Monday, June 24, 2013

स्थानीय लोगों की कौन सुध लेगा?


- खच्चरों का तो कोई नामलेवा तक नहीं

- शशिमोहन रावत


सचमुच उत्तराखंड का मंजर बहुत खौफनाक है। सरकारी दावे, लोगों के आंसू, राहत पर राजनीति इन सब बातों से इतर आंकड़ों पर गौर करें तो तस्वीर रूह कंपाने वाली है। मरने वाले लोगों की संख्या तो सैकड़ों है ही, लेकिन विभिन्न जिलों के स्थानीय लोग और उनके मवेशी भी आपदाग्रसत हैं। उत्तराखंड में जीवन के पटरी पर लौटने मेें तो अभी बहुत वक्त लगेगा, लेकिन अब जो सचाई सामने आएगी उससे वाकई आप खौफजदा हो जाएंगे। आइए इधर-उधर की बात छोड़ सीधे आंकड़ों पर बात करें।

गौरीकुंड से केदारनाथ धाम के लिए 14 किमी पैदल मार्ग है। इस मार्ग पर 4500 खच्चर चलते हैं। पीक सीजन की वजह से तबाही वाले उस दिन ये सभी बुक थे। एक यात्री और एक खच्चर वाले को यदि जोड़ा जाए तो इनकी संख्या 9000 हो जाती है। संभवतः किसी किसी खच्चर पर एक व्यक्ति के साथ एक या दो बच्चे भी बैठे हों। अमूमन ऐसा होता है कि एक खच्चर बुक करने के बाद उसमें बच्चे को भी बिठा लिया जाता है। ऐसे में यह संख्या और ज्यादा हो जाती है। यदि हम अकेले खच्चरों की बात करें तो लगभग 4500 खच्चरों का कहीं कोई कोई अतापता नहीं है।

इसी ट्रैक पर 700 डंडी चलती हैं। एक डंडी ले जाने के लिए चार लोग लगते हैं। यात्रा सीजन होने की वजह से उस दिन ये सभी भी बुक थे। यदि इन सबको जोड़ा जाए तो डंडी ले जाने वालों की संख्या 2800 हो जाती है और इसमें बैठे 700 लोगों को मिलाकर कुछ 3500 लोग। तकरीबन पांच सौ कंडी संचालित होती हैं। एक कंडी के साथ दो लोग होते हैं जो एक यात्री को ले जाते हैं। इनकी संख्या भी 1500 के लगभग हो जाती है।
वहां होटलों और धर्मशालाओं में भी लोग ठहरे होंगे। यात्रा सीजन होने की वजह से मार्ग में यात्रा व्यवस्था और अन्य कार्यों के लिए सरकारी और गैर सरकारी कर्मचारी भी जाहिर तौर पर वहां होंगे। यदि तमाम अखबारों और टीवी चैनलों की रिपोर्टों पर गौर करें तो तबाही की उस खौफनाक रात को केदारघाटी में लगभग 30 हजार लोग थे।

अब दबे सुर में एक हजार लोगों के मारे जाने और बारह हजार लोगों निकालने का दावा सरकार कर रही है। केदारघाटी में सभी को निकाला गया है और हर कोई यात्रियों को निकालने की बात कर रहा है। लेकिन उनके बारे में कोई चिंता नहीं है जिनके घर उजड़ गए। परिवार के लोग लापता हैं। उनकी कुल मिलाकर कहीं कोई खबर तक नहीं हैं। यदि देखा जाए तो क्या किसी न्यूज चैनल या अखबार ने वहां से घोड़े-खच्चरों को जिंदा निकालने की बात कही? क्या वहां के स्थानीय लोगों के बारे में कहीं कोई खोज खबर है?

केदारघाटी में तमाम तरह की खबरें सुननें में आ रही हैं कि वहां महिलाओं के छेड़छाड़ और लूटपाट जैसी घटनाओं का जिक्र भी सोशल मीडिया, तमाम न्यूज चैनलों और अखबारों में जरूर हो रहा है। 

लेकिन सवाल है कि क्या यह सब करने वाले उत्तराखंड के ही लोग हैं? यहां होटल, रिसोर्ट और धर्मशालाएं ज्यादातर महानगरों के लोगों की हैं और स्थानीय लोग मात्र सेवादार या नौकर के तौर पर वहां काम करते हैं। वहां लूट-खसोट की सी बातें उठ रही हैं। क्या लूट-खसोट करने वाले स्थानीय लोग हैं? जबकि कई गांव वालों ने फंसे तीर्थयात्रियों को घर में रखा और उन्हें राह दिखाई। कुछ अपवाद हो सकते हैं। वहां के लोग रहने और खाने पीने की वस्तुओं को महंगा भी बेच सकते हैं लेकिन वह महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और लूटपाट जैसी हरकत नहीं कर सकते। सोशल मीडिया पर लोग अपनी आप बीती लिख रहे हैं और ऐसी हरकतों को करने वालों की पहचान छोटी आंख वाले या नेपालियों के रूप में बता भी रहे हैं।

आपदा की इस घड़ी में उत्तराखंड के तमाम लोग वहां फसे लोगों की हर संभव मदद कर रहे हैं। वहां खाने के लंगर लगाए जा रहे हैं। जिस से जो बन पड़ रहा है हर संभव मदद कर रहे हैं।

एक सवाल यह भी उठता है कि आखिर में सेना ही हर विपत्ति के समय क्यों याद की जाती है? हमारा स्थानीय आपदा प्रबंधन महकमा, स्थानीय पुलिस और प्रशासन क्यों सक्रिय नहीं होता। क्या स्थानीय बेरोजगारों को राहत के काम की ट्रेनिंग नहीं दी जा सकती जिससे आगे फिर यदि ऐसी स्थिति आई तो वह उस से निपटने में सक्षम हो? क्या उनको उनकी कुशलता का परिचय नहीं देना चाहिए? क्या केंद्र सरकार या राज्य सरकार को इस दिशा में नहीं सोचना चाहिए? क्योंकि वहां मौजूद पुलिस को यदि ऐसी किसी मुश्किल से निपटने के लिए ट्रेनिंग दी जाती तो जब तक सेना को पता चलता है या सेना पहुंचती है तब तक वह स्पाॅट पर बहुत कुछ कर सकते हैं?

सरकार को चाहिए कि भविष्य में ऐसी घटनाएं न हो इसके लिए वहां हो रहे अंधाधुंध और बेतरतीब जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण कार्यों को तत्काल प्रभाव से रोका जाए। छोटी परियोजनायें गंगा-यमुना और तमाम तरह की छोटी बड़ी नदियों के प्रवाह के 100 मीटर के दायरें में किसी भी निर्माण को तत्काल प्रभाव से धराशाई किया जाए और नव निर्माण को सख्ती से रोका जाए। नदियों के पानी में सीवेज डालने का सिलसिला बंद किया जाना चाहिए क्योंकि क्योंकि आस्थावान तीर्थयात्री इस गंदगी से बैचेन होते हैं। नदी किरने आश्रम, होटल, धर्मशालाओं का सीवेज नदी में नहीं जाना चाहिए।  जो इलाका अक्सर शांत हुआ करता था वहां आज हर 10-15 मिनट के अंतराल में हेलीकाॅप्टर सेवा शुरू हो गई है, जिसे तत्काल बंद करने की जरूरत है। 

बुजुर्गों के मुताबिक केदारबाबा 50 या 100 या दो सौ साल पहले जैसे थे आज फिर वैसे ही हो गए हैं? सरकार को पर्यटन को बढ़ावा देना चाहिए लेकिन तमाम सावधानी के साथ। कि भविष्य में वहां किसी भी तरह के निर्माण कार्य पर सख्त पाबंदी हो। वहां यात्रा पर आने और जाने वालों की एक निश्चित संख्या और एक दिन में 500 या 1000 यात्री जाएं और लौट आएं। वहां सिर्फ तीर्थ पुरोहितों के अलावा स्थानीय लोग ही रहें।