- सरल शास्त्री
अब तो धर्मप्राण भारत देश में बात बात पर साम्प्रदायिक दंगे होना आम बात हो गई है और उन्हें हवा देते हैं अपना उल्लू सीधा वाले स्वार्थमग्न विभिन्न दलों के नेता. अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद के ढांचे को तोड़ने पर पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगों की जो भयंकर आग फैली, उससे देश की अपूरणीय क्षति हुई.
भारत देश ही नहीं, विदेशों में भी कट्टरपंथियों ने प्रतिशोध लेने के लिए कितने ही मंदिर धराशायी कर दिए और कितने ही प्रतिशोध की ज्वाला में भेंट कर दिए. यत्र तत्र खूनी संषर्घों से लोग त्राहि-त्राहि कर रहे थे, किन्तु देश में आए उस भीषण तूफान के बावजूद प्राचीन तीर्थस्थल गढ़मुक्तेश्वर में हिन्दू-मुसलमानों ने एकता की मशाल जलाये रखी. एकता का ही प्रभाव है कि वहां आज तक साम्प्रदायिक दंगा नहीं भड़का.
देखा गया है कि हिन्दू-मुसलमानों में जो दंगे होते हैं उनमें अधिकांश कारण मंदिर-मस्जिद ही हुआ करते हैं. जहां भी मंदिर-मस्जिद पास-पास है, वहां प्राय: दंगे भड़कते ही रहते हैं. उदाहरणार्थ तीर्थनगरी काशी और मथुरा में मंदिर-मस्जिद पास-पास होने से वहां हर समय दंगों की आशंका बनी ही रहती है. न जाने किस क्षण क्या हनहोनी हो जाए, इसी के मद्देनजर उन संवेदनशील स्थानों की के लिए सुरक्षा पुलिस प्रशासन हर समय सतर्क रहता है, किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि गढ़मुक्तेश्वर में शहर के बीचोबीच प्राचीन पंचायती मंदिर और फतेहपुरी मस्जिद शदियों से पास-पास होने पर भी वहां आज तक साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ. यह हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द और एकता की पूरे विश्व में अनूठी मिसाल है.
सबसे बडी़ भाईचारे की बात यह है कि मंदिर-मस्जिद की संयुक्त दीवार है, जिसकी एक तरफ की सुरक्षा मरम्मत, पुताई आदि मंदिर की प्रबंधक समिति करती है दूसरी तरफ की सुरक्षा व्यवस्था मस्जिद की कमेटी करती है. देश में आये धार्मिक उन्माद के झंझावात भी मंदिर-मस्जिद की एकता की नींव को किंचित भी हिला न सके. यहां पर हिन्दू-मुस्लिम एकता और सौहार्द की एक और अनूठी बात यह है कि यहां मंदिर में आरती के समय घंटे-घड़ियाल और शंख ध्वनि तथा मस्जिद में अजान की गूंज दोनों एक साथ ही होती हैं. यह अपने आप में एकता और भाईचारे की बेजोड़ मिसाल है. यदि इस मिसाल का पूरे देश में अनुसरण हो तो हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो ही नहीं सकते. गढ़मुक्तेश्वर में साम्प्रदायिक दंगे न होने के पीछे इस तीर्थ नगरी की पावनता का प्रभाव है, जिसके कारण लोगों के मनों में मैल आ ही नहीं पाता.
मीरा की रेती में गुदड़ी का मेला
गढ़मुक्तेश्वर कस्बा के उत्तरी छोर पर मुक्तीश्वरनाथ का मंदिर है. उस मंदिर के मुख्य द्वार से पूर्व की ओर लगभग आधा किलोमीटर लम्बी रोड जाती है. गंगा मंदिर से कुछ ही आगे कुछ वर्षों पूर्व तक वहां रेतीला क्षेत्र था, जो 'मीरा की रेती' के नाम से प्रसिद्ध है. वहां कभी भगवान श्रीकृष्ण की प्रेम की दीवानी और उदयपुर राजघराने की पुत्रवधू मीराबाई घरवार छोड़ने से पूर्व कार्तिक मास में लगने वाले मेले में गंगा स्नान करने आती थीं और हर वर्ष अपने डेरे इसी रेतीले भाग में लगाती थीं. भगवान की भक्त मीराबाई इस पावन तीर्थ गढ़मुक्तेश्वर की पावनता से इतनी प्रभावित थीं कि कुछ दिनों तक यहीं ठहर कर भक्ति भाव से पतितपावनी गंगा में स्नान कर पाठ-पूजा और दान करती थीं. एक बार उन्होंने एक बाग खरीद कर गढ़मुक्तेश्वर के पंडाओं को दान में दिया था, जो शुक्लों के बाग के नाम से जाना जाता था. अब उस बाग का कोई मालिक न होने के कारण नगरपालिका के अधिकार में है. भगवान श्रीकृष्ण की परम भक्त मीराबाई ने गंगा की इस रेती में एक मंदिर भी बनवाया था, जिसे मुगल शासन काल के दुर्दांत शासक औरंगजेब ने धराशायी कर दिया था और वह स्थान मुस्लिम फकीर के हवाले कर दिया था.
कार्तिक मास की पूर्णिमा पर कस्बे से दूर गंगा किनारे लगने वाला विशाल मेला वहां से उखड़ने के बाद मीरा की रेती में लगता है, जो लगभग एक माह तक चलता है. मीरा की रेती में लगने वाला मेला गुदडी़ के नाम से जाना जाता है. गुदडी़ मेला की परम्परा मीराबाई के समय से ही है. बुजुर्गों से सुना है कि एक बार मेले में लोगों के कम आने के कारण मेले में आये दुकानदारों का सामान कम बिका. वे लोग कमाने की आशा लिये मेले में आये थे, किन्तु उनकी आशा पर तुषारापात होने से वे बड़े निराश और दुखी थे. उन्होंने करुणा की मूर्ति मीराबाई के पास आकर अपने मन की पीडा़ बतलाई. दुकानदारों का करुण-रुदन सुनकर मीराबाई का कोमल हृदय पिघल गया. उन्होंने उदारता का परिचय देते हुए दुकानदारों का सारा सामान स्वयं खरीद लिया. सामान बिकने से दुकानदार बड़े खुश हुए और अपने घरों को चले गये. तभी से हर वर्ष मेले के बाद मीरा की रेती में गुदडी़ का मेला लगने लगा. मेले से बचा सामान दुकान यहां बेचकर ही अपने घरों को जाते हैं. मीरा की रेती में बने पूज्यस्थल पर आज भी मीरा के नाम से भरपूर चढा़वा आता है.
नवोदित तीर्थस्थल बृजघाट
सन् 1900 के बाद जैसे-जैसे पतित पावनी भागीरथी गंगा तीर्थनगरी गढ़मुक्तेश्वर से रूठ कर दूर होती गयीं, वैसे-वैसे इस तीर्थ नगरी की पावनता, शोभा और आकर्षण तिरोहित होते गए और यह तीर्थ नगरी उजड़ती चली गई, किन्तु करुणामयी गंगा मां की अनुकम्पा से गढ़मुक्तेश्वर के निकट नये तीर्थ बृजघाट का प्रादुर्भाव हुआ. बृजघाट नवोदित तीर्थस्थल है. यह गढ़मुक्तेश्वर कस्बे से पूर्व की दिशा में लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर गंगा किनारे हैं. अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में सन् 1900 में यहां गंगा पर रेल का पुल बनवाया था. सन 1935 से यहां कुछ देर को रेलगाडी़ रुकने लगी, जिससे यहां गंगा प्रेमियों का आगमन होने लगा. फिर 1960 में दिल्ली-लखनऊ राजमार्ग के लिए सड़क पुल बना. यातायात की दोहरी सुविधा होने से गंगा मैया के भक्त गंगा स्नान के लिए यहां आने लगे और पुलों की वजह से ही इस नवोदित तीर्थस्थल का नाम बृजघाट पड़ा.
श्रद्धालुओं का रुझान देखकर गढ़मुक्तेश्वर के पंडाओं ने भी बृजघाट पर अपना अड्डा जमा लिया. पहले तो केवल अमावस्या और पूर्णिमा को ही श्रद्धालु गंगा स्नान के लिए आते थे, इसलिए पंडाओं का भी वहां अस्थायी अड्डा था. गंगा स्नानार्थियों की सुविधा के लिए दिल्ली आदि के सेठ लोगों ने बृजघाट पर कुछ धर्मशालायें बनवा दीं. फिर तो यहां धीरे-धीरे सैकड़ों मंदिर और धर्मशालायें बन गईं. इससे प्रभावित होकर गढ़मुक्तेश्वर के पंडाओं ने उन मंदिर और धर्मशालाओं में अपना स्थायी अड्डा जमा लिया. जैसे-जैसे यहां श्रद्धालुओं का आगमन बढ़ता गया, वैसे-वैसे यह नवोदित तीर्थ दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करता गया. अब तो यहां अमावस्या और पूर्णिमा के दिन ही नहीं, अपितु प्रतिदिन श्रद्धालुओं की अच्छी खासी भीड़ रहती है. प्रत्येक अमावस्या, पूर्णिमा और पर्व के दिन तो यहां लाखों श्रद्धालु गंगा स्नान करने के लिए आते हैं. यहां पर कई प्रसिद्ध मंदिर भी हैं, जिनमें वेदांत मंदिर, चामुंडा मंदिर और गंगा किनारे फलाहारी बाबा की कुटिया दर्शनीय हैं.
सप्तपुरियों में गिनी जाने वाली मायानगरी (हरिद्वार) के उत्तराखंड में चले जाने पर उत्तर प्रदेश शासन की हरिद्वार के विकल्प में बृजघाट को हरिद्वार जैसा बनाने की योजना है. इसके लिए धन भी स्वीकृत हुआ है तथा योजना के तहत पुराने घाट को तोड़कर नये घाट का निर्माण हुआ है तथा घाट पर ही हरिद्वार जैसा घंटाघर भी बनवाया गया है. हरिद्वार की तरह गंगा की आरती भी होने लगी है. यात्रियों की सुविधा के लिए घाट के निकट ही सुलभ शौचालय की व्यवस्था है, किन्तु सरकार की ढुलमुल नीति से लगता है कि सरकार की यह योजना यानी बृजघाट को हरिद्वार बनाने की योजना केवल दिवास्वप्न ही बनकर न रह जाए.
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