दालान में रोजाना गरीबों के लिए लंगर का खाना पकाया जाता है.
शाहजहांनी जामा मस्जिद
यह मस्जिद मुगल बादशाह शाहजहां ने बनवाई थी. सफेद और काले संगमरमर के काले पत्थरों से तैयार और बेहतरीन कटाई के खम्भों वाली यह मस्जिद वास्तव में शाहजहां के वास्तुकला के प्रेम का प्रतीक है. इसके निर्माण में करीब दो लाख चालीस हजार रुपये खर्च हुए और इसकी तामीर में 14 साल लगे.
मस्जिद सुल्तान खिलजी
यह मस्जिद सुल्तान महमूद खिलजी की बनवाई हुई है. इसका फर्श संगमरमर का बना हुआ है. बाद में जहांगीर एवं औरंगजेब ने इसे और सुंदरता प्रदान की.


Tuesday, August 19, 2008

हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल मंदिर-मस्जिद

- सरल शास्त्री

अब तो धर्मप्राण भारत देश में बात बात पर साम्प्रदायिक दंगे होना आम बात हो गई है और उन्हें हवा देते हैं अपना उल्लू सीधा वाले स्वार्थमग्न विभिन्न दलों के नेता. अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद के ढांचे को तोड़ने पर पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगों की जो भयंकर आग फैली, उससे देश की अपूरणीय क्षति हुई.
भारत देश ही नहीं, विदेशों में भी कट्टरपंथियों ने प्रतिशोध लेने के लिए कितने ही मंदिर धराशायी कर दिए और कितने ही प्रतिशोध की ज्वाला में भेंट कर दिए. यत्र तत्र खूनी संषर्घों से लोग त्राहि-त्राहि कर रहे थे, किन्तु देश में आए उस भीषण तूफान के बावजूद प्राचीन तीर्थस्थल गढ़मुक्तेश्वर में हिन्दू-मुसलमानों ने एकता की मशाल जलाये रखी. एकता का ही प्रभाव है कि वहां आज तक साम्प्रदायिक दंगा नहीं भड़का.
देखा गया है कि हिन्दू-मुसलमानों में जो दंगे होते हैं उनमें अधिकांश कारण मंदिर-मस्जिद ही हुआ करते हैं. जहां भी मंदिर-मस्जिद पास-पास है, वहां प्राय: दंगे भड़कते ही रहते हैं. उदाहरणार्थ तीर्थनगरी काशी और मथुरा में मंदिर-मस्जिद पास-पास होने से वहां हर समय दंगों की आशंका बनी ही रहती है. न जाने किस क्षण क्या हनहोनी हो जाए, इसी के मद्देनजर उन संवेदनशील स्थानों की के लिए सुरक्षा पुलिस प्रशासन हर समय सतर्क रहता है, किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि गढ़मुक्तेश्वर में शहर के बीचोबीच प्राचीन पंचायती मंदिर और फतेहपुरी मस्जिद शदियों से पास-पास होने पर भी वहां आज तक साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ. यह हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द और एकता की पूरे विश्व में अनूठी मिसाल है.
सबसे बडी़ भाईचारे की बात यह है कि मंदिर-मस्जिद की संयुक्त दीवार है, जिसकी एक तरफ की सुरक्षा मरम्मत, पुताई आदि मंदिर की प्रबंधक समिति करती है दूसरी तरफ की सुरक्षा व्यवस्था मस्जिद की कमेटी करती है. देश में आये धार्मिक उन्माद के झंझावात भी मंदिर-मस्जिद की एकता की नींव को किंचित भी हिला न सके. यहां पर हिन्दू-मुस्लिम एकता और सौहार्द की एक और अनूठी बात यह है कि यहां मंदिर में आरती के समय घंटे-घड़ियाल और शंख ध्वनि तथा मस्जिद में अजान की गूंज दोनों एक साथ ही होती हैं. यह अपने आप में एकता और भाईचारे की बेजोड़ मिसाल है. यदि इस मिसाल का पूरे देश में अनुसरण हो तो हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो ही नहीं सकते. गढ़मुक्तेश्वर में साम्प्रदायिक दंगे न होने के पीछे इस तीर्थ नगरी की पावनता का प्रभाव है, जिसके कारण लोगों के मनों में मैल आ ही नहीं पाता.
मीरा की रेती में गुदड़ी का मेला
गढ़मुक्तेश्वर कस्बा के उत्तरी छोर पर मुक्तीश्वरनाथ का मंदिर है. उस मंदिर के मुख्य द्वार से पूर्व की ओर लगभग आधा किलोमीटर लम्बी रोड जाती है. गंगा मंदिर से कुछ ही आगे कुछ वर्षों पूर्व तक वहां रेतीला क्षेत्र था, जो 'मीरा की रेती' के नाम से प्रसिद्ध है. वहां कभी भगवान श्रीकृष्ण की प्रेम की दीवानी और उदयपुर राजघराने की पुत्रवधू मीराबाई घरवार छोड़ने से पूर्व कार्तिक मास में लगने वाले मेले में गंगा स्नान करने आती थीं और हर वर्ष अपने डेरे इसी रेतीले भाग में लगाती थीं. भगवान की भक्त मीराबाई इस पावन तीर्थ गढ़मुक्तेश्वर की पावनता से इतनी प्रभावित थीं कि कुछ दिनों तक यहीं ठहर कर भक्ति भाव से पतितपावनी गंगा में स्नान कर पाठ-पूजा और दान करती थीं. एक बार उन्होंने एक बाग खरीद कर गढ़मुक्तेश्वर के पंडाओं को दान में दिया था, जो शुक्लों के बाग के नाम से जाना जाता था. अब उस बाग का कोई मालिक न होने के कारण नगरपालिका के अधिकार में है. भगवान श्रीकृष्ण की परम भक्त मीराबाई ने गंगा की इस रेती में एक मंदिर भी बनवाया था, जिसे मुगल शासन काल के दुर्दांत शासक औरंगजेब ने धराशायी कर दिया था और वह स्थान मुस्लिम फकीर के हवाले कर दिया था.
कार्तिक मास की पूर्णिमा पर कस्बे से दूर गंगा किनारे लगने वाला विशाल मेला वहां से उखड़ने के बाद मीरा की रेती में लगता है, जो लगभग एक माह तक चलता है. मीरा की रेती में लगने वाला मेला गुदडी़ के नाम से जाना जाता है. गुदडी़ मेला की परम्परा मीराबाई के समय से ही है. बुजुर्गों से सुना है कि एक बार मेले में लोगों के कम आने के कारण मेले में आये दुकानदारों का सामान कम बिका. वे लोग कमाने की आशा लिये मेले में आये थे, किन्तु उनकी आशा पर तुषारापात होने से वे बड़े निराश और दुखी थे. उन्होंने करुणा की मूर्ति मीराबाई के पास आकर अपने मन की पीडा़ बतलाई. दुकानदारों का करुण-रुदन सुनकर मीराबाई का कोमल हृदय पिघल गया. उन्होंने उदारता का परिचय देते हुए दुकानदारों का सारा सामान स्वयं खरीद लिया. सामान बिकने से दुकानदार बड़े खुश हुए और अपने घरों को चले गये. तभी से हर वर्ष मेले के बाद मीरा की रेती में गुदडी़ का मेला लगने लगा. मेले से बचा सामान दुकान यहां बेचकर ही अपने घरों को जाते हैं. मीरा की रेती में बने पूज्यस्थल पर आज भी मीरा के नाम से भरपूर चढा़वा आता है.
नवोदित तीर्थस्थल बृजघाट
सन् 1900 के बाद जैसे-जैसे पतित पावनी भागीरथी गंगा तीर्थनगरी गढ़मुक्तेश्वर से रूठ कर दूर होती गयीं, वैसे-वैसे इस तीर्थ नगरी की पावनता, शोभा और आकर्षण तिरोहित होते गए और यह तीर्थ नगरी उजड़ती चली गई, किन्तु करुणामयी गंगा मां की अनुकम्पा से गढ़मुक्तेश्वर के निकट नये तीर्थ बृजघाट का प्रादुर्भाव हुआ. बृजघाट नवोदित तीर्थस्थल है. यह गढ़मुक्तेश्वर कस्बे से पूर्व की दिशा में लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर गंगा किनारे हैं. अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में सन् 1900 में यहां गंगा पर रेल का पुल बनवाया था. सन 1935 से यहां कुछ देर को रेलगाडी़ रुकने लगी, जिससे यहां गंगा प्रेमियों का आगमन होने लगा. फिर 1960 में दिल्ली-लखनऊ राजमार्ग के लिए सड़क पुल बना. यातायात की दोहरी सुविधा होने से गंगा मैया के भक्त गंगा स्नान के लिए यहां आने लगे और पुलों की वजह से ही इस नवोदित तीर्थस्थल का नाम बृजघाट पड़ा.
श्रद्धालुओं का रुझान देखकर गढ़मुक्तेश्वर के पंडाओं ने भी बृजघाट पर अपना अड्डा जमा लिया. पहले तो केवल अमावस्या और पूर्णिमा को ही श्रद्धालु गंगा स्नान के लिए आते थे, इसलिए पंडाओं का भी वहां अस्थायी अड्डा था. गंगा स्नानार्थियों की सुविधा के लिए दिल्ली आदि के सेठ लोगों ने बृजघाट पर कुछ धर्मशालायें बनवा दीं. फिर तो यहां धीरे-धीरे सैकड़ों मंदिर और धर्मशालायें बन गईं. इससे प्रभावित होकर गढ़मुक्तेश्वर के पंडाओं ने उन मंदिर और धर्मशालाओं में अपना स्थायी अड्डा जमा लिया. जैसे-जैसे यहां श्रद्धालुओं का आगमन बढ़ता गया, वैसे-वैसे यह नवोदित तीर्थ दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करता गया. अब तो यहां अमावस्या और पूर्णिमा के दिन ही नहीं, अपितु प्रतिदिन श्रद्धालुओं की अच्छी खासी भीड़ रहती है. प्रत्येक अमावस्या, पूर्णिमा और पर्व के दिन तो यहां लाखों श्रद्धालु गंगा स्नान करने के लिए आते हैं. यहां पर कई प्रसिद्ध मंदिर भी हैं, जिनमें वेदांत मंदिर, चामुंडा मंदिर और गंगा किनारे फलाहारी बाबा की कुटिया दर्शनीय हैं.
सप्तपुरियों में गिनी जाने वाली मायानगरी (हरिद्वार) के उत्तराखंड में चले जाने पर उत्तर प्रदेश शासन की हरिद्वार के विकल्प में बृजघाट को हरिद्वार जैसा बनाने की योजना है. इसके लिए धन भी स्वीकृत हुआ है तथा योजना के तहत पुराने घाट को तोड़कर नये घाट का निर्माण हुआ है तथा घाट पर ही हरिद्वार जैसा घंटाघर भी बनवाया गया है. हरिद्वार की तरह गंगा की आरती भी होने लगी है. यात्रियों की सुविधा के लिए घाट के निकट ही सुलभ शौचालय की व्यवस्था है, किन्तु सरकार की ढुलमुल नीति से लगता है कि सरकार की यह योजना यानी बृजघाट को हरिद्वार बनाने की योजना केवल दिवास्वप्न ही बनकर न रह जाए.

Friday, August 1, 2008

पौराणिक तीर्थ गढ़मुक्तेश्वर


जगदीश प्रसाद शास्त्री 'सरल'
उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले के अन्तर्गत पतितपावनी गंगा के निकट तलवार गांव में जन्मे शास्त्री जी ने कक्षा आठ तक गांव में ही अध्ययन किया। एल।डी.ए.वी. इंटर कॉलेज अनूपशहर (बुलन्दशहर) से विज्ञान विषय से इंटर तथा श्रीभागीरथी संस्कृत महाविद्यालय गढ़मुक्तेश्वर, गाजियाबाद से साहित्य विषय में शास्त्री और आचार्य पर्यन्त शिक्षा प्राप्त की। साहित्य विषय होने के साथ-साथ धर्म-दर्शन शास्त्र में रुचि होने के कारण वेदान्तादि दर्शन एवं धर्मशास्त्रों का मौलिक अध्ययन किया। छह वर्ष तक अध्यापन कार्य। अध्ययन काल से ही लेखन में रुचि रही। दो वर्ष 'अमर पत्रिका' के प्रधान सम्पादक के रूप में सेवा की तथा सन् 1976 से दिल्ली में पत्रकारिता के क्षेत्र में सेवारत हैं। वर्तमान में दैनिक 'हिन्दुस्तान' में वरिष्ठ उपसम्पादक के रूप में सेवारत हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कवितायें, कहानियां छपती रही हैं। उनके अतिरिक्त अब तक धार्मिक, दार्शनिक, भारतीय संस्कृति, सामाजिक, मानवता, करुणा आदि विषयों पर काव्य, महाकाव्य, उपन्यास, कहानियों की छोटी-बड़ी 50 पुस्तकें लिखी हैं, जो अभी अप्रकाशित हैं। इनके लेखन का उद्देश्य धनार्जन नहीं, स्वान्त:सुखाय रहा है।

काशी, प्रयाग, अयोध्या आदि तीर्थों की तरह "गढ़मुक्तेश्वर" भी पुराण चर्चित तीर्थ है। शिवपुराण के अनुसार गढ़मुक्तेश्वर का प्राचीन नाम "शिववल्लभ" (शिव का प्रिय) है, किन्तु यहां भगवान मुक्तीश्वर (शिव) के दर्शन करने से अभिशप्त शिवगणों की पिशाच योनि से मुक्ति हुई थी, इसलिए इस तीर्थ का नाम "गढ़मुक्तीश्वर" (गणों की मुक्ति करने वाले ईश्वर) विख्यात हो गया. पुराण में भी उल्लेख है- गणानां मुक्तिदानेन गणमुक्तीश्वर: स्मृत:।

शिवगणों की शापमुक्ति की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है-
प्राचीन समय की बात है क्रोधमूर्ति महर्षि दुर्वासा मंदराचल पर्वत की गुफा में तपस्या कर रहे थे. भगवान शंकर के गण घूमते हुए वहां पहुंच गये. गणों ने तपस्यारत महर्षि का कुछ उपहास कर दिया. उससे कुपित होकर दुर्वासा ने गणों को पिशाच होने का शाप दे दिया. कठोर शाप को सुनते ही शिवगण व्याकुल होकर महर्षि के चरणों पर गिर पड़े और प्रार्थना करने लगे. उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने उनसे कहा- हे शिवगणो! तुम हस्तिनापुर के निकट खाण्डव वन में स्थित शिववल्लभ क्षेत्र में जाकर तपस्या करो तो तुम भगवान आशुतोष की कृपा से पिशाच योनि से मुक्त हो जाओगे. पिशाच बने शिवगणों ने शिववल्लभ क्षेत्र में आकर कार्तिक पूर्णिमा तक तपस्या की. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन उन्हें दर्शन दिए और पिशाच योनि से मुक्त कर दिया. तब से शिववल्लभ क्षेत्र का नाम गणमुक्तीश्वर पड़ गया. बाद में गणमुक्तीश्वर का अपभ्रंश गढ़मुक्तेश्वर हो गया. गणमुक्तीश्वर का प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर आज भी इस कथा का साक्षी है.
इस तीर्थ को काशी से भी पवित्र माना गया है, क्योंकि इस तीर्थ की महिमा के विषय में पुराण में उल्लेख है- "काश्यां मरणात्मुक्ति: मुक्ति: मुक्तीश्वर दर्शनात्" अर्थात् काशी में तो मरने पर मुक्ति मिलती है, किन्तु मुक्तीश्वर में भगवान मुक्तीश्वर के दर्शन मात्र से ही मुक्ति मिल जाती है. इसलिए यह तीर्थ प्राचीन काल से ही श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र रहा है, जो अपनी पावनता से श्रद्धालुओं को लुभाता रहा है. पुराणों में उल्लेख है कि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक गंगा-स्नान करने का यहां विशेष महत्व है और विशेष कर पूर्णिमा को गंगा स्नान कर भगवान गणमुक्तीश्वर पर गंगाजल चढ़ाने से व्यक्ति पापों से मुक्त हो जाता है. पुराणों की यह भी मान्यता है कि कार्तिक मास में गंगा स्नान के पर्व के अवसर पर गणमुक्तीश्वर तीर्थ में अग्नि, सूर्य और इन्द्र का वास रहता है तथा स्वर्ग की अप्सरायें यहां आकर महिलाओं व विशेष कर कुमारियों पर अपनी कृपा-वृष्टि करती हैं, अत: यहां स्नान हेतु कुमारी कन्याओं के आने की पुरानी परम्परा है.
इसी महत्व के कारण यहां प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक एक पखवारे का विशाल मेला लगता है, जिसमें दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब आदि राज्यों से लाखों श्रद्धालु मेले में आते हैं और पतित पावनी गंगा में स्नान कर भगवान गणमुक्तीश्वर पर गंगाजल चढ़ाकर पुण्यार्जन करते हैं. यहां मुक्तीश्वर महादेव के सामने पितरों को पिंडदान और तर्पण (जल-दान) करने से गया श्राद्ध करने की जरूरत नहीं रहती. पांडवों ने महाभारत के युद्ध में मारे गये असंख्य वीरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान यहीं मुक्तीश्वरनाथ के मंदिर के परिसर में किया था. यहां कार्तिक शुक्ला चतुदर्शी को पितरों की शांति के लिए दीपदान करने की परम्परा भी रही है सो पांडवों ने भी अपने पितरों की आत्मशांति के लिए मंदिर के समीप गंगा में दीपदान किया था तथा कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक यज्ञ किया था. तभी से यहां कार्तिक पूर्णिमा पर मेला लगना प्रारंभ हुआ. वैसे तो कार्तिक पूर्णिमा पर अन्य नगरों में भी मेले लगते लैं, किन्तु गढ़मुक्तेश्वर का मेला उत्तर भारत का सबसे बड़ा मेला माना जाता है.
इन दिनों यह मेला गढ़मुक्तेश्वर कस्बे से लगभग 6 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में गंगाजी के विस्तृत रेतीले मैदान में लगभग 7 किलोमीटर के क्षेत्र में लगता है, जिसे अनेक संतरों में विभाजित कर मेला यात्रियों के ठहरने का समुचित प्रबंध किया जाता है. मेले में सर्कस, चलचित्र आदि मनोरंजन के भरपूर साधन रहते हैं. इनके अतिरिक्त विभिन्न सम्प्रदायों व अखाड़ों के कैम्प लगते हैं, जिनमें विभिन्न धर्मों के धर्मगुरु, संत-महात्मा पधार कर मानव एकता, आत्मीयता एवं देश-प्रेम से ओत-प्रोत धार्मिक व्याख्यानों से जनता को रसमग्न करते है. इससे 'अनेकता में एकता' के सूत्र में बंधने की भावना साकार हो उठती है.
आज के उपेक्षित गढ़मुक्तेश्वर का इतिहास वैभवशाली रहा है. पहले इस शहर के चारों ओर चार सिंहद्वार थे और उत्तर में इस तीर्थ का स्पर्श करती हुई पतित पावनी भागीरथी अपनी चंचल तरंगों से कलकल ध्वनि करती हुई बहती थी और इस तीर्थ की पावनता में चार चांद लगाए रहती थी. उन दिनों गांगा के किनारे मुक्तीश्वर महादेव के मंदिर से लेकर गंगा मंदिर तक भव्य मंदिरों की कतार थी, जिनमें सुबह-शाम घंटों और शंखों की ध्वनि, स्तोत्र-पाठ एवं आरतियों से गंगा का किनारा देवलोक सा प्रतीत होता था.
महाभारत काल में गढ़मुक्तेश्वर पांडवों के राज्य की राजधानी हस्तिनापुर का एक हिस्सा था और गंगा के जल मार्ग से व्यापार का मुख्य केन्द्र था. उन दिनों यहां इमारती लकड़ी, बांस आदि का व्यापार होता था, जिसका आयात दून और गढ़वाल से किया जाता था. इसके साथ ही यहां गुड़-गल्ले की बड़ी मंडी थी. यहां का मूढा़ उद्योग भी अति प्राचीन है. यहां के बने मूढे़ कई देशों में निर्यात किए जाते रहे हैं. इस उद्योग को अपने चरम पर होना चाहिए था, किन्तु सरकार की उपेक्षा के कारण यह उद्योग अंतिम सांसें ले रहा है.
शास्त्रों में गढ़मुक्तेश्वर की सीमा दो कोस की बतलाई गई है. कार्तिक मास में इस तीर्थ की परिक्रमा करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त होकर मुक्ति का अधिकारी हो जाता है. परिक्रमा करते समय पग पग पर कपिला गोदान करने का पुण्य प्राप्त होता है. इस तीर्थ में जप, तप और दान करने से अक्षय पुण्य प्राप्त होता है. भगवान परशुराम ने खाण्डव वन में जो पांच शिवलिंग स्थापित किए थे, उनमें से तीन शिवलिंग गढ़मुक्तेश्वर क्षेत्र में ही हैं- पहला शिवलिंग मुक्तीश्वर महादेव का, दूसरा मुक्तीश्वर महादेव के पीछे झारखण्डेश्वर महादेव का और तीसरा शिवलिंग कल्याणेश्वर महादेव का है.
गणमुक्तीश्वर महादेव का मंदिर
यह मंदिर गढ़मुक्तेश्वर कस्बे के उत्तरी छोर पर स्थित है. यहां भगवान शिव के दर्शन से शापग्रस्त शिवगणों को पिशाच योनि से मुक्ति प्राप्त हुई थी, इसी कारण शिववल्लभ तीर्थ का नाम गणमुक्तीश्वर पड़ गया. मुक्तीश्वर महादेव का मंदिर श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र है. इस मंदिर के प्रांगण में एक प्राचीन बाबड़ी है, जो नृगकूप के नाम से प्रसिद्ध है. इसके विषय में महाभारत में उल्लेख है कि दानवीर महाराज नृग भूलवश किये एक छोटे से अपराध के कारण गिरगिट बन गये थे. गिरगिट की योनि से मुक्त होने पर उन्होंने यज्ञ कराया और यज्ञशाला के निकट ही, जिस स्थान पर वे गिरगिट बनकर पड़े रहे, वहां एक कूप बनवाया, जो नृगकूप के नाम से प्रसिद्ध है. उस नृगकूप को आज 'नक्का कुआं' के नाम से जाना जाता है.
झारखंडेश्वर महादेव
मुक्तीश्वर महादेव मंदिर के पीछे जंगल में झारखंडेश्वर महादेव का विशाल शिवलिंग पीपल के वृक्ष की जड़ में प्रतिष्ठित है. कहा जाता है कि इस मंदिर में लगातार 40 दिन दीप जलाने से श्रद्धालु की मनोकामना पूर्ण हो जाती है. किन्तु लगातार 40 दिन तक दीप जला पाना सहज कार्य नहीं है, क्योंकि बीच में बाधा उपस्थित हो जाती है. कई लोगों से सुना है कि जब चालीस दिन पूरे होने को होते हैं, तब वहां नियमित दीप जलाने गये श्रद्धालुओं को द्वार पर विशाल सर्प बैठा हुआ दिखाई दिया, जिससे भयभीत होकर वे वापस लौट आये. लगभग दो वर्ष पहले तक वहां शिवलिंग के चारों तरफ सिर्फ तीन फुट ऊंची दीवार ही बनी थी और चारों तरफ जंगल था, किन्तु भगवान झारखंडेश्वर की प्रेरणा से किसी श्रद्धालु ने वहां मंदिर बनवा दिया है. मं‍दिर बनाते समय झारखंडेश्वर शिवलिंग और प्राचीन पीपल के वृक्ष के स्वरूप को ज्यों का त्यों रहने दिया गया है. मुक्तीश्वर महादेव के मंदिर से झारखंडेश्वर मंदिर तक जाने के लिए पक्का मार्ग बनवाया गया है तथा श्रद्धालुओं को धूप, वर्षा के कष्ट से बचाने के लिए मार्ग पर टीनशेड भी पड़ा हुआ है तथा विद्युत प्रकाश की भी व्यवस्था है.
कल्याणेश्वर महादेव का मंदिर
यह मंदिर गढ़मुक्तेश्वर के प्रसिद्ध मंदिर मुक्तीश्वर महादेव से चार किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में वन क्षेत्र में स्थित है. भगवान शिव का यह मंदिर आने में कई रहस्यों को छिपाए हुए है, जिनके कारण इस मंदिर की दूर-दूर तक प्रसिद्धि है. इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहां भक्तों द्वारा शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ जल और दूध भूमि में समा जाता है. न जाने वह जल कहां समा जाता है, इस रहस्य का पता आज तक नहीं चल पाया है. सुना जाता है कि एक बार अपने समय के प्रसिद्ध राजा नल ने यहां शिवलिंग का जलाभिषेक किया था, किन्तु उनके देखते ही देखते शिव पर चढ़ाया जल भूमि में समा गया. यह चमत्कार देखकर राजा नल चौंक गए और उन्होंने इस रहस्य को जानने के लिए बैलगाड़ी से ढुलवा कर हजारों घड़े गंगाजल शिवलिंग पर चढ़ाया, पर वह सारा जल कहां समाता गया, राजा नल इस रहस्य का पता न लगा पाये. अंत में अपनी इस धृष्टता की भगवान शिव से क्षमा मांग कर अपने देश को लौट गए.
महारानी कुंती के पुत्र पांण्डवों ने भी झारखंडेश्वर मंदिर में पूजन-यज्ञ किया था. मराठा छत्रपति शिवाजी ने भी यहां तीन मास तक रुद्रयज्ञ किया था. भक्तों की मनोकामना पूर्ति के लिए कल्याणेश्वर महादेव का मंदिर दूर-दूर तक विख्यात है. यह शिव भक्तों की आस्था का केन्द्र होने के कारण यहां शिवभक्तों का आगमन लगा ही रहता है, किन्तु श्रावणमास में आने वाली शिवरात्रि और फाल्गुन मास की महाशिवरात्रि पर तो इस मंदिर में शिवभक्तों का सैलाव उमड़ पड़ता है.
इस चर्चित पौराणिक और ऐतिहासिक शिव मंदिरों के अतिरिक्त कई अन्य मंदिर भी प्रसिद्ध हैं, जिनमें से गंगा मंदिर विशेष उल्लेखनीय है.
गंगा मंदिर
मुक्तीश्वर महादेव मंदिर के सामने लगभग आधा किलोमीटर दूर एवं ऊंचे टीले पर प्राचीन ऐतिहासिक गंगा मंदिर है. इसमें भगवती गंगाजी की भव्याकर्षक आदमकद प्रतिमा है और एक अमूल्य एवं अद्भुत शिवलिंग है. शिवलिंग में हर वर्ष एक गांठ फूटती है, जो शिव की अलग-अलग आकृति का रूप ले लेती है. आज के वैज्ञानिक युग में यह अद्भुत चमत्कार है. बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी इस रहस्य को नहीं जान पाए हैं. सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी एक प्रतिमा पुष्कर तीर्थ में ब्रह्माजी के मंदिर में है और दूसरी प्रतिमा इस गंगा मंदिर में है. कहते हैं कि यह मंदिर हजारों वर्ष पुराना है. सन 1900 तक गंगाजी इस मंदिर का स्पर्श करती हुई बहती थीं. गंगा मंदिर के दायें-बायें ऊंची ढाय (गंगा का किनारा) आज भी मौजूद है. गंगा की धारा से स्नानार्थियों को मंदिर तक पहुंचने के लिए 101 सीढ़ियां बनाई गई थीं, जिनमें से 17 सीढ़ियां मिट्टी में दब चुकी है, अब केवल 84 सीढ़ियां ही शेष हैं. जहां कभी इन सीढ़ियों से गंगा की पावन धारा टकराती हुई बहती थी, वहां आज पक्की सड़क है. अब गंगाजी इस मंदिर से लगभग 6 किलोमीटर दूर बहती हैं. गंगा मंदिर से कुछ ही दूरी पर शिवाजी के किले के खण्डहर हैं. यह किला मराठा शासन की चौकी के रूप में था.
गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ पौराणिक और ऐतिहासिक मंदिरों के साथ-साथ विद्या का भी गढ़ रहा है. सन 1909 में यहां गंगा के किनारे मस्तराम की कुटी नामक स्थान पर मध्यमा पर्यंत संस्कृत विद्यालय की स्थापना हुई, जिसके संस्थापक और प्रधानाचार्य हरियाणा निवासी श्री चन्द्रमणिजी थे. सन 1932 में गंगा में आई भीषण बाढ़ में वह विद्यालय बह गया. उसके बाद कस्बे में पंचमंजिली धर्मशाला में विद्यालय चलने लगा. श्री चन्द्रमणिजी के परलोकवासी हो जाने पर सन 1944 में श्रीसांगवेद महाविद्यालय नरवर (बुलंदशहर) के रत्न, विद्वान शिरोमणि, शास्त्रार्थ महारथी, नव्य न्याय व्याकरण वेदान्ताचार्य श्री पं. सत्यव्रत शर्मा इस विद्यालय के प्रधानाचार्य के पद पर आसीन हुए. प्रधानाचार्य के पद से श्रीसत्यव्रत शर्मा का गौरव नहीं बढ़ा, अपितु विद्वान आचार्य के पदासीन होने से प्रधानाचार्य के पद का गौरव बढ़ा. उन्होंने अपने अथक प्रयास और परिश्रम से इस माध्यमिक विद्यालय को आचार्य पर्यन्त महाविद्यालय की मान्यता प्राप्त कराई. इतना ही नहीं, हर वर्ष अच्छा परीक्षाफल देकर इस संस्कृत महाविद्यालय को प्रथम श्रेणी (क वर्ग) का दर्जा दिलाकर भारत के गिनेचुने संस्कृत महाविद्यालयों की पंक्ति में खड़ा कर दिया. फिर क्या, विद्वान आचार्य श्रीसत्यव्रत शर्मा की ख्याति पूरे भारतवर्ष ही क्या, विदेशों तक फैल गई. उनकी अद्भुत पाठन शैली की प्रशंसा सुन कर भारत ही क्या, पड़ोसी देश नेपाल तक के विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए आने लगे और विद्वद्वर आचार्यजी के श्रीचरणों में बैठकर अध्ययन कर यहां शास्त्री-आचार्य बन कर इस महाविद्यालय की कीर्ति-पताका भारत के कोने-कोने तक फैलाने लगे.
विद्वान आचार्य श्रीसत्यव्रत शर्मा की विद्वत्ता की उत्तर भारत ही क्या, विद्या का गढ़ माने जाने वाली काशी नगरी में भी धाक थी. उन्होंने शास्त्रार्थ में कितनी ही बार बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों के दांत खट्टे किये थे. गढ़मुक्तेश्वर में हुए शास्त्रार्थ में कितने ही विद्वान आर्य सामाजियों को आचार्य ने अकेले ही परास्त कर सदैव के लिए उनका मुंह बंद कर दिया था. धर्मसम्राट, अभिनव शंकराचार्य करपात्रीजी द्वारा भारत की राजधानी दिल्ली में कराए गए विश्वयज्ञ में शास्त्रार्थ के दौरान दक्षिण भारत के कितने ही विद्वानों को आचार्य ने अकेले ही परास्त किया था. विद्वानों की मंडली में सुशोभित सम्मानित आचार्यजी (जो 'गुरुजी' के नाम से विख्यात थे) आत्मश्लाघा से दूर उदार, धार्मिक, सदाचारी और सनातनी धर्मी थे. वे विद्यालय और विद्यार्थियों से अपार स्नेह करते थे और उनकी सुरक्षा का सारा ध्यान रखते थे. 1979 को अकस्मात गुरुजी के शिवलोक चले जाने पर समूचे कस्बे में शोक की लहर उमड़ पड़ी. बाजार बंद हो गया. आर्य समाजियों ने भी श्रद्धा से विद्वान आचार्य को श्रद्धांजलि अर्पित की.
गढ़मुक्तेश्वर कस्बा दिल्ली-मुरादाबाद राजमार्ग-24 पर गाजियाबाद जनपद में स्थित है. इस पावन तीर्थ का राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों के कारण बडे़ शहर के रूप में विकास तो नहीं हो सका, फिर भी इस तीर्थ की पावनता श्रद्धालुओं को आकर्षित करती रही है. एक शताब्दी पूर्व तक पतित पावनी गंगाजी की निर्मल धारा अपनी चंचल लहरों से इस तीर्थ का स्पर्श करती बहती थी और अपनी धवल धारा की तरह इसकी उज्ज्वल कीर्ति-पताका दिग्दिगंत में फहराती रही. पर बाद में गंगाजी इस तीर्थ से रूठ कर दूर होती गईं और इस तीर्थ की चमक तिरोहित होती गई. स्नानार्थी यहां आने की बजाय ब्रजघाट जाने लगे तो पंडाओं ने भी समय के रुख को देखकर अपना अड्डा ब्रजघाट ही जमा लिया. तब से इस शहर के उजड़ने का सिलसिला शुरू हो गया. अधिकांश मंदिर देखभाल के अभाव में धराशायी हो गये. यहां तक कि पुजारी के अभाव में यहां के प्रसिद्ध मंदिर मुक्तीश्वर महादेव के मंदिर में भी पूजन-अर्चन की व्यवस्था न रही. मंदिर खंडहरों में बदलते चले गये. घोर अपेक्षा के कारण यह तीर्थ बार्बादी का शिकार हुआ. इस तीर्थ के उजड़ने का सिलसिला 1970 तक जारी रहा.
फिर समय ने करवट बदली. बाहर के लोगों ने यहां आकर एक दो स्कूल खोले. उनके अथक परिश्रम और प्रयास से डॉ. राममनोहर लोहिया जूनियर स्कूल हाईस्कूल में परिवर्तित हुआ. आस-पास के छात्र पढ़ने आने लगे, जिससे कस्बे की चहल-पहल फिर से लौटने लगी. बाद में कस्बे को तहसील का दर्जा प्राप्त होने पर यहां जनसंख्या भी दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी. उपेक्षा का शिकार मुक्तीश्वर महादेव के मंदिर की तरफ सरकार का ध्यान आकृष्ट कराया. मंदिर की सुचारु व्यवस्था बनाये रखने के लिए कुछ धन भी स्वीकृत हुआ, किन्तु भ्रष्टाचार के युग में स्वीकृत धन का अधिकांश भाग भ्रष्ट अधिकारी निगल गये, जिस कारण आंशिक सुधार ही हो पाया.
गत वर्ष समाचार पत्रों में पढ़ा था कि हरिद्वार तीर्थ के उत्तरांचल में चले जाने पर उत्तर प्रदेश सरकार ने विदेशी पर्यटकों को लुभाने के लिए हरिद्वार की भांति उपेक्षित प्राचीन तीर्थ गढ़मुक्तेश्वर के विकास की योजना बनाई है, जिसके अंतर्गत मुक्तीश्वर महादेव मंदिर के समीप बूढी़ गंगा की पतली धार को चौड़ी और गहरी कर उसमें स्नान के लिए पर्याप्त जल की व्यवस्था की जाएगी. इसके साथ गंगा के किनारे आकर्षक और पक्के घाट बनाये जायेंगे, जिससे इस तीर्थ का खोया हुआ स्वरूप फिर से देख सकें. उससे आकर्षित होकर भारतीय श्रद्धालुओं के साथ विदेशी पर्यटक भी यहां आये.
सरकार की इस योजना के तहत इस तीर्थ के पांच किलोमीटर दूर ब्रजघाट पर तो कुछ सुधार हुआ है, जिसके अंतर्गत पहले घाट को तोड़कर दोबारा घाट बनाया गया है. घाट के नीचे दुकानें निकाली गई हैं. हरिद्वार की तरह घाट पर घंटाघर का निर्माण हुआ है और यात्रियों के लिए शौचालय की व्यवस्था की गई है, किन्तु खेद का विषय है कि इस पावन तीर्थ के विकास के लिए सरकार ने अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है, जिससे सरकार की यह योजना दिवास्वप्न ही लग रही है. सवाल यह उठता है कि इस चिर उपेक्षित पावन तीर्थ गढ़मुक्तेश्वर का विकास कब होगा?

Thursday, July 31, 2008

पूर्वजों की आस्था का केन्द्र : कटारमल सूर्य मंदिर


रावत शशिमोहन 'पहाड़ी'
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि कोणार्क का सूर्य मंदिर अपनी बेजोड़ वास्तुकला के लिए भारत ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है. भारत के ओड़िसा राज्य में स्थित यह पहला सूर्य मंदिर है जिसे भगवान सूर्य की आस्था का प्रतीक माना जाता है. ऐसा ही एक दूसरा सूर्य मंदिर उत्तराखण्ड राज्य के कुमांऊ मण्डल के अल्मोड़ा जिले के कटारमल गांव में है. यह मंदिर 800 वर्ष पुराना एवं अल्मोड़ा नगर से लगभग 17 किमी की दूरी पर पश्चिम की ओर स्थित उत्तराखण्ड शैली का है. अल्मोड़ा-कौसानी मोटर मार्ग पर कोसी से ऊपर की ओर कटारमल गांव में यह मंदिर स्थित है.
यह मंदिर हमारे पूर्वजों की सूर्य के प्रति आस्था का प्रमाण है, यह मंदिर बारहवीं शताब्दी में बनाया गया था, जो अपनी बनावट एवं चित्रकारी के लिए विख्यात है. मंदिर की दीवारों पर सुंदर एवं आकर्षक प्रतिमायें उकेरी गई हैं. जो मंदिर की सुंदरता में चार चांद लगा देती हैं. यह मंदिर उत्तराखण्ड के गौरवशाली इतिहास का प्रमाण है.
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इस मन्दिर की भूरि-भूरि प्रशंसा की. उनका मानना है कि यहाँ पर समस्त हिमालय के देवतागण एकत्र होकर पूजा-अर्चना करते रहे हैं. उन्होंने यहाँ की दीवारों पर उकेरी गई मूर्तियों एवं कला की प्रशंसा की है. इस मन्दिर में सूर्य पद्मासन लगाकर बैठे हुए हैं. सूर्य भगवान की यह मूर्ति एक मीटर से अधिक लम्बी और पौन मीटर चौड़ी भूरे रंग के पत्थर से बनाई गई है. यह मूर्ति बारहवीं शताब्दी की बतायी जाती है. कोणार्क के सूर्य मन्दिर के बाद कटारमल का यह सूर्य मन्दिर दर्शनीय है. कोणार्क के सूर्य मन्दिर के बाहर जो झलक है, वह कटारमल के सूर्य मन्दिर में आंशिक रूप में दिखाई देती है.
इतिहास
कटारमल देव (1080-90 ई०) ने अल्मोड़ा से लगभग 7 मील की दूरी पर बड़ादित्य (महान सूर्य) के मंदिर का निर्माण कराया था. उस गांव को, जिसके निकट यह मंदिर है, अब कटारमल तथा मंदिर को कटारमल मंदिर कहा जाता है. यहां के मंदिर पुंज के मध्य में कत्यूरी शिखर वाले बड़े और भव्य मंदिर का निर्माण राजा कटारमल देव ने कराया था. इस मंदिर में मुख्य प्रतिमा सूर्य की है जो 12वीं शती में निर्मित है. इसके अलावा शिव-पार्वती, लक्ष्मी-नारायण, नृसिंह, कुबेर, महिषासुरमर्दिनी आदि की कई मूर्तियां गर्भगृह में रखी हुई हैं.
मंदिर में सूर्य की औदीच्य प्रतिमा है, जिसमें सूर्य को बूट पहने हुये खड़ा दिखाया गया है. मंदिर की दीवार पर तीन पंक्तियों वाला शिलालेख, जिसे लिपि के आधार पर राहुल सांकृत्यायन ने 10वीं-11वीं शती का माना है, जो अब अस्पष्ट हो गया है. इसमें राहुल जी ने ...मल देव... तो पढ़ा था, सम्भवतः लेख में मंदिर के निर्माण और तिथि के बारे में कुछ सूचनायें रही होंगी, जो अब स्पष्ट नहीं हैं. मन्दिर में प्रमुख मूर्ति बूटधारी आदित्य (सूर्य) की है, जिसकी आराधना शक जाति में विशेष रूप से की जाती है. इस मंदिर में सूर्य की दो मूर्तियों के अलावा विष्णु, शिव, गणेश की प्रतिमायें हैं. मंदिर के द्वार पर एक पुरुष की धातु मूर्ति भी है, राहुल सांकृत्यायन ने यहां की शिला और धातु की मूर्तियों को कत्यूरी काल का बताया है.
कटारमल सूर्य मंदिर
इस सूर्य मंदिर का लोकप्रिय नाम बारादित्य है. पूरब की ओर रुख वाला यह मंदिर कुमाऊं क्षेत्र का सबसे बड़ा और सबसे ऊंचा मंदिर है. माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण कत्यूरी वंश के मध्यकालीन राजा कटारमल ने किया था, जिन्होंने द्वाराहाट से इस हिमालयीय क्षेत्र पर शासन किया. यहां पर विभिन्न समूहों में बसे छोटे-छोटे मंदिरों के 50 समूह हैं. मुख्य मंदिर का निर्माण अलग-अलग समय में हुआ माना जाता है. वास्तुकला की विशेषताओं और खंभों पर लिखे शिलालेखों के आधार पर इस मंदिर का निर्माण 13वीं शदी में हुआ माना जाता है.
इस मंदिर में सूर्य पद्मासन मुद्रा में बैठे हैं, कहा जाता है कि इनके सम्मुख श्रद्धा, प्रेम व भक्तिपूर्वक मांगी गई हर इच्छा पूर्ण होती है. इसलिये श्रद्धालुओं का आवागमन वर्ष भर इस मंदिर में लगा रहता है, भक्तों का मानना है कि इस मंदिर के दर्शन मात्र से ही हृदय में छाया अंधकार स्वतः ही दूर होने लगता है और उनके दुःख, रोग, शोक आदि सब मिट जाते हैं और मनुष्य प्रफुल्लित मन से अपने घर लौटता है. कटारमल गांव के बाहर छत्र शिखर वाला मंदिर बूटधारी सूर्य के भव्य व आकर्षक प्रतिमा के कारण प्रसिद्ध है. यह भव्य मंदिर भारत के प्रसिद्ध कोणार्क के सूर्य मंदिर के पश्चात दूसरा प्रमुख मंदिर भी है. स्थानीय जनश्रुति के अनुसार कत्यूरी राजा कटारमल्ल देव ने इसका निर्माण एक ही रात में करवाया था. यहां सूर्य की बूटधारी तीन प्रतिमाओं के अतिरिक्त विष्णु, शिव और गणेश आदि देवी-देवताओं की अनेक मूर्तियां भी हैं.
ऎसा कहा जाता है कि देवी-देवता यहां भगवान सूर्य की आराधना करते थे, सुप्रसिद्ध साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन भी मानते थे कि समस्त हिमालय के देवतागण यहां एकत्र होकर सूर्य की पूजा-अर्चना करते थे. प्राचीन समय से ही सूर्य के प्रति आस्थावान लोग इस मंदिर में आयोजित होने वाले धार्मिक कार्यों में हमेशा बढ़-चढ़ कर अपनी भागीदारी दर्ज करवाते हैं, क्योंकि सूर्य सभी अंधकारों को दूर करते हैं, इसकी महत्ता के कारण इस क्षेत्र में इस मंदिर को बड़ा आदित्य मंदिर भी कहा जाता है. कलाविद हर्मेन गोयट्ज के अनुसार मंदिर की शैली प्रतिहार वास्तु के अन्तर्गत है।
इस मंदिर की स्थापना के विषय में विद्वान एकमत नहीं हैं, कई इतिहासकारों का मानना है कि समय-समय पर इसका जीर्णोद्धार होता रहा है, लेकिन वास्तुकला की दृष्टि से यह सूर्य मंदिर 21 वीं शती का प्रतीत होता है. वैसे इस मंदिर का निर्माण कत्यूरी साम्राज्य के उत्कर्ष युग में 8वीं - 9वीं शताब्दी में हुआ था, तब इस मंदिर की काफी प्रतिष्ठा थी और बलि-चरु-भोग के लिये मंदिर मेम कई गांवों के निवासी लगे रहते थे.
इस ऎतिहासिक प्राचीन मंदिर को सरकार ने प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्व स्थल घोषित कर राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित कर दिया है. मंदिर में स्थापित अष्टधातु की प्राचीन प्रतिमा को मूर्ति तस्करों ने चुरा लिया था, जो इस समय राष्ट्रीय पुरातत्व संग्रहालय, नई दिल्ली में रखी गई है, साथ ही मंदिर के लकड़ी के सुन्दर दरवाजे भी वहीं पर रखे गये हैं, जो अपनी विशिष्ट काष्ठ कला के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं.
कैसे पहुंचे
कटारमल सूर्य मन्दिर तक पहुँचने के लिए अल्मोड़ा से रानीखेत मोटरमार्ग के रास्ते से जाना होता है. अल्मोड़ा से 14 किमी जाने के बाद 3 किमी पैदल चलना पड़ता है. यह मन्दिर 1554 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है. अल्मोड़ा से कटारमल मंदिर की कुल दूरी 17 किमी के लगभग है.

केदारनाथ : भगवान शिव का पावन धाम


उत्तराखण्ड के चार धामों में से एक प्रमुख धाम केदारनाथ है, जिसका उल्लेख शास्त्रों एवं वेद पुराणों में मिलता है. हिमालय का केदारखण्ड क्षेत्र भगवान विष्णु व भगवान शिव के क्षेत्र के रूप में विख्यात है. शिव व विष्णु एक दूसरे के पूजक एवं पूरक हैं.
केदारनाथ भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है. यह मंदाकिनी नदी के तट पर समुद्रतल से 3584 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. हिन्दू धर्म में केदारनाथ सबसे पवित्र मंदिरों में से एक है.
केदारनाथ एक अत्यंत पवित्र दर्शनीय स्थान है, जो चारों ओर से बर्फ की चादरों से ढ़की पहाड़ियों के केन्द्र में स्थित है. वर्तमान में मौजूद मंदिर 8वीं शती का है, जिसे जगद् गुरु शंकराचार्य ने बनवाया था, जो पाण्डवों द्वारा बनाये गए मंदिर के ठीक बगल में स्थित है. मंदिर के अंदर की दीवारों में कई ऐसी आकृतियां उकेरी गई हैं, जिनमें कई पौराणिक कथाएं छिपी हुई हैं. मंदिर के मुख्य द्वार के आगे भगवान शिव के वाहन नंदी की विशाल मूर्ति उनकी सुरक्षा का जिम्मा लिए हुए है. मंदिर का शिवलिंग प्राकृतिक है एवं मंदिर के पीछे आदि जगद्गुरु शंकराचार्य की समाधि है.
भगवान शिव का यह मंदिर 1000 साल से भी अधिक पुराना है. इसे बड़े भारी पत्थरों को तराशकर तैयार किया गया है. किस तरह इतने बड़े पत्थरों को तैयार किया गया होगा, यह अपने आप में एक अजूबा है. मंदिर में पूजा करने के लिए "गर्भगृह' और मंडप है, जहां पर श्रद्धालुजन पूजा-अर्चना करते हैं. मंदिर के अंदर भगवान शिव को सदाशिव के रूप में पूजा जाता है.
स्थिति
जनपद रुद्रप्रयाग स्थित पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य केदारनाथ धाम 3584 मी. की ऊंचाई पर मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित है. केदारनाथ का भव्य एवं आकर्षक मंदिर विशाल ग्रेनाइट शिलाखण्डों से निर्मित है. यहां कई पवित्र कुण्ड हैं. पंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार इस मंदिर का निर्माण 10-12वीं शती में हुआ. 66 फुट ऊंचे इस मंदिर के बाहर खुले चबूतरे पर नन्दी की एक विशाल मूर्ति है.
स्थापित
8वीं शती
पौराणिक दंतकथा
मंदिर से जुडी़ कथा के अनुसार द्वापर युग में महाभारत युद्ध के उपरांत गोत्र हत्या के पाप से पाण्डव अत्यन्त दु:खी हुए और वेदव्यासजी की आज्ञा से केदारक्षेत्र में भगवान शिव के दर्शनार्थ आए. भगवान शिव कुलनाशी पाण्डवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे. अतएव वे मायामय महिष का रूप धारण कर केदार अंचल में विचरण करने लगे, बुद्धि योग से पाण्डवों ने जाना कि यही शिव हैं, तो वे मायावी महिष रूपधारी भगवान शिव का पीछा करने लगे, महिष रूपी शिव भूमिगत होने लगे तो पाण्डवों ने दौड़कर महिष की पूंछ पकड़ ली और अति आर्तवाणी से भगवान शिव की स्तुति करने लगे. पाण्डवों की स्तुति से प्रसन्न होकर उसी महिष के पृष्ठ भाग के रूप में भगवान शंकर वहां स्थित हुए एवं भूमि में विलीन भगवान शिव के पाण्डवों को दर्शन हुए तथा अन्य चार केदार मदमहेश्वर में शिव की नाभि प्रकट हुई, तुंगनाथ में भुजाएं, रुद्रनाथ में मुख और कल्पेश्वर में जटाएं प्रकट हुईं और ये सब पंच केदार कहलाते हैं.
उसी समय एक आकाशवाणी हुई कि हे पाण्डवों मेरे इसी स्वरूप की पूजा से तुम्हारे मनोरथ पूर्ण होंगे. तदनंतर पाण्डवो! ने इसी स्वरूप की विधिवत पूजा की तथा गोत्र हत्या के पाप से मुक्त हुए और भगवान केदारनाथ का विशाल एवं भव्य मंदिर बनवाया.
पूजा-अर्चना
केदारनाथ मंदिर में पूजा का समय प्रात: एवं सायंकाल है. सुबह की पूजा निर्वाण दर्शन कहलाती है जबकि शिवपिंड को प्राकृतिक रूप से पूजा जाता है. सायंकालीन पूजा को श्रृंगार दर्शन कहते हैं, जब शिव पिण्ड को फूलों एवं आभूषणों से सजाते हैं. यह पूजा मंत्रोच्चारण, घंटीवादन एवं भक्तों की उपस्थिति में ही सम्पन्न की जाती है.
कपाट खुलने का समय
केदारनाथ मंदिर के खुलने के समय सामान्य तौर पर अप्रैल माह के अंतिम सप्ताह में या मई के प्रथम सप्ताह में होता है. केदारनाथ मंदिर श्री बद्रीनाथ के एक दिन पहले ही खुल जाता है.
क्षेत्रफल
3 वर्ग किमी
मौसम
ग्रीष्म काल, सामान्यत: मई से अगस्त. दिन के समय मनोरम तथा रात के समय ठंड.
तापमान
अधिकतम 17.90 सें. तथा न्यूनतम 5.90 सें..
शीतकाल
सितम्बर से नवम्बर. दिन के समय ठंडा तथा रात के समय काफी सर्द. दिसंबर से मार्च हिमाच्छादित.
भाषा
हिन्दी, अंग्रेजी एवं गढ़वाली.
वेश-भूषा
जून से सितम्बर तक हल्के ऊनी वस्त्र. अप्रैल-मई तथा अक्तूबर-नवम्बर भारी ऊनी वस्त्र.
ठहरने की व्यवस्था
श्री बद्रीनाथ, श्री केदारनाथ मंदिर कमेटी यात्रा विश्राम गृह, गढ़वाल मण्डल विकास निगम विश्राम गृह, निजी विश्राम गृह, धर्मशालाएं केदारनाथ में तथा बदरीनाथ-केदारनाथ यात्रा मार्ग पर समस्त प्रमुख स्थानों पर.
कैसे पहुंचे
वायुमार्ग : जौलीग्रांड देहरादून. केदारनाथ से 251 किमी की दूरी पर. चार्टर्ड सर्विस दिल्ली सरसावा अथवा जौलीग्रांड से केदारनाथ तक उपलब्ध है.
रेल मार्ग : ऋषिकेश अंतिम रेलवे स्टेशन, 234 किमी की दूरी पर. कोटद्वार स्थित अंतिम रेलवे स्टेशन 260 किमी.
सड़क मार्ग : दिल्ली से ऋषिकेश 287 किमी रेल द्वारा तथा 238 सड़क मार्ग द्वारा. केदारनाथ जाने के लिए गौरीकुण्ड से 14 किमी की पैदल चढ़ाई चढ़नी पड़ती है. यह मार्ग ऋषिकेश, कोटद्वार, देहरादून, हरिद्वार तथा गढ़वाल एवं कुमाऊं के अन्य महत्वपूर्ण पर्वतीय स्थानों से सड़क मार्ग से जुड़ा है. ऋषिकेश तथा गौरीकुण्ड-बद्रीनाथ जाने तथा वापस आने के लिए प्राइवेट टैक्सियां तथा अन्य हल्के वाहन उपलब्ध रहते हैं. परिवहन व्यय निश्‍िचत नहीं है. केदारनाथ तक यात्रियों को ले जाने तथा वापसी के लिए और सामान ढोने के लिए गौरीकुण्ड से घोड़े, डांडियां आदि उपलब्ध रहती हैं।
प्रस्तुति : रावत शशिमोहन 'पहाड़ी'

Thursday, July 10, 2008

हरकीदून : सुरम्य प्राकृतिक स्थल

- शशिमोहन रावत "पहाड़ी"

मानव प्रकृति प्रेमी होता है. प्रकृति से ही उसे आनन्द की अनुभूति होती है. मानव का प्रकृति से प्रेम भी स्वाभाविक ही है, क्योंकि प्रकृति उसकी सभी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करती है. इसी प्रकृति ने पर्वतराज हिमालय की गोद में अनेक पर्यटन स्थलों का निर्माण किया है. इन्हीं पर्यटन स्थलों में "हरकीदून" एक अत्यंत रमणीय स्थली है.
हरकीदून सीमान्त जनपद उत्तरकाशी का एक पर्यटन स्थल है. जहां प्रतिवर्ष देश-विदेशों से प्रकृति प्रेमी प्रकृति का अनुपम सौंदर्य निहारने के लिए पहुंचते रहते हैं. यह गोविन्दबल्लभ पंत वन्य जीव विहार एवं राष्ट्रीय पार्क के लिए भी प्रसिद्ध है. भोजपत्र, बुरांस व देवदार के सघन वृक्षों के अलावा यहां अमूल्य जीवनदायिनी जड़ी-बूटियां, बुग्याल एवं प्राकृतिक फल-फूल देखे जा सकते हैं.
यहां वृक्षों में सर्वाधकि भोजपत्र (बेटुला यूटलिस) तथा खर्सू (क्वेरकस) के वृक्ष पाये जाते हैं. यहां बड़े-बड़े बुग्याल (चारागाह) हैं. हरकीदून में अनेकों किस्म के फूल भी मिलते हैं. हरकीदून को यदि "द्वितीय फूलों की घाटी" कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी. हरकीदून में अनेकों जड़ी-बूटियां भी मिलती हैं. इस क्षेत्र में जड़ी-बूटी खोदने पर प्रतिबंध है, लेकिन कहा जाता है कि जड़ी-बूटी माफिया यहां चोरी छिपे अपने काम को अंजाम देते रहते है. जून-जुलाई के महीने यहां सर्वाधिक फूल‍िखलते हैं, इस दौरान यहां प्राय: कई विलुप्त होती फूलों की प्रजातियों को देखा जा सकता है. मई-जून व सितम्बर-अक्टूबर में यहां अच्छा मौसम रहता है.
हरकीदून में विभिन्न प्रकार के फूलों की प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें 1 ब्रह्मकमल, 2 फेन कमल, 3 जटामासी, 4 डेन्डलिऑन, 5 अतीस, 6 हिमालयन पॉपी, 7- साइलिम प्रजाति, 8 प्रिमुला प्रजाति आदि.
कैसे जाएं
हरकीदून पहुंचने के लिए देहरादून से मसूरी (36 किमी) कैम्पटी फॉल होते हुए यमुना ब्रिज पहुंचते हैं. यमुना ब्रिज से नैनबाग, डामटा होते हुए नौगांव पहुंचते हैं. नौगांव से दो सड़कें कटती हैं एक बड़कोट व दूसरी पुरोला की ओर मुड़ती है. नौगांव से पुरोला की दूरी महज 20 किमी है. पुरोला एक छोटा-सा एवं सुंदर बाजार है. यह बाजार तीन ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ है. मूसरी से पुरोला की दूरी लगभग 97 किमी है. यहां नैटवाड़ (26 किमी), सांकरी (11 किमी), तालूका गांव (12 किमी) तक का सफर बस या कार से पूरा करने के उपरांत 13 किमी की दूरी ओसला तक व शेष 11 किमी की दूरी पैदल तय करनी पड़ती है.
तालूका का रास्ता जंगलों से होकर गुजरता है. तालूका से सुपिन नदी के किनारे-किनारे सीमा (ओसला) पहुंचते हैं. ओसला गांव उत्तरकाशी सीमा जनपद का आखिरी गांव है. सांकरी, तालूका तथा सीमा में गढ़वाल मण्डल विकास निगम के रेस्ट हाउस बने हुए हैं. इनमें रहने की उचित व्यवस्था है.
ग्लेश्यिर
यहां से स्वर्णारोहिणी पर्वत (6252 मी.) एवं काला नाग चोटी (6387 मी.) के दर्शन किए जा सकते हैं. जनश्रुति है कि पांडव इसी स्वर्णारोहिणी पर्वत से स्वर्ग गए थे.
वेश-भूषा
यहां के लोग साधारणत: सीधे-सादे होते हैं. सामान्यत वह आम कपड़े ही पहनते हैं. चूंकि यहां काफी ठंड होती है, इसलिए यहां के लोगों के पहनने के कपड़े भेड़-बकरियों के ऊन से बनाये जाते हैं. इन कपड़ों में ऊन की "चोल्टी" (कोट) व संतूब (ऊन का पायजामा) प्रमुख है. महिलाएं अक्सर आभूषण पहने हुए रहती हैं.
ब्रह्मकमल
हरकी दून से कुछ ऊंचाई पर लगभग 14,000 फुट की ऊंचाई पर यह फूल मिलते हैं. ब्रह्मकमल की लोग पूजा करते हैं तथा इस फूल को पवित्र माना जाता है. इसके बारे में यहां तक मान्यता है कि इस फूल के घर में होने से किसी जादू-टोने का असर नहीं होता तथा किसी की बूरी नजर भी नहीं लगती. यह फूल पथरीली मिट्टी में उगता है, जबकि कुछ लोगों का मानना है कि यह फूल वहां उगता है जहां गडरिये जंगल में आग जलाते हैं.

Sunday, July 6, 2008

मोनाल

'paharimonal.blogspot.com' में आप सभी भाइयों का स्वागत है.
भाइयों इस ब्लॉग के बारे में भी आपको थोड़ा बताता चलूं कि मैंने अपने ब्लॉग का नाम "पहाड़ीमोनाल" क्यों रखा और यह मोनाल क्या है चीज है। चूंकि मैं पहाड़ (उत्तरांचल) का रहने वाला हूं और यह मोनाल उत्तरांचल का राज्य पक्षी है. इसी प्रयास के साथ थोड़ा जानें मोनाल के बारे में...
मोनाल

जैसा कि सभी जानते हैं कि मोनाल नेपाल का राष्ट्रीय पक्षी एवं उत्तरांचल का राज्य पक्षी है. वैसे मनोल को हिमालय के मयूर नाम से भी प्रसिद्धी मिली है. यह उत्तरांचल ही नहीं अपितु विश्व के सुंदरतम पक्षियों में से एक है. मोनाल लगभग समूचे हिमालय में 2300-5000 मीटर की ऊंचाई पर घने वनों में पाया जाता है. नर का रंग नीला भूरा एवं सिर पर मोर जैसी एक कलगी होती है. मादा भूरे रंग की होती है. यह कंद-मूल, तने, फूल-फलों के बीज तथा कीड़े-मकोड़ों आदि का भोजन करता है. यह पक्षी समुदाय के "न्योआरनीयिस आर्डर वेलीफिर्यिस" उपवर्ग के "फंसीनिड़ी" परिवार का सदस्य है.
इसका वैज्ञानिक नाम - "लोफोफोरस इंपीजेनस" (Lophohporus Impejanus) है.
इसकी मुख्यत: चार प्रजातियां ' इपेलेस, स्केलेटरी, ल्यूरी तथा ल्येफोफोरसएन्स हैं, जो नेपाल व कश्मीर की बर्फीली पहाड़ियों, उत्तर पूर्व उसम की पहाड़ियों व उत्तरांचल राज्य की उच्च बर्फीली पहाड़ियों में पाई जाती हैं.
इसको स्थानीय भाषा में "मन्याल" व "मुन्याल" भी कहा जाता है।
आपका, शशिमोहन रावत "पहाड़ी भाई"

Friday, July 4, 2008

शादी

अभी शादी का पहला साल था
मारे खुशी के मेरा बुरा हाल था,
खुशियां कुछ यूं उमड रही थीं
कि संभाले नहीं संभल रही थीं,
सुबह सुबह मैडम का चाय ले के आना,
थोड़ा शर्माते हुए हमें नींद से जगाना,
वो प्यार भरा हाथ हमारे बालों में फिराना,
मुस्कराते हुए कहना कि...
डार्लिंग चाय तो पी लो,
जल्दी से रेडी हो आपको ऑफिस भी है जाना
घरवाली भगवान का रूप लेकर आई थी,
दिल और दिमाग पर पूरी तरह छाई थी,
सांस भी लेते तो नाम उसी का होता था,
एक पल भी दूर जाना दुशवार होता था

पांच साल बाद...
सुबह सुबह मैडम का चाय लेकर आना,
टेबिल पर रखकर जोर से चिल्लाना,
आज ऑफिस जाओ, तो मुन्ने को स्कूल छोड़ते जाना.
सुनो... एक बार फिर वही आवाज आई,
क्या बात है अभी तक छोड़ी नहीं चारपाई,
अगर मुन्ना लेट हो गया तो देख लेना,
मुन्ने के टीचर को फिर खुद ही संभाल लेना.

न जाने घरवाली कैसा रूप लेके आई थी,
दिल और दिमाग पर काली घटा छाई थी,
सांस भी लेते हैं तो उन्हीं का ख्याल आता है,
अब हर समय जेहन में एक ही सवाल होता है

क्या कभी वो दिन लौट कर आएंगे कि...
हम एक फिर कुवारें हो जाएंगे...

संकलनकर्ता: पहाड़ी भाई

अपने बारे में क्या लिखूं

मै और मेरी तनहाई

मै और मेरी तन्हाई अक्सर ये बातें करते है की वो होती तो कैसा होता, वो होती तो ऐसा होता मै और मेरी तन्हाई कभी कभी की ये लाइन अक्सर मुझे कही अन्दर तक अन्दोलीत करती है वो होती तो कैसा होता वो होती तो ऐसा होता वो इस बात पर हंसती वो इस बात पर इठलाती होती

Saturday, February 2, 2008

MONAL

MONAL UTTARANCHAL KA RAJYA PAKSHI HAI.
YAH MADHYA HIMALAYA MEIN PAYA JATA HAI.