Monday, April 12, 2010

इस महाकुंभ का संकल्प

दाताराम चमोली
कुंभ एक संस्कृति है। एक ऐसी महान संस्कृति है जिसके मूल में आत्मशुद्धि का विचार समाहित है। इसी विचार मंथन से राजनितिक और सामाजिक चेतना के नये-नये स्रोत फूटते हैं। पौराणिक काल में देवताओं और दानवों के बीच चली वर्चस्व की लंबी लडाई के फलस्वरूप तत्कालीन समाज तमाम समस्याओं से जूझने लगा। हर जगह लोग त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगे। जनता को इस भयावह स्थिति से उबारने के लिए अंततः देवताओं ने दानवों से संधि कर उन्हें समुद्र मंथन यानी विचार मंथन के लिए राजी किया। समुद्र मंथन से चौदह रत्न निकले जिन्हें देवताओं और दानवों ने अपनी पसंद के अनुसार आपस में बांट लिया। चौदहवें और अंतिम रत्न अमृत के लिए छीना-झपटी मच गयी। इसी छीना-झपटी में अमृत कलश छलक पडा। मान्यता है कि अमृत कलश से छलककर जहां-जहां भी अमृत की बूंदें गिरीं, उन्हीं जगहों पर तभी से कुंभ के आयोजन की परंपरा चली आ रही है।
देश में प्रयाग (इलाहाबाद), हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में कुंभ मेले आयोजित किये जाते हैं। वर्षों से आयोजित हो रहे इन मेलों पर हर बार लाखों-करोडों रुपये खर्च होते हैं। देश के बडे-बडे नेता, धर्माचार्य, समाजसेवी अपने-अपने ध्वजों, वातानुकूलित् वाहनों तथा हाथी-घोडों की सवारियों के साथ बडी शान से कुंभ में पहुंचते हैं। अपने को एक-दूसरे से बडा समझने के हठ में या पहले स्नान करने की होड में साधु-संतों के बीच खूनी संघर्ष भी हो जाते हैं। नेताओं से लेकर साधु-संतों तक सभी को अपनी छवि चमकाने की लगी रहती है, लेकिन जनहित के मसलों पर सोचने की दिशा में कहीं से भी कोई पहल नहीं होती। यहां तक कि कोई इस दिशा में भी नहीं सोचना चाहता है कि कुंभ के विकास कार्यों के नाम पर कभी गोदावरी, कभी क्षिप्रा तो कभी गंगा में करोडों रुपये बहा दिये जाते हैं। यह बात समझ से परे है कि कुंभ में हर बार विकास कार्य क्यों करवाने पडते हैं। ऐसे स्थायी निर्माण और विकास कार्य क्यों नहीं करवाये जा सकते हैं जिनका जनता को कुंभ की समाप्ति के बाद भी लाभ मिल सके।
सरकारी मशीनरी पर कुंभ मेलों में धन के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं। जनता चिल्लाती रहती है और नेताओं तथा भ्रष्ट नौकरशाहों का गठजोड सब कुछ सुनते हुए भी बेफिक्र होकर मनमानी करता रहता है। नतीजा यह है कि कुंभ के रूप में वर्षो से चली आ रही संस्कृति का लाभ जनता को नहीं मिल पाता।
इस बार हरिद्वार में सदी का पहला महाकुंभ होने जा रहा है। आगामी कुछ दिनों से स्नान का सिलसिला शुरू हो जायेगा। शासन-प्रशासन बडी मुस्तैदी से मेले की तैयारियों में जुटा हुआ है। यूं समझिये कि तैयारियां लगभग पूरी हो चुकी हैं। राज्य के मुयमंत्री डॉ रमेश पोखरियाल निशंक ने प्रमुख सचिव सुभाष कुमार और अपर सचिव निधिमणि त्रिपाठी को खासतौर पर कुंभ पर नजर रखने की जिमेदारी सौंपी है। चारों तरफ कुम्भ मेले की चहल-पहल है। हिमालय की चिंता को लेकर जिस प्रकार नेपाल सरकार के प्रधानमंत्री और मंत्री एवरेस्ट के बेस कैंप में जुटे ठीक उसी तर्ज पर उत्तराखंड सरकार के कर्णधार भी गंगा के किनारे अपनी कैबिनेट बैठक करने की तैयारी में हैं। इसके माध्यम से लोगों को गंगा को स्वच्छ और निर्मल रखने का संदेश दिया जायेगा।
अच्छी बात है कि कुंभ से पहले उत्तराखंड के कर्णधारों को गंगा को स्वच्छ और निर्मल रखने का अहसास हुआ, लेकिन उनका यह प्रयास तभी सार्थक साबित हो सकेगा, जब इसके लिए ठोस धरातल पर काम किया जायेगा। विडंबना ही है कि जो राजनेता और साधु-संत गंगा को बचाने की बडी-बडी बातें कर रहे हैं या करते रहे हैं, वहीं गंगा को प्रदूषित करने में पीछे नहीं हैं। राज्य के एक बडे मंत्री और उनके चेलों पर हरिद्वार में जमीनों पर अवैध कब्ज़ा करने के आरोप लगते रहे हैं। अवैध कब्जों की वजह से कुंभ की धरती सिकुडती जा रही है। साधु-संत भी इसमें पीछे नहीं हैं। हरिद्वार और ऋषिकेश में धर्मशालाओं और आश्रमों का धडल्ले से व्यावसायिक इस्तेमाल हो रहा है। कुछ साधु-संतों के आश्रमों की गंदगी सीधे गंगा में समा रही है। ये वही साधु-संत हैं जो बडे दमखम से गंगा को बचाने का संकल्प लेते हैं।
उत्तराखंड की कैबिनेट बैठक हरिद्वार में हो या फिर हिमालय में यह कैबिनेट और मुख्यमंत्री का अपना फैसला है, इसमें कोई आम आदमी भला क्या कर सकता है, लेकिन इतना अवश्य है कि जनता को गंगा की स्वच्छता का संदेश देने को आतुर कैबिनेट को इस बात का अहसास हो जाना चाहिए कि गंगा आज गौमुख से ही मैली हो चुकी है। गौमुख और बदरीनाथ से ही इसमें तमाम शहरों की गंदगी समा रही है। हाल के वर्षों में हुए शोधों के मुताबिक ऋषिकेश और हरिद्वार में भी इसके पानी में हानिकारक ई कोलीफार्म की काफी मात्रा पायी गयी है। जिस गंगा को बचाने की मुहिम हरिद्वार में शुरू की जाती है, उसकी तमाम धाराएं जल विद्युत परियोजनाओं ने लील ली हैं। ग्लेशियर खतरे में हैं। बडी जल विद्युत परियोजनाओं ने जगह-जगह बडी बेतरतीबी से हिमालय का सीना चीर डाला है। अपने अस्तित्व के लिए जूझता हिमालय आंसू बहा रहा है। वह चिंतित है कि सदियों से उसकी रक्षा करते रहे पहाडवासियों को विशालकाय बांध परियोजनाओं ने अपनी जडों से उजडने के लिए विवश कर दिया है। उनके विकास और आजीविका के लिए कोई ऐसी नीति नहीं बन पा रही है ताकि वे हिमालय में ही ठहरे रहें। पलायन के चलते उनकी बस्तियां वीरान हो चुकी हैं। राज्य के नीति-नियंताओं को यह बात समझ में नहीं आती है कि यदि हिमालय पर बसावट ही नहीं रहेगी तो इसकी रक्षा कौन करेगा? जब हिमालय ही नहीं रहेगा तो फिर गंगा कहां से बचेगी? इसलिए गंगा को बचाने की कोई भी बात वास्तविक धरातल पर ही होनी चाहिए। हवाई नारों और गंगा किनारे कैबिनेट की बैठक कर देने भर से गंगा नहीं बच पायेगी। राज्य के राजनेताओं में जरा भी राजनीतिक इच्छाशक्ति है तो इस महाकुंभ में स्नान कर संकल्प लें कि भविष्य में राज्य में जो भी विकास योजनायें बनेंगी वे हिमालय और गंगा के लिए किसी भी तरह से घातक नहीं होंगी।
एक बात यह महत्वपूर्ण है कि कुंभ का स्नान सिर्फ रस्म अदायगी के लिए नहीं है, बल्कि आत्मशुद्धि के लिए है। राज्य और देश के नेताओं को इस शुभ अवसर पर अपने अंदर झांककर देखना चाहिए कि हिमालय में विकास की जो नीतियां वे बनाते आये हैं, वे कहां तक उचित हैं? हिमालय में पर्यावरण सुरक्षा और गंगा सफाई अभियान के नाम पर अब त्क जो अरबों रुपये खर्च किये गये, उनसे गंगा का विषैलापन कहां तक शुद्ध हुआ? विचारमंथन (कुंभ) का यह मौका हाथ से न जाने दें। देश और दुनिया के लिए गंगा और हिमालय का बचना बहुत् जरूरी है, लेकिन यह तभी संभव है जब वहां आबादी बसी रहेगी। उत्तराखंडवासियों को केंद्र में रखे बिना हरिद्वार में कुंभ के आयोजन की कल्पना करना व्यर्थ है। सदियों से वे कुंभ की महान संस्कृति को जीवित रखे हुए हैं। यहां तक कि मंथन से जो हलाहल विष निकलता है उसे पीने न तो कोई नेता आगे आता है और न ही कोई धर्माचार्य। अमृत तो नेता और नौकरशाह चट कर जाते हैं, लेकिन विष अंततः जनता को ही पीना पडता है।