Thursday, July 31, 2008

पूर्वजों की आस्था का केन्द्र : कटारमल सूर्य मंदिर


रावत शशिमोहन 'पहाड़ी'
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि कोणार्क का सूर्य मंदिर अपनी बेजोड़ वास्तुकला के लिए भारत ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है. भारत के ओड़िसा राज्य में स्थित यह पहला सूर्य मंदिर है जिसे भगवान सूर्य की आस्था का प्रतीक माना जाता है. ऐसा ही एक दूसरा सूर्य मंदिर उत्तराखण्ड राज्य के कुमांऊ मण्डल के अल्मोड़ा जिले के कटारमल गांव में है. यह मंदिर 800 वर्ष पुराना एवं अल्मोड़ा नगर से लगभग 17 किमी की दूरी पर पश्चिम की ओर स्थित उत्तराखण्ड शैली का है. अल्मोड़ा-कौसानी मोटर मार्ग पर कोसी से ऊपर की ओर कटारमल गांव में यह मंदिर स्थित है.
यह मंदिर हमारे पूर्वजों की सूर्य के प्रति आस्था का प्रमाण है, यह मंदिर बारहवीं शताब्दी में बनाया गया था, जो अपनी बनावट एवं चित्रकारी के लिए विख्यात है. मंदिर की दीवारों पर सुंदर एवं आकर्षक प्रतिमायें उकेरी गई हैं. जो मंदिर की सुंदरता में चार चांद लगा देती हैं. यह मंदिर उत्तराखण्ड के गौरवशाली इतिहास का प्रमाण है.
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इस मन्दिर की भूरि-भूरि प्रशंसा की. उनका मानना है कि यहाँ पर समस्त हिमालय के देवतागण एकत्र होकर पूजा-अर्चना करते रहे हैं. उन्होंने यहाँ की दीवारों पर उकेरी गई मूर्तियों एवं कला की प्रशंसा की है. इस मन्दिर में सूर्य पद्मासन लगाकर बैठे हुए हैं. सूर्य भगवान की यह मूर्ति एक मीटर से अधिक लम्बी और पौन मीटर चौड़ी भूरे रंग के पत्थर से बनाई गई है. यह मूर्ति बारहवीं शताब्दी की बतायी जाती है. कोणार्क के सूर्य मन्दिर के बाद कटारमल का यह सूर्य मन्दिर दर्शनीय है. कोणार्क के सूर्य मन्दिर के बाहर जो झलक है, वह कटारमल के सूर्य मन्दिर में आंशिक रूप में दिखाई देती है.
इतिहास
कटारमल देव (1080-90 ई०) ने अल्मोड़ा से लगभग 7 मील की दूरी पर बड़ादित्य (महान सूर्य) के मंदिर का निर्माण कराया था. उस गांव को, जिसके निकट यह मंदिर है, अब कटारमल तथा मंदिर को कटारमल मंदिर कहा जाता है. यहां के मंदिर पुंज के मध्य में कत्यूरी शिखर वाले बड़े और भव्य मंदिर का निर्माण राजा कटारमल देव ने कराया था. इस मंदिर में मुख्य प्रतिमा सूर्य की है जो 12वीं शती में निर्मित है. इसके अलावा शिव-पार्वती, लक्ष्मी-नारायण, नृसिंह, कुबेर, महिषासुरमर्दिनी आदि की कई मूर्तियां गर्भगृह में रखी हुई हैं.
मंदिर में सूर्य की औदीच्य प्रतिमा है, जिसमें सूर्य को बूट पहने हुये खड़ा दिखाया गया है. मंदिर की दीवार पर तीन पंक्तियों वाला शिलालेख, जिसे लिपि के आधार पर राहुल सांकृत्यायन ने 10वीं-11वीं शती का माना है, जो अब अस्पष्ट हो गया है. इसमें राहुल जी ने ...मल देव... तो पढ़ा था, सम्भवतः लेख में मंदिर के निर्माण और तिथि के बारे में कुछ सूचनायें रही होंगी, जो अब स्पष्ट नहीं हैं. मन्दिर में प्रमुख मूर्ति बूटधारी आदित्य (सूर्य) की है, जिसकी आराधना शक जाति में विशेष रूप से की जाती है. इस मंदिर में सूर्य की दो मूर्तियों के अलावा विष्णु, शिव, गणेश की प्रतिमायें हैं. मंदिर के द्वार पर एक पुरुष की धातु मूर्ति भी है, राहुल सांकृत्यायन ने यहां की शिला और धातु की मूर्तियों को कत्यूरी काल का बताया है.
कटारमल सूर्य मंदिर
इस सूर्य मंदिर का लोकप्रिय नाम बारादित्य है. पूरब की ओर रुख वाला यह मंदिर कुमाऊं क्षेत्र का सबसे बड़ा और सबसे ऊंचा मंदिर है. माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण कत्यूरी वंश के मध्यकालीन राजा कटारमल ने किया था, जिन्होंने द्वाराहाट से इस हिमालयीय क्षेत्र पर शासन किया. यहां पर विभिन्न समूहों में बसे छोटे-छोटे मंदिरों के 50 समूह हैं. मुख्य मंदिर का निर्माण अलग-अलग समय में हुआ माना जाता है. वास्तुकला की विशेषताओं और खंभों पर लिखे शिलालेखों के आधार पर इस मंदिर का निर्माण 13वीं शदी में हुआ माना जाता है.
इस मंदिर में सूर्य पद्मासन मुद्रा में बैठे हैं, कहा जाता है कि इनके सम्मुख श्रद्धा, प्रेम व भक्तिपूर्वक मांगी गई हर इच्छा पूर्ण होती है. इसलिये श्रद्धालुओं का आवागमन वर्ष भर इस मंदिर में लगा रहता है, भक्तों का मानना है कि इस मंदिर के दर्शन मात्र से ही हृदय में छाया अंधकार स्वतः ही दूर होने लगता है और उनके दुःख, रोग, शोक आदि सब मिट जाते हैं और मनुष्य प्रफुल्लित मन से अपने घर लौटता है. कटारमल गांव के बाहर छत्र शिखर वाला मंदिर बूटधारी सूर्य के भव्य व आकर्षक प्रतिमा के कारण प्रसिद्ध है. यह भव्य मंदिर भारत के प्रसिद्ध कोणार्क के सूर्य मंदिर के पश्चात दूसरा प्रमुख मंदिर भी है. स्थानीय जनश्रुति के अनुसार कत्यूरी राजा कटारमल्ल देव ने इसका निर्माण एक ही रात में करवाया था. यहां सूर्य की बूटधारी तीन प्रतिमाओं के अतिरिक्त विष्णु, शिव और गणेश आदि देवी-देवताओं की अनेक मूर्तियां भी हैं.
ऎसा कहा जाता है कि देवी-देवता यहां भगवान सूर्य की आराधना करते थे, सुप्रसिद्ध साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन भी मानते थे कि समस्त हिमालय के देवतागण यहां एकत्र होकर सूर्य की पूजा-अर्चना करते थे. प्राचीन समय से ही सूर्य के प्रति आस्थावान लोग इस मंदिर में आयोजित होने वाले धार्मिक कार्यों में हमेशा बढ़-चढ़ कर अपनी भागीदारी दर्ज करवाते हैं, क्योंकि सूर्य सभी अंधकारों को दूर करते हैं, इसकी महत्ता के कारण इस क्षेत्र में इस मंदिर को बड़ा आदित्य मंदिर भी कहा जाता है. कलाविद हर्मेन गोयट्ज के अनुसार मंदिर की शैली प्रतिहार वास्तु के अन्तर्गत है।
इस मंदिर की स्थापना के विषय में विद्वान एकमत नहीं हैं, कई इतिहासकारों का मानना है कि समय-समय पर इसका जीर्णोद्धार होता रहा है, लेकिन वास्तुकला की दृष्टि से यह सूर्य मंदिर 21 वीं शती का प्रतीत होता है. वैसे इस मंदिर का निर्माण कत्यूरी साम्राज्य के उत्कर्ष युग में 8वीं - 9वीं शताब्दी में हुआ था, तब इस मंदिर की काफी प्रतिष्ठा थी और बलि-चरु-भोग के लिये मंदिर मेम कई गांवों के निवासी लगे रहते थे.
इस ऎतिहासिक प्राचीन मंदिर को सरकार ने प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्व स्थल घोषित कर राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित कर दिया है. मंदिर में स्थापित अष्टधातु की प्राचीन प्रतिमा को मूर्ति तस्करों ने चुरा लिया था, जो इस समय राष्ट्रीय पुरातत्व संग्रहालय, नई दिल्ली में रखी गई है, साथ ही मंदिर के लकड़ी के सुन्दर दरवाजे भी वहीं पर रखे गये हैं, जो अपनी विशिष्ट काष्ठ कला के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं.
कैसे पहुंचे
कटारमल सूर्य मन्दिर तक पहुँचने के लिए अल्मोड़ा से रानीखेत मोटरमार्ग के रास्ते से जाना होता है. अल्मोड़ा से 14 किमी जाने के बाद 3 किमी पैदल चलना पड़ता है. यह मन्दिर 1554 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है. अल्मोड़ा से कटारमल मंदिर की कुल दूरी 17 किमी के लगभग है.

केदारनाथ : भगवान शिव का पावन धाम


उत्तराखण्ड के चार धामों में से एक प्रमुख धाम केदारनाथ है, जिसका उल्लेख शास्त्रों एवं वेद पुराणों में मिलता है. हिमालय का केदारखण्ड क्षेत्र भगवान विष्णु व भगवान शिव के क्षेत्र के रूप में विख्यात है. शिव व विष्णु एक दूसरे के पूजक एवं पूरक हैं.
केदारनाथ भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है. यह मंदाकिनी नदी के तट पर समुद्रतल से 3584 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. हिन्दू धर्म में केदारनाथ सबसे पवित्र मंदिरों में से एक है.
केदारनाथ एक अत्यंत पवित्र दर्शनीय स्थान है, जो चारों ओर से बर्फ की चादरों से ढ़की पहाड़ियों के केन्द्र में स्थित है. वर्तमान में मौजूद मंदिर 8वीं शती का है, जिसे जगद् गुरु शंकराचार्य ने बनवाया था, जो पाण्डवों द्वारा बनाये गए मंदिर के ठीक बगल में स्थित है. मंदिर के अंदर की दीवारों में कई ऐसी आकृतियां उकेरी गई हैं, जिनमें कई पौराणिक कथाएं छिपी हुई हैं. मंदिर के मुख्य द्वार के आगे भगवान शिव के वाहन नंदी की विशाल मूर्ति उनकी सुरक्षा का जिम्मा लिए हुए है. मंदिर का शिवलिंग प्राकृतिक है एवं मंदिर के पीछे आदि जगद्गुरु शंकराचार्य की समाधि है.
भगवान शिव का यह मंदिर 1000 साल से भी अधिक पुराना है. इसे बड़े भारी पत्थरों को तराशकर तैयार किया गया है. किस तरह इतने बड़े पत्थरों को तैयार किया गया होगा, यह अपने आप में एक अजूबा है. मंदिर में पूजा करने के लिए "गर्भगृह' और मंडप है, जहां पर श्रद्धालुजन पूजा-अर्चना करते हैं. मंदिर के अंदर भगवान शिव को सदाशिव के रूप में पूजा जाता है.
स्थिति
जनपद रुद्रप्रयाग स्थित पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य केदारनाथ धाम 3584 मी. की ऊंचाई पर मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित है. केदारनाथ का भव्य एवं आकर्षक मंदिर विशाल ग्रेनाइट शिलाखण्डों से निर्मित है. यहां कई पवित्र कुण्ड हैं. पंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार इस मंदिर का निर्माण 10-12वीं शती में हुआ. 66 फुट ऊंचे इस मंदिर के बाहर खुले चबूतरे पर नन्दी की एक विशाल मूर्ति है.
स्थापित
8वीं शती
पौराणिक दंतकथा
मंदिर से जुडी़ कथा के अनुसार द्वापर युग में महाभारत युद्ध के उपरांत गोत्र हत्या के पाप से पाण्डव अत्यन्त दु:खी हुए और वेदव्यासजी की आज्ञा से केदारक्षेत्र में भगवान शिव के दर्शनार्थ आए. भगवान शिव कुलनाशी पाण्डवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे. अतएव वे मायामय महिष का रूप धारण कर केदार अंचल में विचरण करने लगे, बुद्धि योग से पाण्डवों ने जाना कि यही शिव हैं, तो वे मायावी महिष रूपधारी भगवान शिव का पीछा करने लगे, महिष रूपी शिव भूमिगत होने लगे तो पाण्डवों ने दौड़कर महिष की पूंछ पकड़ ली और अति आर्तवाणी से भगवान शिव की स्तुति करने लगे. पाण्डवों की स्तुति से प्रसन्न होकर उसी महिष के पृष्ठ भाग के रूप में भगवान शंकर वहां स्थित हुए एवं भूमि में विलीन भगवान शिव के पाण्डवों को दर्शन हुए तथा अन्य चार केदार मदमहेश्वर में शिव की नाभि प्रकट हुई, तुंगनाथ में भुजाएं, रुद्रनाथ में मुख और कल्पेश्वर में जटाएं प्रकट हुईं और ये सब पंच केदार कहलाते हैं.
उसी समय एक आकाशवाणी हुई कि हे पाण्डवों मेरे इसी स्वरूप की पूजा से तुम्हारे मनोरथ पूर्ण होंगे. तदनंतर पाण्डवो! ने इसी स्वरूप की विधिवत पूजा की तथा गोत्र हत्या के पाप से मुक्त हुए और भगवान केदारनाथ का विशाल एवं भव्य मंदिर बनवाया.
पूजा-अर्चना
केदारनाथ मंदिर में पूजा का समय प्रात: एवं सायंकाल है. सुबह की पूजा निर्वाण दर्शन कहलाती है जबकि शिवपिंड को प्राकृतिक रूप से पूजा जाता है. सायंकालीन पूजा को श्रृंगार दर्शन कहते हैं, जब शिव पिण्ड को फूलों एवं आभूषणों से सजाते हैं. यह पूजा मंत्रोच्चारण, घंटीवादन एवं भक्तों की उपस्थिति में ही सम्पन्न की जाती है.
कपाट खुलने का समय
केदारनाथ मंदिर के खुलने के समय सामान्य तौर पर अप्रैल माह के अंतिम सप्ताह में या मई के प्रथम सप्ताह में होता है. केदारनाथ मंदिर श्री बद्रीनाथ के एक दिन पहले ही खुल जाता है.
क्षेत्रफल
3 वर्ग किमी
मौसम
ग्रीष्म काल, सामान्यत: मई से अगस्त. दिन के समय मनोरम तथा रात के समय ठंड.
तापमान
अधिकतम 17.90 सें. तथा न्यूनतम 5.90 सें..
शीतकाल
सितम्बर से नवम्बर. दिन के समय ठंडा तथा रात के समय काफी सर्द. दिसंबर से मार्च हिमाच्छादित.
भाषा
हिन्दी, अंग्रेजी एवं गढ़वाली.
वेश-भूषा
जून से सितम्बर तक हल्के ऊनी वस्त्र. अप्रैल-मई तथा अक्तूबर-नवम्बर भारी ऊनी वस्त्र.
ठहरने की व्यवस्था
श्री बद्रीनाथ, श्री केदारनाथ मंदिर कमेटी यात्रा विश्राम गृह, गढ़वाल मण्डल विकास निगम विश्राम गृह, निजी विश्राम गृह, धर्मशालाएं केदारनाथ में तथा बदरीनाथ-केदारनाथ यात्रा मार्ग पर समस्त प्रमुख स्थानों पर.
कैसे पहुंचे
वायुमार्ग : जौलीग्रांड देहरादून. केदारनाथ से 251 किमी की दूरी पर. चार्टर्ड सर्विस दिल्ली सरसावा अथवा जौलीग्रांड से केदारनाथ तक उपलब्ध है.
रेल मार्ग : ऋषिकेश अंतिम रेलवे स्टेशन, 234 किमी की दूरी पर. कोटद्वार स्थित अंतिम रेलवे स्टेशन 260 किमी.
सड़क मार्ग : दिल्ली से ऋषिकेश 287 किमी रेल द्वारा तथा 238 सड़क मार्ग द्वारा. केदारनाथ जाने के लिए गौरीकुण्ड से 14 किमी की पैदल चढ़ाई चढ़नी पड़ती है. यह मार्ग ऋषिकेश, कोटद्वार, देहरादून, हरिद्वार तथा गढ़वाल एवं कुमाऊं के अन्य महत्वपूर्ण पर्वतीय स्थानों से सड़क मार्ग से जुड़ा है. ऋषिकेश तथा गौरीकुण्ड-बद्रीनाथ जाने तथा वापस आने के लिए प्राइवेट टैक्सियां तथा अन्य हल्के वाहन उपलब्ध रहते हैं. परिवहन व्यय निश्‍िचत नहीं है. केदारनाथ तक यात्रियों को ले जाने तथा वापसी के लिए और सामान ढोने के लिए गौरीकुण्ड से घोड़े, डांडियां आदि उपलब्ध रहती हैं।
प्रस्तुति : रावत शशिमोहन 'पहाड़ी'

Thursday, July 10, 2008

हरकीदून : सुरम्य प्राकृतिक स्थल

- शशिमोहन रावत "पहाड़ी"

मानव प्रकृति प्रेमी होता है. प्रकृति से ही उसे आनन्द की अनुभूति होती है. मानव का प्रकृति से प्रेम भी स्वाभाविक ही है, क्योंकि प्रकृति उसकी सभी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करती है. इसी प्रकृति ने पर्वतराज हिमालय की गोद में अनेक पर्यटन स्थलों का निर्माण किया है. इन्हीं पर्यटन स्थलों में "हरकीदून" एक अत्यंत रमणीय स्थली है.
हरकीदून सीमान्त जनपद उत्तरकाशी का एक पर्यटन स्थल है. जहां प्रतिवर्ष देश-विदेशों से प्रकृति प्रेमी प्रकृति का अनुपम सौंदर्य निहारने के लिए पहुंचते रहते हैं. यह गोविन्दबल्लभ पंत वन्य जीव विहार एवं राष्ट्रीय पार्क के लिए भी प्रसिद्ध है. भोजपत्र, बुरांस व देवदार के सघन वृक्षों के अलावा यहां अमूल्य जीवनदायिनी जड़ी-बूटियां, बुग्याल एवं प्राकृतिक फल-फूल देखे जा सकते हैं.
यहां वृक्षों में सर्वाधकि भोजपत्र (बेटुला यूटलिस) तथा खर्सू (क्वेरकस) के वृक्ष पाये जाते हैं. यहां बड़े-बड़े बुग्याल (चारागाह) हैं. हरकीदून में अनेकों किस्म के फूल भी मिलते हैं. हरकीदून को यदि "द्वितीय फूलों की घाटी" कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी. हरकीदून में अनेकों जड़ी-बूटियां भी मिलती हैं. इस क्षेत्र में जड़ी-बूटी खोदने पर प्रतिबंध है, लेकिन कहा जाता है कि जड़ी-बूटी माफिया यहां चोरी छिपे अपने काम को अंजाम देते रहते है. जून-जुलाई के महीने यहां सर्वाधिक फूल‍िखलते हैं, इस दौरान यहां प्राय: कई विलुप्त होती फूलों की प्रजातियों को देखा जा सकता है. मई-जून व सितम्बर-अक्टूबर में यहां अच्छा मौसम रहता है.
हरकीदून में विभिन्न प्रकार के फूलों की प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें 1 ब्रह्मकमल, 2 फेन कमल, 3 जटामासी, 4 डेन्डलिऑन, 5 अतीस, 6 हिमालयन पॉपी, 7- साइलिम प्रजाति, 8 प्रिमुला प्रजाति आदि.
कैसे जाएं
हरकीदून पहुंचने के लिए देहरादून से मसूरी (36 किमी) कैम्पटी फॉल होते हुए यमुना ब्रिज पहुंचते हैं. यमुना ब्रिज से नैनबाग, डामटा होते हुए नौगांव पहुंचते हैं. नौगांव से दो सड़कें कटती हैं एक बड़कोट व दूसरी पुरोला की ओर मुड़ती है. नौगांव से पुरोला की दूरी महज 20 किमी है. पुरोला एक छोटा-सा एवं सुंदर बाजार है. यह बाजार तीन ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ है. मूसरी से पुरोला की दूरी लगभग 97 किमी है. यहां नैटवाड़ (26 किमी), सांकरी (11 किमी), तालूका गांव (12 किमी) तक का सफर बस या कार से पूरा करने के उपरांत 13 किमी की दूरी ओसला तक व शेष 11 किमी की दूरी पैदल तय करनी पड़ती है.
तालूका का रास्ता जंगलों से होकर गुजरता है. तालूका से सुपिन नदी के किनारे-किनारे सीमा (ओसला) पहुंचते हैं. ओसला गांव उत्तरकाशी सीमा जनपद का आखिरी गांव है. सांकरी, तालूका तथा सीमा में गढ़वाल मण्डल विकास निगम के रेस्ट हाउस बने हुए हैं. इनमें रहने की उचित व्यवस्था है.
ग्लेश्यिर
यहां से स्वर्णारोहिणी पर्वत (6252 मी.) एवं काला नाग चोटी (6387 मी.) के दर्शन किए जा सकते हैं. जनश्रुति है कि पांडव इसी स्वर्णारोहिणी पर्वत से स्वर्ग गए थे.
वेश-भूषा
यहां के लोग साधारणत: सीधे-सादे होते हैं. सामान्यत वह आम कपड़े ही पहनते हैं. चूंकि यहां काफी ठंड होती है, इसलिए यहां के लोगों के पहनने के कपड़े भेड़-बकरियों के ऊन से बनाये जाते हैं. इन कपड़ों में ऊन की "चोल्टी" (कोट) व संतूब (ऊन का पायजामा) प्रमुख है. महिलाएं अक्सर आभूषण पहने हुए रहती हैं.
ब्रह्मकमल
हरकी दून से कुछ ऊंचाई पर लगभग 14,000 फुट की ऊंचाई पर यह फूल मिलते हैं. ब्रह्मकमल की लोग पूजा करते हैं तथा इस फूल को पवित्र माना जाता है. इसके बारे में यहां तक मान्यता है कि इस फूल के घर में होने से किसी जादू-टोने का असर नहीं होता तथा किसी की बूरी नजर भी नहीं लगती. यह फूल पथरीली मिट्टी में उगता है, जबकि कुछ लोगों का मानना है कि यह फूल वहां उगता है जहां गडरिये जंगल में आग जलाते हैं.

Sunday, July 6, 2008

मोनाल

'paharimonal.blogspot.com' में आप सभी भाइयों का स्वागत है.
भाइयों इस ब्लॉग के बारे में भी आपको थोड़ा बताता चलूं कि मैंने अपने ब्लॉग का नाम "पहाड़ीमोनाल" क्यों रखा और यह मोनाल क्या है चीज है। चूंकि मैं पहाड़ (उत्तरांचल) का रहने वाला हूं और यह मोनाल उत्तरांचल का राज्य पक्षी है. इसी प्रयास के साथ थोड़ा जानें मोनाल के बारे में...
मोनाल

जैसा कि सभी जानते हैं कि मोनाल नेपाल का राष्ट्रीय पक्षी एवं उत्तरांचल का राज्य पक्षी है. वैसे मनोल को हिमालय के मयूर नाम से भी प्रसिद्धी मिली है. यह उत्तरांचल ही नहीं अपितु विश्व के सुंदरतम पक्षियों में से एक है. मोनाल लगभग समूचे हिमालय में 2300-5000 मीटर की ऊंचाई पर घने वनों में पाया जाता है. नर का रंग नीला भूरा एवं सिर पर मोर जैसी एक कलगी होती है. मादा भूरे रंग की होती है. यह कंद-मूल, तने, फूल-फलों के बीज तथा कीड़े-मकोड़ों आदि का भोजन करता है. यह पक्षी समुदाय के "न्योआरनीयिस आर्डर वेलीफिर्यिस" उपवर्ग के "फंसीनिड़ी" परिवार का सदस्य है.
इसका वैज्ञानिक नाम - "लोफोफोरस इंपीजेनस" (Lophohporus Impejanus) है.
इसकी मुख्यत: चार प्रजातियां ' इपेलेस, स्केलेटरी, ल्यूरी तथा ल्येफोफोरसएन्स हैं, जो नेपाल व कश्मीर की बर्फीली पहाड़ियों, उत्तर पूर्व उसम की पहाड़ियों व उत्तरांचल राज्य की उच्च बर्फीली पहाड़ियों में पाई जाती हैं.
इसको स्थानीय भाषा में "मन्याल" व "मुन्याल" भी कहा जाता है।
आपका, शशिमोहन रावत "पहाड़ी भाई"

Friday, July 4, 2008

शादी

अभी शादी का पहला साल था
मारे खुशी के मेरा बुरा हाल था,
खुशियां कुछ यूं उमड रही थीं
कि संभाले नहीं संभल रही थीं,
सुबह सुबह मैडम का चाय ले के आना,
थोड़ा शर्माते हुए हमें नींद से जगाना,
वो प्यार भरा हाथ हमारे बालों में फिराना,
मुस्कराते हुए कहना कि...
डार्लिंग चाय तो पी लो,
जल्दी से रेडी हो आपको ऑफिस भी है जाना
घरवाली भगवान का रूप लेकर आई थी,
दिल और दिमाग पर पूरी तरह छाई थी,
सांस भी लेते तो नाम उसी का होता था,
एक पल भी दूर जाना दुशवार होता था

पांच साल बाद...
सुबह सुबह मैडम का चाय लेकर आना,
टेबिल पर रखकर जोर से चिल्लाना,
आज ऑफिस जाओ, तो मुन्ने को स्कूल छोड़ते जाना.
सुनो... एक बार फिर वही आवाज आई,
क्या बात है अभी तक छोड़ी नहीं चारपाई,
अगर मुन्ना लेट हो गया तो देख लेना,
मुन्ने के टीचर को फिर खुद ही संभाल लेना.

न जाने घरवाली कैसा रूप लेके आई थी,
दिल और दिमाग पर काली घटा छाई थी,
सांस भी लेते हैं तो उन्हीं का ख्याल आता है,
अब हर समय जेहन में एक ही सवाल होता है

क्या कभी वो दिन लौट कर आएंगे कि...
हम एक फिर कुवारें हो जाएंगे...

संकलनकर्ता: पहाड़ी भाई

अपने बारे में क्या लिखूं

मै और मेरी तनहाई

मै और मेरी तन्हाई अक्सर ये बातें करते है की वो होती तो कैसा होता, वो होती तो ऐसा होता मै और मेरी तन्हाई कभी कभी की ये लाइन अक्सर मुझे कही अन्दर तक अन्दोलीत करती है वो होती तो कैसा होता वो होती तो ऐसा होता वो इस बात पर हंसती वो इस बात पर इठलाती होती