Friday, February 12, 2010

हिमालय को बसाये बिना नहीं बचेगी गंगा

  • दाताराम चमोली
'गंगा बचाओ’ का नारा एक बार फिर सुर्खियों में है। कभी कोई पदयात्रा पर निकल पड़ता है तो कोई अनशन कर गंगा की रक्षा का संकल्प ले रहा है। वर्षों से गंगा को मैली होते देखते आ रहे कुछ साधु-संत भी एकाएक चिंतित हो पड़े हैं। वास्तव में देश के लिए गंगा का बचना बहुत जरूरी है। यह सदियों से राष्ट्र की सांस्कृतिक एवं धार्मिक आस्था का आधार रही है। इसका जल करोड़ों लोगों को जीवन देता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या महज नारों से ही गंगा का अस्तित्व बचा रह पाएगा? यदि ऐसा संभव होता तो वर्षों से गंगा और हिमालय को बचाने की दुहाई देते आ रहे तमाम गैर सरकारी संगठनों को अपने उद्देश्य में कब की कामयाबी मिल गई होती।
उत्तराखण्ड हिमालय के 16 हजार गांवों में इस समय करीब 45 हजार गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) हैं। इनमें अधिकांश पर्यावरण संरक्षण और हिमालय को बचाने में जुटे हैं। इसके एवज में उन्हें देश-विदेश से करोड़ों की धन राशि मिल जाती है। लेकिन हालत यह है कि पिछले वर्ष जिन लोगों को उत्तराखण्ड में समाज सेवा के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया, उनके बारे में समाचार माध्यमों से जानकारी पाकर जनता हैरान रह गई। दरअसल जनता उन्हें जानती ही नहीं थी। समाज सेवा के उनके प्रयास उत्तराखण्ड के किस क्षेत्र में रंग लाए, इससे भी लोग अनभिज्ञ हैं। पलायन की पीड़ा और प्राकृतिक संसाधनों के सही नियोजन न होने से एक कहावत प्रचलित हो गयी कि पहाड़ का पानी और जवानी कभी भी वहां के काम नहीं आयी। यह सच भी है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि हिमालय बचाने के नाम पर लूट-खसोट करने वालों के लिए वह धरती बेहद उर्वरा साबित हुई है। देश-विदेश से धन बटोरने वाले संगठन यहां कुकुरमुत्तों की तरह पनपते रहे हैं। हिमालय को बचाने के नाम पर हिमालय को बेचा जा रहा है। राज्य की जनता असहाय होकर यह सब देखने को विवश है। सरकारें भी उन्हीें लोगों को तवज्जो देती हंै जो हिमालय या गंगा को बचाने के नाम पर अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति करते हंै या फिर अपनी धार्मिक एवं सामाजिक दुकानें चमका रहे हैं। यही वजह है कि जनता को ऐसे लोगों का कोई समर्थन नहीं मिलता।
दरअसल पहाड़ के लोग भली भांति जानते हैं कि विस्थापन और पलायन अब उनकी नियति बन गई है। परियोजना चाहे तपोवन-विष्णुगाड हो या मनेरी भाली या फिर कोटली भेल, हर जगह नुकसान अंततः उन्हें ही झेलना पड़ेगा। सरकारी नीतियां विकास की आड़ में विनाश को आमंत्रित कर रही हैं। उत्तराखण्ड को ऊर्जा प्रदेश बनाने के लिए पहाड़ों को बुरी तरह खोदा जा रहा है। टिहरीवासियों की तरह ही संपूर्ण पहाड़ के लोगों को उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक जड़ों से काट दिया जाएगा। मध्य हिमालय में 200 से अधिक बांध परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। इनके लिए 700 किलोमीटर लंबी सुरंगों का निर्माण कर धरती को खोखला कर दिया जाएगा। इनके उपर लगभग डेढ़ हजार गांव होंगे। कई गांव बिजली घरों के ऊपर अपने मिटने की घड़ी गिनेंगे। सैकड़ों गांवों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। विष्णुगाड परियोजना के लिए बनी सुरंग के नीचे बने पावर हाउस से संकट में पड़े चांई गांव के लोगों की तरह वे भी अपने भाग्य को कोसेंगे। सरकार नदियों का सीना चीरने पर आमादा है। वह भूल जाती है कि वर्ष 2008 में राज्य की अपनी बिजली की कुल खपत 737 मेगावाट है। अन्य राज्यों को दी जाने वाली बिजली को मिलाकर ऊर्जा की कुल खपत 1500 मेगावाट है। वर्ष 2022 तक राज्य की ऊर्जा की कुल खपत बढ़कर 2849 मेगावाट होगी। इतनी ऊर्जा नदियों के नैसर्गिक प्रवाह को रोके बिना या लघु पन बिजली योजनाओं से भी पैदा की जा सकती है।
विशेषज्ञ शुरू से ही कहते आए हैं कि उत्तराखण्ड हिमालय के लिए बड़ी बांध परियोजनाएं विनाशकारी और लघु जल विद्युत परियोजनाएं हर दृष्टि से वरदान हैं। उत्तराखण्ड राज्य की मांग वास्तव में सत्ता के विकेन्द्रीकरण के साथ ही योजनाओं के विकेन्द्रीकरण को लेकर भी उठी थी। वहां के लोगों को लगता था कि पृथक राज्य गठन के बाद सरकारी विकास योजनाएं पहाड़ की विषम भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखकर बनंेगी, लेकिन आज भी उत्तर प्रदेश की तर्ज पर ही अव्यावहारिक योजनाएं बन रही हैं। बेतरतीब निर्माण कार्यों में विस्फोटकों के बेतहाशा इस्तेमाल से पहाड़ हिल रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है। सदियों से जल, जंगल और जमीन की रक्षा करते आ रहे पहाड़वासियों के इन प्राकृतिक संसाधनों से हक-हकूक छीने जाने का सिलसिला जारी है। लोगों को सुखद जीवन जीने की सुविधाएं देने के वजाय पलायन और विस्थापन के लिए मजबूर किया जा रहा है। गंभीर चिंता का विषय है कि पिछले 10 सालों के दौरान उत्तराखण्ड के 10 लाख से ज्यादा लोग स्थाई रूप से अपने गांव-घर छोड़ चुके हैं। करीब दो लाख घरों में ताले पड़ गए हैं। इनमें एक लाख से अधिक ग्रामीण क्षेत्रों के हैं। युवा शक्ति के बड़ी संख्या में बाहर चले जाने से गांवों में अक्सर यह समस्या खड़ी हो जाती है कि शव को श्मशान तक कैसे पहुंचाया जाए।
असल में गंगा बचाने का सवाल धार्मिक एजेण्डे को मजबूत करने और इसी बहाने किसी के लिए ख्याति अर्जित करने का साधन बना हुआ है। गंगा सिर्फ गंगोत्री से निकलने वाली धारा नहीं है, बल्कि इसकी मुख्य धारा अलकनंदा है। धार्मिक रूप से भी पंच प्रयाग अलकनंदा पर ही हैं। इन पांच नदियों के मिलन से भागीरथी गंगा बनती है। इसलिए इसे सिर्फ 48 किलोमीटर तक शुद्ध रखने की और अविरल बहने देने की बात बहुत कमजोर है। अलकनंदा के उद्गम से लेकर नंदप्रयाग तक इसमें सात बांध प्रस्तावित हैं। इनमें अधिकांश में सुरंगें बननी हैं। कई-कई किलोमीटर तक यह जीवनदायिनी नदी मृत पड़ी है। लेकिन किसी पर्यावरणविद् को इस बात की चिन्ता नहीं है। सही बात यह कि गंगा को बचाने के लिए उन लोगों की भागीदारी जरूरी है जो परंपरागत तरीके से जलधाराओं को बचाने और जल संवर्धन को अपना धर्म समझते हैं। जहां तक पहाड़ का सवाल है वहां सिर्फ गंगा ही गंगा पवित्र नहीं है बल्कि वह सभी 17 नदियां उसकी अराध्य हैं जो उसको जीवन प्रदान करती हैं। उन्हें बचाने के लिए उसका अपना दर्शन है। पेड़ों को बचाने, जमीन को सुरक्षित रखने और पानी के संवर्धन के उसके अपने तरीके ने गंगा और उसकी सहायक नदियों को बचाने की पुरातन से कोशिश की है।
योजनाकारों ने विकास का जो विनाशकारी माॅडल तैयार किया उससे नदियां, जंगल और जमीन उनसे अलग होने लगी। जो नदियां कभी उन्हें भाई-चारे, सौहार्द और सहकारिता का संदेश दिया करती थी अब बांधों ने उनके रोटी-बेटी के रिश्तों तक में दूरियां ला दी हैं। बिगड़ती पारिस्थितिकी और संसाधनों पर से हटते अधिकारों ने जनता को प्रकृति के साथ उसके पौराणिक अन्र्तसंबंधों से दूर किया है। रही-सही कसर सरकारी कानूनों ने पूरी कर दी। वन आधिनियम 1980 जैसेे काले कानून आने के बाद तो जंगल सरकारी हो गये। घास-पत्ती, लकड़ी और पत्थर से छिने हक-हकूकों ने जंगल के दावेदारों को इसके प्रति संवेदनहीन कर दिया। मौजूदा समय में परंपरागत जंगलों के समाप्त होने से चीड़ और यूकेलिप्टस के रोपड़ से यहां के जल स्रोत तेजी के साथ घटे हैं। चैड़ी पत्ती के वृक्षों के अभाव में ग्लोबल वार्मिंग से हिमालय पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। ग्लेशियर खिसक रहे हैं। पहाड़ पर नया संकट है। यह भी कहा जा सकता है हिमालय प्रतिकार की मुद्रा में है। कभी पहाड़ के लोग नारा लगाते थे कि ‘हिमालय रूठेगा।’ देश टूटेगा यह अब सत्य साबित हो रहा है। इसी संदर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है कि पिछले चार दशक से हिमालय को बचाने के लिए आंदोलनरत जनता की आवाज सुनने के लिए नीति-नियंता तैयार नहीं हैं। लेकिन हवाई नारों और गंगा से कुछ पा लेने के लिए जुटे लोग सरकार के लिए गंगा बचाने के पैरोकार बन बैठे। यही इस आंदोलन और हिमालय को बचाने की त्रासदी है।
पलायन की समस्या ने सीमाओं की सुरक्षा का भी सवाल खड़ा कर दिया है। जब सीमाओं पर लोग ही नहीं रहेंगे, तो उनकी चैकसी कौन करेगा? कभी सरकार इस सीमांत क्षेत्र के लोगों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देती थी। सेवा सुरक्षा बंधुत्व (एसएसबी) के जवान गांव-गांव में जाकर युवाओं, महिलाओं और पुरुषों को दुश्मन से लड़ने के गुर सिखाते थे। यह बात समझ से परे है कि न जाने अब सरकार इसकी जरूरत क्यों महसूस नहीं करती? पलयान और विस्थापन न सिर्फ उत्तराखण्ड बल्कि अन्य हिमालयी राज्यों की भी समस्या है। एक तरह से विकास की गलत होती परिभाषा और संसाधनों से एक साथ ज्यादा लाभ पाने की नफाखोरी की प्रवृत्ति से उपजी स्थितियां हैं। इसका निशाना जल, जंगल और जमीन पर आश्रित सभी समुदायों के लिए खतरे की घंटी है। आदिवासी क्षेत्रों में भी इस नफाखोरी को हिंसक पंजे फैले हैं। हिमालयी राज्यों में 400 से अधिक बांध परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। विशालकाय बांध परियोजनाएं न सिर्फ विस्थापन की समस्या खड़ी करेंगी बल्कि हिमालय में पारिस्थितिकी असंतुलन का कारण भी बनेंगी। इनसे भूस्खलन और भूकंप का खतरा बढ़ेगा और हिमालय का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा। ऐसी स्थिति में न तो गंगा बच पाएगी और न ब्रह्मपुत्र। इंटरनेशनल कमीशन फाॅर स्नो एण्ड आइस के एक अध्ययन के मुताबिक अगले 50 सालों में हिमालय के 50 हिमखंड समाप्त हो जाएंगे। गोमुख ग्लेशियर खतरे में है। 1935 से अब तक इसकी लंबाई 6 किमी और चैड़ाई 2 ़5 किमी घटी है। सन् 2007 में जारी संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि ग्लेशियर इसी तरह सिमटता रहा तो 2030 तक गंगा लुप्त हो जाएगी। ऐसे में गंगा को बचाने के लिए कहीं से भी आवाज उठती है तो वह स्वागत योग्य है। वर्षों सरकारी सेवा का सुख भोगने के बाद रातों-रात कोई पर्यावरणविद् का चोला पहनकर आगे आए या फिर जीवन भर अपने आश्रमों के नजदीक गंगा को मैली होती देखने के बादवजूद 80-90 साल की उम्र में किसी शंकराचार्य को गंगा की रक्षा का बोध हो जाए, इस पर किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है। यह उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है कि वे कब और किस उम्र में गंगा की रक्षा का संकल्प लेते हैं। लेकिन इतना अवश्य है कि गंगा को बचाने की कोई भी बात ठोस धरातल पर ही की जानी चाहिए। गंगा से पहले हिमालय को बचाने की के लिए आवाज उठनी चाहिए। हिमालय बचा रहेगा तो गंगा खुद बच जाएगी। हां, एक अहम बात सच्चाई यह है कि हिमालय को बचाने के लिए उसका बसना बेहद जरूरी है। हिमालय पर आबादी बसी रहनी चाहिए। वहां से लोगों का पलायन देश और दुनिया के हित में नहीं है।