Friday, July 17, 2009

बाल मजदूरी या मजबूरी! फिर क्‍या हो?

बाल मजदूरी को लेकर आए दिन अखबारों में खबरें पढ़ने को मिलती हैं. आए दिन कई गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) ये दावे करते हैं कि हमने इतने बच्‍चे मुक्‍त कराए. लेकिन क्‍या कभी आपको यह सुनने या पढ़ने को मिला है कि जिन बाल मजदूरों को मुक्‍त कराया बाद में उनका क्‍या हुआ? अगर बाल सुधार ग़ृह भेजे गए तो क्‍या वहां भेजे जाने के बाद उनके जीवन में कोई सुधार आया? शायद नहीं, क्‍योंकि यह एक कड़वा सच है कि जिन बच्‍चों को एनजीओ मुक्‍त कराते हैं, वे एनजीओ पुलिस बुलाने और थाने में मीडिया के सामने बच्‍चों के बीच फोटो खिंचवाने के बाद बच्‍चों के रहन-सहन और खान-पान व दुख-दर्द की सारी जिम्‍मेदारी पुलिस को सौंपकर चलते बनते हैं अपने एसी कार्यालयों में ऐसे ही अन्‍य बाल मजदूरों का 'उद्धार' करने की योजना बनाने.
एनजीओ की इन कारनामों के बाद बच्‍चों पर दोहरी मार पड़ती है. न तो उनके पास काम रहता है, न ही कोई ठिकाना. पेट भरने का साधन तो पहले ही छिन चुका होता है. उनकी इस दशा के समय तब कोई एनजीओ सामने नहीं आती. वे एक बार फिर उसी जगह पहुंच जाते हैं जहां से उन्‍होंने अपनी जिंदगी का कांटोंभरा सफर शुरू किया होता है.
देश का भविष्‍य कहे जाने वाले ये बच्‍चे देश के दूसरे राज्‍यों से अपने और अपने परिवार का पेट भरने, छोटा-मोटा काम सीखने की ललक लेकर दिल्‍ली जैसे महानगरों में आते हैं. काम मिलता है, काम सीखते हैं और पेट भी भरते हैं. सभी ठी‍क-ठाक चल रहा होता है कि तभी सिर्फ मीडिया में वाहवाही लूटने और अपनी दुकानदारी चलाने वाले ये एनजीओ बचपन बचाओ के नाम पर उनकी सारी मेहनत पर पानी फेर देते हैं. और वे बच्‍चे फिर उसी चौराहे पर आ खड़े होते हैं.
क्‍या कभी ये एनजीओ उन बाल मजदूरों को मुक्‍त कराने के बाद उनकी सुध लेते हैं. क्‍या कभी उनके भविष्‍य के बारे में कोई योजना चलाते हैं. क्‍या कभी इन्‍होंने किसी बाल मजदूर का भरण-पोषण का जिम्‍मा उठाया है. हां, इतना जरूर है कि बचपन बचाओ के नाम पर इनको बाल सुधार गृह में भेज दिया जाता है.
बाल सुधार गृह में इनकी क्‍या स्थिति होती है. ये सभी जानते हैं. क्‍या इसमें किसी बच्‍चे के जीवन में कोई सुधार आया है? चलो मान लेते हैं कि बाल सुधार गृह में ये बच्‍चे खुश हैं लेकिन कब तक? तब तक जब तक ये बाल सुधार गृह में है, वहां से निकलते ही ये फिर रोड पर आ जाते हैं. इनके सामने एक नहीं बल्कि कई संकट आ खड़े होते हैं. खाने-पीने, रहने-सोने जैसी तमाम जरूरतों के लिए इन्‍हें कई तरह की दिक्‍कतों का सामना करना पड़ता है.
अभी हाल में हाईकोर्ट ने कहा है कि बाल मजदूरी को खत्‍म किया जाए. खंडपीठ ने कहा कि आज के बच्‍चे ही कल का भविष्‍य हैं. बच्‍चों के बेहतर भविष्‍य के लिए जरूरी है कि उन्‍हें शिक्षित किया जाए न कि वे शोषण का शिकार हो जांए. खंडपीठ ने अपने आदेश में कहा कि वास्‍तव में बच्‍चे समुदाय की सबसे बेशकीमती चीज हैं. शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्‍व न होने के कारण बच्‍चे विशेष ध्‍यान और संरक्षण पाने के हकदार हैं. हमारे देश में यह समस्‍या काफी गंभीर हैं क्‍योंकि यहां इसका मुख्‍य कारण लोगों का अशिक्षित होना है.
कोर्ट का यह फैसला स्‍वागत योग्‍य है, लेकिन क्‍या भारत जैसे विकासशील देश में यह सब हो पाना संभव है जहां की करीब आ‍धी आबादी गरीबी और अशिक्षा का दंश झेल रही हो.
क्‍या हमने कभी यह गौर किया है कि आखिर ये बाल मजदूर आए कहां से, इनकी क्‍या मजबूरी, लाचारी है. इसके पीछे जरूर कोई न कोई कारण होगा, जिसके चलते वे यह सब करने को मजबूर होते हैं.
सवाल यह पैदा होता है कि इनको मुक्‍त कराने के बाद इनका क्‍या होता है. इनको मुक्‍त तो करा दिया जाता है लेकिन इनके सामने जो रोजी रोटी का संकट खड़ा होता है उसके बारे में कोई नहीं सोचता. एनजीओ को सिर्फ अपना उल्‍लू सीधा करना होता है सो वे करते हैं. फिर ये बच्‍चे चाहे जीएं या मरे, इनसे इनको कोई लेना-देना नहीं होता. इनको तो सिर्फ कागजों में खाना-पूर्ति करनी होती है अपनी प्रसिद्धि चाहिए होती है, सरकार से ईनाम और अनुदान चाहिए होता है. जिससे इनका अपना जीवन मजे में चलता है समाज में धाक और सम्‍मान रहता है. क्‍या ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसी तथाकथित खतरनाक काम में लगे इन बाल मजदूरों को सही ढंग से रोजगारपरक शिक्षा-प्रशिक्षण दिया जाए.
यकीन मानिए इनमें कई बच्‍चे ऐसे होते हैं जो अपने घरों को पैसे भेजते रहते हैं. कई ऐसे हैं जो खुद मेहनत करके अपने छोटे भाई-बहनों का खर्चा उठा रहे हैं.
ऐसा नहीं है कि बाल मजदूरी को सही ठहराया जाए, लेकिन यह चिंतनीय विषय है कि इसकी हकीकत क्‍या है?
हम भी बाल मजदूरी के खिलाफ हैं, लेकिन उनका और उनके चंद रुपयों से पलने वाले लोगों का क्‍या होगा?
हमें अपने विचार जरूर भेजिए।
रावत शशिमोहन पहाड़ी

Saturday, July 4, 2009

संग्राली गांव में कंडार देवता का राज

उत्तरकाशी। पहाड़ में सदियों से चली आ रही मान्यताएं आज भी जिंदा है। इसका जीता जागता उदाहरण प्राचीन संग्रामी गांव में देखने को मिलता है। यहां पंडित की पोथी, डाक्टर की दवा और कोतवाल का डंडा यहां काम नहीं आता है। गांव में कंडार देवता का आदेश ही सर्वमान्य है।
देवभूमि उत्तराखंड के उत्तर में उत्तरकाशी के निकट वरुणावत पर्वत के शीर्ष पर बांयी ओर संग्राली गांव में कंडार देवता का प्राचीन मंदिर आस्था और विश्वास का केंद्र ही नहीं, बल्कि एक न्यायालय भी है। इस न्यायालय में फैसले कागजों में नहीं होते और न ही वकीलों की कार्यवाही होती है। यहां फैसला देवता की डोली सुनाती है। संग्राली गांव के लोग जन्मपत्री, विवाह, मुंडन, धार्मिक अनुष्ठान, जनेऊ समेत अन्य संस्कारों की तिथि तय करने के लिए पंडित की तलाश नहीं करते। कंडार देवता मंदिर के पंचायती प्रांगण में जमा होकर ग्रामीण डोली को कंधे पर रख कंडार देवता का स्मरण करते हैं। इस दौरान डोली के डोलने से इसका अग्रभाग जमीन का स्पर्श करता है। इससे रेखाएं खिंचने लगती हैं। इन रेखाओं में तिथि व समय लिख जाता है। आस्था है कि जन्म कुंडली भी जमीन पर रेखाएं खींचकर डोली स्वयं ही बना देती है। कई ऐसे जोड़ों का विवाह भी कंडार देवता करवा चुका है, जिनकी जन्मपत्री को देखने के बाद पंडितों ने स्पष्ट कह दिया था कि विवाह हो ही नहीं सकता। मात्र यहीं नहीं बल्कि गांव में जब कोई व्यक्ति बीमार हो जाता है तो उसे उपचार के लिए कंडार देवता के पास ले जाया जाता है। सिरर्दद, बुखार, दांत दर्द तो ऐसे दूर होता है जैसे पहले रोगी को यह दर्द था ही नहीं।
साभार : याहू दैनिक जागरण