Monday, December 6, 2010

बहस : पशु बलि


पशु बलि
आम धारणा है कि पशु बलि से देवी-देवता खुश होते हैं। उत्तराखंड में तो भूतप्रेतों के नाम पर भी पशु बलि का प्रचलन है। उत्तराखंड में करीब एक दशक पूर्व मैती आंदोलन को जबरदस्‍त सराहना मिली थी। क्‍या पशु बलि के खिलाफ भी कोई आंदोलन नहीं चलाया जाना चाहिए। यदि चलाया गया तो उसके फिस्‍स होने के क्‍या कारण हो सकते हैं। मित्रों की राय आमंत्रित हैं?

रजनीकांत की नई पेशकश 'हे रामिए' की धमाकेदार लांचिंग

पोलैंड के क्राको शहर में उत्तराखंड की लोक-संस्कृति का परचम फहराने के बाद दून में युवा दिलों की धड़कन सुप्रसिद्ध गढ़वाली गायक रजनीकांत सेमवाल की ऑडियो सीडी 'हे रमिए' का विमोचन हुआ। सीडी में गढ़वाली व जौनसारी गीतों के पॉप व रीमिक्स का ऐसा मिश्रण हैं, जिन पर न चाहते हुए भी पांव थिरकने लगते हैं। सीडी का विमोचन स्वयं गायक रजनीकांत सेमवाल ने किया।

इस अवसर पर रजनीकांत ने कहा, कि आज सबसे बड़ी चुनौती अपनी अमूल्य लोक विरासत को नई पीढ़ी को सौंपना है। यह तभी हो सकता है, जब पुराने और वरिष्ठ लोग नवोदित पीढ़ी की पसंद को समझें। युवा पीढ़ी नई धुनों पर अपने लोकगीत सुनना चाहती है तो इसमें कोई बुराई नहीं है। इसी बहाने लोक संगीत में नव प्रयोग का सिलसिला भी शुरू होगा। सीडी में लोक गीतों के साथ रोमांटिक, डांसिंग व खुदेड़ गीतों का अनूठा संगम है। पहला गीत 'पोस्तु का छुमा' चोपती नृत्य पर आधारित है।

दूसरा गीत 'ऐला चाचा' हिपहॉप स्टाइल में है। इसी स्टाइल ने नई पीढ़ी को सबसे ज्यादा प्रभावित किया। गीत 'हे रमिए' एकल प्रेमव्यथा पर केंद्रित है तो तुमारी याद मा प्रेम के पावन संबंधों को उजागर करता है। 'मूखे मिलदी' व 'नीलू ए' जौनसारी प्रेमगीत हैं, जो उत्तराखंडी संगीत के उजले पक्ष की आशा बंधाते हैं।

प्रस्‍तुति : रावत शशिमोहन पहाड़ी

Friday, October 22, 2010

फिल्म दाएं या बाएं से दीपक की जोरदार एंट्री


29 अक्टूबर को रिलीज होगी फिल्म दाएं या बाएं

जनकवि एवं समाजसेवी स्व। गिरदा ने भी निभाया किरदार
छोटे बजट की सशक्त फिल्म साबित होने का दावा


अगले हफ्ते रिलीज होने वाली कम बजट की फिल्म दाएं या बाएं से कई लोगों की उम्मीदें जगी हैं। बेला नेगी निर्देशित इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई है ओमकारा, 1971, दिल्ली-6, शौर्य, 13बी, गुलाल, मुंबई कटिंग, तनु वेड्स मनु जैसी फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दीपक डोबरियाल ने। फिल्म का निर्माण्ा और लेखन भी किया है बेला नेगी ने। इसमें जाने माने समाजसेवी एवं जनकवि गिरीश तिवारी उर्फ गिरदा ने एक स्कूल प्रधानाचार्य की भूमिका निभाई है।
नईदुनिया से फोन पर बातचीत करते हुए मुख्य किरदार निभा रहे दीपक डोबरियाल और बेला नेगी ने कहा कि फिल्म कम बजट की जरूर है लेकिन इसमें संदेश बहुत सशक्त है। फिल्म में दीपक शहरों में पढ़ा-लिखा एक युवक है। वह पहाड़ के अपने गांव में आकर वहां अध्यापक लगता है। उसकी दिली इच्छा है कई तरह के परिवर्तन की। उसके रास्ते में आने वाली अड़चनों और अंतत: उनसे पार पाने को बहुत ही अच्छे ढंग से फिल्माया गया है। हिंदी भाषा में बनी इस फिल्म के सभी दृश्य पहाड़ी इलाकों की है। फिल्म में वहां के जन-जीवन को और उनसे जुड़ी अन्य बातों को भी बहुत सशक्त तरीके से दिखाया गया है। दीपक और गिरदा के अलावा फिल्म में मानव कौल, बदरुल इस्लाम, भारती भट्ट, प्रत्यूष डोकलन आदि हैं। फिल्म से जुड़े लोगों का कहना है कि यह फिल्म अपने सशक्त पटकथा और पहाड़ों की पृष्ठभूमि को सशक्त माध्यम से उठाने के लिए तो चर्चित रहेगी ही महान आंदोलनकारी एवं कवि गिरीश तिवारी गिरदा, जिनका हाल ही में निधन हुआ था, को भी श्रद्धांजलि होगी।
केवल तिवारी के ब्लॉग केटी की काँव-काँव से

Wednesday, October 6, 2010

भक्तों की मुराद पूरी करते हैं गोलज्यू देवता

अल्मोड़ा स्थित गोलज्यू देवता का मंदिर

  • महेन्द्र कुमार सिंह

उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में न्याय के देवता के रूप में विख्यात गोल्ज्यू के अल्मोडा़ जनपद के चितई (गैराड़) ताडी़खेत और नैनीताल जिले के घोडा़खाल एवं विनायक प्रसिद्ध प्रतिष्ठित दरबार हैं, जहां लाखों श्रद्धालु अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए शरण लेते हैं.
ऐसी मान्यता है कि जिन लोगों को कहीं भी न्याय नहीं मिलता, उनको लोक देवता गोल्ज्यू से न्याय मिलने की पूरी उम्मीद रहती है. यही कारण है कि इनके मंदिर में हजारों की संख्या में लिखित प्रार्थनापत्र सादे कागज और स्टाम्प पेपर में लिखकर दाखिल किए जाते हैं, जिसका वह समय रहते सुनवाई करते हैं और न्याय मिलने पर भक्तगण पीतल का घंटा चंढा़कर अपनी मनोकामना पूरी होने पर उनको धन्यवाद देते हैं.
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार गोल्ज्यू का मूल दरबार उत्तराखंड के चम्पावत में स्थित है. जहां यह लोकदेवता अपने राजांगी स्वरूप में विराजमान हैं. अर्थात् उक्त मंदिर में घात पुकार सुनने का प्रावधान नहीं है. उत्तराखंड में इस लोक देवता गोल्ज्यू, ग्वेल, गोलू और गौरिल आदि के नामों से जाना पूजा जाता है. बटुक भैवर का अवतार माने जाने वाले इनकी पूजा की अपनी अलग खास परम्परा है, जिसमें 'जागर' 'धूनी' में देव किसी शरीर में अवतरित होते हैं. इनके मंदिर में तेल का दीपक चौबीस घंटे जलता रहता है. साथ ही मंगलवार और शनिवार को भक्तों की भीड़ इनके दर्शन के लिए लगी रहती है. ऐसी मान्यता है कि जो भक्तगण न्याय पाने के लिए अपने प्रार्थना पत्र इनके दरबार में दे जाते हैं, उनका वे समय रहते सुनवाई करते हैं और न्याय प्रदान करते हैं. इनका एक मंदिर तराई के किच्छा स्थित मल्ली देवरिया गांव में भी है, जहां दूर-दराज से भक्तगण आते हैं और चितई तथा घोडा़खाल की भांति यहां भी दरबार लगता है.
चितई के गोलू देवता का मंदिर अल्मोड़ा से लगभग 6 किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ रोड पर स्थित है. चितई स्थित इनका मंदिर अष्टकोणीय आकार का बना है. यहां के मंदिर का निर्माण 10वीं शताब्दी के आसपास का बताया जाता है, लेकिन बीसवीं शदी के शुरुआत में इनका जीर्णोद्धार कराया गया था. इस मंदिर को चंद शासकों के समय बनाया गया था. इस मंदिर में कुमाऊं क्षेत्र विशेषकर अल्मोडा़, रानीखेत, बागेश्वर, जागेश्वर, और पिथौरागढ़ के रास्ते अल्मोड़ा आने वाले पर्यटक इस मंदिर के दर्शन का लाभ उठाते हैं.
यहां आने वाले पर्यटक और तीर्थयात्री इसे घंटों वाला मंदिर भी कहते हैं. क्योंकि इस मंदिर में लगे घंटों की संख्या सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों में है. जब यहां टंगे घंटों की संख्या अधिक हो जाती है तो उन्हें गलाकर बड़े आकार का बनवाकर चढ़ाया जाता है जिसका वजन किलो नहीं बल्कि कुंटलों में होता है. वैसे तो संपर्ण उत्तराखंड को ही देवभूमि कहा जाता है, लेकिन इस लोकदेवता की अलग पहचान है.

लेखक दैनिक हिन्‍दुस्‍तान में मुख्य उप संपादक हैं

Thursday, August 12, 2010

बांध : विकास के नाम पर छलावा

उत्ताराखं‍ड में बडे बांधों के खिलाफ वर्षों से चले जनांदोलनों को नीत्-नियंत्ाओं ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। टिहरी जैसे बड़े बांधों के खिलाफ विश्वव्यापी आंदोलन के बावजूद राज्‍य की सभी नदियों में छोटे-बडे पांच सौ से अधिक बांध बन रहे हैं। बिजली बनाने की जिद में सुरंगें खोदकर पहाड को खोखला किया जा रहा है। जिस उत्तराखण्‍ड को देवभूमि माना जाता रहा है वहां अब भगवान भी सुरक्षित नहीं हैं। विस्थापन से लेकर पर्यावरणीय प्रभावों के अलावा भूस्खलन के खत्रों से पूरा हिमालय मौत के मुहाने पर खडा है। इन तमाम प्रभावों का आकलन करती दाताराम चमोली की रिपोर्ट

हाल में देहरादून में इंस्टीटयूट ऑफ इंजीनियर्स की ओर से हाइड्रो पावर डेवलपमेंट एंड एन्वायरमेंट इश्यूज विषय पर आयोजित एक सेमिनार में केंद्रीय ऊर्जा सलाहकार प्रदीप चतुर्वेदी ने कहा कि देश में अभी त्क 34 हजार मेगावाट क्षमता की परियोजनाएं स्थापित की जा चुकी हैं। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में इस क्षमता को एक लाख मेगावाट तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए पर्यावरणीय विवादों को सुलझाना जरूरी है। उत्तराखण्‍ड के पेयजल मंत्री प्रकाश पंत ने पर्यावरण विवादों से निपटने का सुझाव दिया कि छोटी परियोजनाएं बननी चाहिए, जबकि टिहरी जल विकास निगम (टीएचडीसी) के सीएमडी आरएसटी सांई ने जोर दिया कि पुनर्वास, पर्यावरण जैसे सवालों के चलते परियोजनाएं स्थगित करने के बजाय उन्हें सुलझाया जाना चाहिए। वहीं राज्‍य विद्युत नियामक आयोग के चेयरमैन वीजे तलवाड़ ने भी ऊर्जा जरूरतों को देखते हुए विद्युत उत्पादन पर बल दिया।


सेमिनार का निचोड़ यही है कि बांध निर्माण से विस्थापन और पर्यावरण जैसी कितनी ही बड़ी समस्यायें क्‍यों न पैदा हो जायें, लोग अपने इतिहास, संस्कृति और उपजाऊ कृषि भूमि को बचाने के लिए भले ही कितने बडे़ आंदोलन क्‍यों न खडा़ कर दें, ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए बांधों का निर्माण नहीं रोका जा सकता है। नीति-नियंता जगह-जगह पर बांध निर्माण के लिए आमादा हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि आजादी के बाद देशभर में बने 5100 बांधों से साढे़ पांच करोड़ लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पडा़। करीब 44 लाख हेटेयर जमीन 4528 बांधों की झीलों में समा गयी। विस्थापितों में लगभग आधी आबादी गरीबों और आदिवासियों की है, लेकिन अरबों रुपये की लागत से निर्मित बिजली परियोजनाएं अपने निर्धारित लक्ष्य के अनुसार बिजली पैदा नहीं कर सकीं।



'टिहरी बांध की आयु सौ वर्ष
बतायी गयी है। प्रो. खड़ग सिंह
बल्दिया ने इसकी आयु तीस वर्ष
बतायी है, लेकिन मेरे विचार से
यह सिर्फ 15 वर्षों तक ही रहेगा।'
- सुंदरलाल बहुगुणा


देश में बने एशिया के सबसे बडे़ टिहरी बांध को ही ले लीजिये। वर्ष 1965 में बांध निर्माण की घोषणा के साथ ही स्थानीय लोगों ने इसके खिलाफ लामबंदी शुरू कर दी थी। चार दशक तक लोग इसके खिलाफ लड़ते रहे। देश और दुनिया के जाने-माने पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों ने भी इसे पर्यावरण की दृष्टि से बहुत बडा़ खतरा बताया। वर्ष 1991 को उत्तरकाशी और वर्ष 1999 में चमोली में आये भयंकर भूकंपों के बाद भी सवाल उठे कि क्‍यों राष्ट्रहित में इस परियोजना को बनाया जाना जरूरी है? जनता बांध निर्माण को लेकर लड़ती रही, अपनी संस्कृति और उपजाऊ जमीन की रक्षा के लिए मरती रही। वर्षों तक निरंतर आंदोलन चलाने से लेकर न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का सिलसिला चलता रहा। अंत तक लोग लड़ते रहे, लेकिन विकास की दुहाई देकर 190 वर्ष पुराने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर को डुबो दिया गया।



बयालीस वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल, लगभग साठ किलोमीटर लंबी एवं 160 किलोमीटर परिधि वाली विशालकाय कृत्रिम झील में टिहरी शहर सहित 125 गांव पूर्ण रूप से तथा 88 गांव आंशिक रूप से समा गये। भागीरथी और भिलंगना घाटी की लगभग सवा लाख आबादी को अपनी पैतृक जगहों से विस्थापित होना पडा़। कई हजार एकड़ जमीन, हरी भरी घाटियां और जल स्रोत जल में समा गये। इस सबके बावजूद टिहरी उजडे़ हुए लोगों की दास्तां बनकर रह गया। विस्थापित और प्रभावित परिवारों को न तो उनकी अपेक्षानुसार रोजगार मिला और न ही उनका उचित पुनर्वास ही हो पाया।


वर्ष 1996 में केंद्र ने पर्यावरण और पुनर्वास के पहलुओं पर हनुमंत राव कमेटी गठित की थी। कमेटी ने वर्ष 1997 में अपनी रिपोर्ट पेश की। केंद्र ने इसकी कुछ ही सिफारिशें लागू कीं। नतीजा यह हुआ कि लोगों को अपने पुनर्वास के लिए वर्षों सरकारी दफ्तरों के चक्‍कर काटने पडे़ और सडकों पर भी आंदोलन चलाना पडा़। विस्थापित परिवारों को देहरादून में कई जगहों पर पथरीली जमीन दी गयी। पुरानी टिहरी में जिन लोगों के पास घर, आंगन और पुश्तैनी मकान थे वे आज नई टिहरी में छोटे-छोटे बंद फ्लैटों में रह रहे हैं। यहां उन्हें पीने के पानी और बिजली की किल्लत झेलनी पड़ रही है। और तो और शवों के अंतिम संस्कार के लिए करीब 30-40 किलोमीटर दूर लाना पड़ता है। अब वे महसूस कर रहे हैं कि विकास और रोजगार के नाम पर उनके साथ बहुत बडा़ धोखा हुआ है। इसके बावजूद यह परियोजना अपने लक्ष्य 2400 मेगावाट के मुकाबले महज 700 मेगावाट बिजली ही पैदा कर पा रही है।


खास बात यह है कि टिहरी बांध के खिलाफ जब कभी भी जनता ने आंदोलन तेज किया तो बांध निर्माण की पक्षधर सरकारी लॉबी ने बडी़ चालाकी से यह बात फैलायी कि अब करोड़ों रुपये खर्च होने के बाद निर्माण कार्य नहीं रोका जा सकता। बांध का विरोध करने वालों को शुरू से ही आंदोलन करना चाहिए था, जबकि हकीकत यह है कि टिहरी में बांध निर्माण की घोषणा के साथ ही लोगों ने इसके विरोध में आवाज बुलंद कर दी थी। यही चालाकी अब दूसरी जगहों पर भी अपनायी जा रही है।


श्रीनगर गढ़वाल में अलकनंदा पर बन रही 330 मेगावाट की श्रीनगर जल विद्युत परियोजना के बारे में शुरू में जनता को बताया गया था कि यह एक माइक्रोहाइडल परियोजना है। अंदरखाने जनता में यह भी प्रचार किया गया था कि इससे स्थानीय युवाओं को बडी़ संख्‍या में रोजगार मिलेगा और लोगों को सिंचाई की सुविधा एवं बिजली भी मिलेगी। लेकिन आज इस परियोजना ने इतना बड़ा आकार ले लिया है कि अलकनंदा नदी के किनारे बीस मीटर ऊंची चट्टान पर स्थित प्राचीन धरी देवी मंदिर अब डूब क्षेत्र में है। टिहरी गढ़वाल में भी यही हुआ। यहां पहले 11 मेगावाट की फलेण्डा परियोजना का श्रीगणेश हुआ, लेकिन बाद में इसे बाईस मेगावाट का कर दिया गया। जनता ने अपने जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए प्रचण्ड आंदोलन चलाया। फलेण्डा को भी छोटी परियोजना के रूप में प्रचारित किया गया।
अब जबकि राज्‍य के लोग समझने लगे हैं कि केंद्रीय जल आयोग, बडे़ बांधों के आयोग और विश्व बांध आयोग जैसी संस्थाओं की मान्य परिभाषाओं के अनुसार पांच से 15 मीटर ऊंचे बांध जिनकी भंडारण क्षमता तीस लाख घनमीटर हो, बडे बांधों की श्रेणी में आते हैं तो नीति-नियंता रन ऑफ दि रीवर का नया शिगूफा लेकर आये हैं। अलकनंदा और उसकी सहायक नदियों पर जब लोग बांधों के खिलाफ आंदोलन चलाने लगे तो वर्ष 2006 में उत्तराखण्‍ड के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री भुवन चंद्र खण्डूडी़ ने रन ऑफ द रीवर परियोजनाओं को बढावा देने का राग अलाप दिया। राज्‍य के तत्‍कालीन पर्यटन और संसदीय कार्यमंत्री ने भी बयान दिया कि भविष्य में गंगा को सुरंगों में डालने से परहेज रहेगा और बडे़ बांधों से उनका भी विरोध है। पूर्व मुख्‍यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने भी इसी त्रह के वायदे किये थे, लेकिन रन ऑफ दि रीवर परियोजनाओं की असलियत यह है कि सरकार निर्माण कंपनियों से समझौते कर मनमाने ढंग से बांध निर्माण को बढा़वा देती रही है।


राज्‍य में लगभग सभी नदी-नालों को सुरंगों में डाला जा रहा है। अनुमान के मुताबिक विद्युत परियोजनाओं के लिए 1500 किलोमीटर लंबी सुरंगें बनायी जायेंगी। इन सुरंगों के ऊपर वर्षों से बसे सैकड़ों गांवों का भगवान ही मालिक है। टिहरी जल विद्युत निगम से राज्‍य सरकार ने टौंस नदी पर 236 मीटर ऊंचा बांध बनाने का समझौता किया। जनता के भारी विरोध के बावजूद काली नदी पर 280 मीटर का पंचेश्वर बांध प्रस्तावित कर दिया गया। इससे डेढ़ लाख लोगों के विस्थापन की आशंका है। भागीरथी और अलकनंदा पर प्रस्तावित जिन कोटली-भेल परियोजनाओं को रन ऑफ दि रीवर की संज्ञा दी जा रही है, वे भी क्रमश: 17 किलोमीटर, 29 किलोमीटर और 32 किलोमीटर लंबे जलाशयों का निर्माण करेंगी। लगभग 2800 हेटेयर भूमि इन परियोजनाओं की भेंट चढे़गी और इससे हजारों लोग प्रभावित होंगे।
साफ है कि रन ऑफ दि रीवर के बहाने भी जनता को गुमराह किया जा रहा है। उत्तराखण्ड हिमालय में बांध बनते रहेंगे, पर्यावरण नष्ट होगा और लोग अपनी पैतृक जगहों से उजड़ने को मजबूर होते रहेंगे। वे चिल्लाते रहेंगे, लेकिन सरकारी सुनवाई सिर्फ खानापूर्ति तक सीमित रहेगी। हिमालय में बडे़ बांधों के खिलाफ मुखर माटू जन संगठन ने अपने तथ्‍यान्वेषण में पाया है कि नदी-घाटियों में पर्यावरणीय जन सुनवाइयों में भयंकर कानूनी, प्रशासनिक और प्रक्रियागत समस्याएं रही हैं। किसी भी जन सुनवाई में सच्चाई सामने नहीं रखी गयी। लोगों के मांगने पर भी उन्हें कागजात हिंदी में नहीं मिले।
राज्‍य निर्माण के बाद भागीरथी घाटी में लोहारीनाग-पाला, पाला-मनेरी आदि एवं अलकनंदा घाटी में लाता-तपोवन, तपोवन विष्णुगाड़, विष्णुगाड़-पीपलकोटी, कोटली भेल-अ, ब और कोटली भेल-दो आदि जल विद्युत परियोजनाओं में लोगों के कानूनी हकों को दरकिनार करके जनसुनवाई के नाम पर महज औपचारिकता की गयी। लोगों को पता ही नहीं था कि पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट एवं प्रबंध योजना (ईआईए) जैसे कोई कागजात होते हैं, इनमें जन-जीवन, जंगल-धूल, वायु प्रदूषण, जीव-जंतुओं, नदी-घाटी आदि पर परियोजना के प्रभावों का अध्ययन शामिल होता है। पुनर्वास सहित प्रभावों के प्रबंधन पर प्रस्तावित खर्च का ब्‍यौरा भी होता है। जनता से यह सब छिपाया गया। राज्‍य के प्रदूषण नियंत्रण एवं संरक्षण बोर्ड की भूमिका इस संदर्भ में हमेशा संदेह की रही है।
दुर्भाग्य ही है कि जहां एक ओर भारी जन विरोध को दरकिनार कर नदी-घाटियों को तबाह किया जा रहा है, वहीं जनोपयोगी परियोजनाओं के निर्माण की दिशा में लापरवाही दिखायी जाती रही है। आज बडे़ बांधों के निर्माण में इस्तेमाल हो रहे अंधाधुंध विस्फोटकों से नदी घाटियां बुरी तरह हिल चुकी हैं। गढ़वाल के सीमांत चमोली जिले के चांई, सेलंग, हेलंग आदि गांवों से लेकर कुमाऊं मंडल के सीमांत पिथौरागढ़ जिले के तवाघाट और कपकोट तक हर जगह लोग इन बांधों के चलते दहशत की जिंदगी जी रहे हैं। चमोली जिले का चांई गांव उजड़ चुका है। विस्फोटकों से दहले इस गांव के लोगों को अपने घरों को छोडकर गुफाओं की शरण लेनी पडी़। जिले के चालीस अन्य गांवों पर भी खतरा मंडरा रहा है। विकास की एक परिभाषा चांई गांव है और दूसरा जमरानी बांध। जनता करीब साढे़ तीन दशक से इस बांध निर्माण की आस लगाये बैठी है।
पंद्रह मेगावाट बिजली उत्पादन के साथ ही इससे उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश की डेढ़ लाख हेटेयर भूमि सिंचित हो सकती थी। हजारों लोगों को पीने का पानी मिलता, लेकिन विकास की दुहाई देकर पहाड़ों को खुर्द-बुर्द करती आ रही सरकारों को इस तरह की योजनाओं में कोई दिलचस्पी नहीं रही।
लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं और टिहरी बांध विरोधी आंदोलन से जुड़े रहे हैं

Wednesday, July 21, 2010

तपोभूमि में उपेक्षित तीर्थाटन

दाताराम चमोली

उत्तराखण्ड का प्राचीन परंपरागत तीर्थाटन राज् कीर्थव्यवस्था को सुदृढ करने के साथ ही स्वरोजगार का बेहतर जरिया साबित होता, लेकिन अपनी जडों से कट चुके राजनेताओं में इसे पुनर्जीवित करने की इच्छाशक्ति नहीं रही।

उत्तराखण्ड में तीर्थाटन की परंपरा काफी प्राचीन है। सदियों से श्रद्धालु यहां के तीर्थ स्थलों की यात्रा करते रहे हैं। आदि जगदगुरु शंकराचार्य ने सातवीं सदी में केदारनाथ की यात्रा की। बदरीनाथ में बौद्धों के प्रभाव को समाप्त कर उन्होंने नारद कुंड में फेंकी गयी विष्णु प्रतिमा को पुन: मंदिर में स्थापित कर वहां पूजा-अर्चना शुरू करवाई। पूर्णागिरी के महात्‍म्‍य को समझते हुए उन्होंने उत्तर भारत की आराध्य देवी के रूप में इसकी पूजा की। कुमाऊं के तीर्थ स्थलों का भ्रमण करने के बाद स्वामी विवेकानंद को इस बात का मलाल रहा कि शरीर कमजोर होने के कारण वे केदारनाथ की यात्रा नहीं कर सके। गंगोत्री, यमुनोत्री में दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है। जागेश्‍वर का महामृत्युंजय मंदिर श्रद्धा का प्रमुख केंद्र है। कटारमल के सूर्य मंदिर का महात्‍म्‍य कोणार्क से कम नहीं। देवप्रयाग में भगवान राम की विश्‍व में सबसे ऊंची प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। सचमुच तीर्थस्‍थल और परंपरागत तीर्थयात्राएं उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था के लिए वरदान साबित हो सकती हैं। लेकिन पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने तीर्थाटन विकास पर ध्यान नहीं दिया और राज्‍य गठन के नौ साल बीत जाने के बावजूद उत्तराखण्ड की सरकारें भी इस दिशा में बेहद उदासीन
रही हैं।
तीर्थ स्थलों पर श्रद्धालुओं को लगातार अव्यवस्थाओं का सामना करना पडता है। सुरक्षा की स्थित यह है कि पहली निर्वाचित सरकार के शपथ ग्रहण करने के साथ ही पूर्णागिरी मेले में एक ग्रामीण लड़की से पुलिसकर्मियों द्वारा बलात्कार किये जाने का मामला सुर्खियों में छाया रहा। इसके बाद हरिद्वार में वर्ष 2004 में संपन्न अर्द्धकुभ मेले में महिलाओं से छेड़छाड़ का मामला काफी दिनों तक जनाक्रोश का कारण बना रहा। लोग हैरान हुए कि तीर्थस्‍थलों पर इस प्रकार की शर्मनाक वारदातें अंग्रेजों और उत्तर प्रदेश के शासन में भी घटित नहीं हुई थीं। इससे श्रद्धालुओं के दिलों में असुरक्षा का भाव पैदा हुआ है।
संरक्षण के अभाव में उत्तराखण्‍ड के कई मंदिर जर्जर हो चुके हैं। देव मंदिरों से मूर्ति चोरी की घटनाएं आम हैं। आजादी के बाद और राज्‍य बनने के कुछ समय पहले तक मंदिरों से महत्वपूर्ण मूर्तियां और दस्‍तावेज चोरी होने का सिलसिला राज्‍य बनने के नौ साल बाद भी थमा नहीं। बदरी-केदार धाम जहां कि व्यवस्था पूरी तरह सरकार के हाथ में है, वहां भी अव्यवस्थाओं का साया है। कुछ साल पहले नंदकिशोर नौटियाल के बदरी-केदार मंदिर समित के अध्यक्ष रहते हुए हुए केदारनाथ धाम में छत्र चोरी होने का मामला सुर्खियों में रहा तो अनुसूया प्रसाद मैखुरी के अध्यक्षीय काल में बदरीनाथ मंदिर के गर्भगृह की सीडी बनने का मामला सामने आया। जबकि मंदिर के प्रवेशद्वार पर स्पष्ट लिखा हुआ है कि मंदिर की फोटो लेनी वर्जित है। इसी तरह विनोद नौटियाल के समय में भी तत्‍लीन रावल पी. विष्णु नबूदरी ने मंदिर में निन किस्म की पूजा सामग्री और चावल सप्लाई किये जाने के खिलाफ जोर-शोर से आवाज उठाई थी।
मंदिर के पदाधिकारियों पर अपने-अपने परिजनों, रिश्तेदारों और चहेतों को नौकरियों और ठेके दिलवाने को लेकर भी उंगुलियां उठती रही हैं। उत्तराखण्ड के कई जिलों में स्थित मंदिर समिति की करोडों की संपत्तियों पर अवैधा कजे हैं, लेकिन समिति इन्हें हटवा नहीं पायी है। नंदकिशोर नौटियाल के अध्यक्षीय काल में मंदिर समिति के तत्‍कालीन मुख्‍य कार्याधिकारी (सीईओ) इंद्रजीत मल्होत्रा ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें राजनीती का शिकार होना पडा। अत: वे वे इस्तीफा देने को मजबूर हुए। तीर्थ स्थलों पर अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का सिलसिला थमने की संभावनाएं नहीं हैं। राज्‍य की सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं में न तो तीर्थाटन विकास की कोई सोच है और न ही दृढ़ इच्छाशक्ति। कुछ माह पूर्व ऋषिकेश में एक अंतरराष्ट्रीय योग सप्ताह का आयोजन किया गया था। इसमें देश-विदेश के सैकडों लोगों ने भाग लिया, लेकिन आयोजन का जिमा गढ़वाल मंडल विकास निगम के बजाए एक निजी धार्मिक संस्था परमार्थ निकेतन को दे दिया गया। संस्था ने इससे लाखों कमाये, लेकिन गढ़वाल मंडल विकास निगम, स्थानीय व्यवसायी एवं बेरोजगार युवा हाथ मलते रह गये। इसके बावजूद तत्‍कालीन पर्यटन एवं तीर्थाटन मंत्री प्रकाश पंत को यह कहने में जरा भी संकोच नहीं हुआ कि गढ़वाल मंडल विकास निगम इतने बड़े कार्यक्रम को करवाने में सक्षम नहीं था।
नेताओं की इसी सोच और समझ का नतीजा है कि आज उत्तराखण्ड का परंपरागत प्राचीन तीर्थाटन अपनी जड़ों की ओर नहीं लौट पा रहा है। कभी उत्तराखण्ड के तीर्थों में आने वाले श्रद्धालुओं के ठहरने और भोजन की व्यवस्था स्थानीय लोग करते थे। जगह-जगह पर लगने वाली चट्टियों, छोटी-छोटी दुकानों और देव मंदिरों से स्थानीय युवाओं को आय होती थी। बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं की जेब पर भी बोझ नहीं पडता था। पैदल यात्रा कर जहां वे उत्तराखण्ड की धार्मिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक धरोहरों से परिचित होते थे, वहीं प्राकृतिक सौंदर्य का भरपूर आनंद भी लेते थे, लेकिन आज इसके एकदम उलट स्थितियां हैं। पैदल यात्रा मार्ग नष्ट हो चुके हैं। चट्टियों और छोटी-छोटी दुकानों की जगह आलीशान होटलों और होटलनुमा बड़ी-बड़ी धर्मशालाओं ने ले ली है। तीर्थस्थलों पर धन्नासेठों और हाइटेक बाबाओं की धर्मशालाओं में व्यावसायिकता की अंधी होड़ के चलते पहाड़ के पर्यावरण पर भी बुरा असर पड़ रहा है। होटल तो क्‍या धर्मशालाओं में भी श्रद्धालुओं से ठहरने का मनमाना पैसा वसूला जा रहा है।
तर्क दिया जा सकता है कि भागदौड़ और व्‍यस्‍तता की आज की जिंदगी में भला प्राचीन तीर्थाटन को कैसे जीवित किया जा सकता है, लेकिन यह भी सच है कि हेमकुण्ड साहिब और केदारनाथ तक सड़क पहुंचाने की जिद पहाड़ ही नहीं, बल्कि पूरे देश और दुनिया के लिए घातक साबित होगी। उत्तराखण्ड के निवासी शुरू से ही काफी सुलझे हुए रहे हैं। ग्लेशियरों को मानवीय आबादी के दबाव से बचाने के लिए लोगों ने शीत्काल में छह माह के लिए बदरी, केदार, गंगोत्री, यमुनोत्री धाम को बंद करने की परंपरागत व्यवस्था शुरू की थी जो आज तक जारी है। डर है कि राजनेताओं की कुंठित सोच कहीं इसे खंडित न कर दे। पूर्व कांग्रेस सरकार के शासन में तत्‍कलीन पर्यटन मंत्री टीपीएस रावत ने कहा भी था कि बदरी-केदार में साल भर तक यात्रा जारी रखने के लिए वहां स्नोकटर का उपयोग किया जाएगा। शुक्र है कि उनकी यह सोच व्यावहारिक धरातल पर नहीं उतरी। जिस बदरी-केदार, गंगोत्री-यमुनोत्री को हमारे कर्मधार आय का जरिया बनाने की सोचते हैं, उन्हें विकसित करने और लाइमलाइट (प्रकाश) में लाने का श्रेय पहाड़वासियों, खासकर देवप्रयाग और ऊखीमठ के उन लोगों का है जिन्होंने वर्षों से भारत भर में घूम-घूमकर तीर्थयात्रियों को इन तीर्थ स्थलों के महात्‍म्‍य से अवगत कराया। प्रचार-प्रसार के सरकारी प्रयास सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहे हैं।
तीर्थाटन की परंपरागत जडों की ओर अभी भी लौटा जा सकता है। माना कि आज के समय में लोग वाहनों और हैलीकॉप्टरों से केदारनाथ पहुंचना चाहें, सड़कों पर पांच सितारा होटलों की सुविधाएं चाहें, लेकिन सवाल यह है कि ऐसे लोगों की संख्‍या कितनी है? अधिकांश तीर्थयात्री आज भी पवित्र भावना से तीर्थ स्थलों के दर्शन करने आते हैं। सरकार चाहे तो पैदल यात्रा मार्गों का जीर्णोद्धार कर उन पर फिर से यात्रा शुरू करवा सकती है। वे लोग जो साहसिक पर्यटन और पहाड़ की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लेना चाहते हैं, जिन्हें उत्तराखण्ड की धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक महत्व की जानकारी चाहिए, निश्चित ही इन पैदल मार्गों को पसंद करेंगे। गरीब श्रद्धालु भी इन मार्गों पर चलने लगेंगे। इससे चट्टादि और पूजादि को फिर से बढ़ावा मिलेगा और तीर्थाटन की सदियों पुरानी परंपरा पुनर्जीवित हो उठेगी। बाहर से आने वाले तीर्थयात्री महसूस कर सकेंगे कि उत्तराखण्ड सचमुच देवभूमि है। देश के लोगों में भावनात्मक लगाव और सांस्कृत्कि आदान-प्रदान को बढावा मिलेगा।
यात्रा मार्गों को दुरुस्त करने के साथ ही उत्तराखण्ड से कैलाश मानसरोवर जाने वाले मार्गों को फिर से खोलने की पहल की जानी चाहिए। अभी तक राज्‍य में सीमांत पिथौरागढ़ जिले से ही यह यात्रा संपन्न हो रही है। कहा जाता है कि कभी बदरीनाथ से भी काफी यात्री कैलाश मानसरोवर जाते थे। शासन-प्रशासन से जुडे बड़े अधिकारी और रजनेता जितनी दिलचस्पी ऊंची राजनीतिक पकड़ रखने वाले हाइटेक बाबाओं को प्रश्रय देने और उनकी जी हुजूरी करने में दिखाते हैं, उतनी दिलचस्पी तीर्थस्थलों की व्यवस्था दुरुस्त करने में दिखाएं तो निश्चित ही स्थिति काफी हद तक सुधर जायेगी। नेताओं और अधिकारियों में इच्छा शक्ति हो तो धन्‍नसेठों के होटलों और बाबाओं की व्यावसायिक धर्मशालाओं पर अंकुश लगाकर तीर्थयात्रियों को ठहरने की सस्ती व्यवस्था मुहैया कराई जा सकती है।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)

Monday, April 12, 2010

इस महाकुंभ का संकल्प

दाताराम चमोली
कुंभ एक संस्कृति है। एक ऐसी महान संस्कृति है जिसके मूल में आत्मशुद्धि का विचार समाहित है। इसी विचार मंथन से राजनितिक और सामाजिक चेतना के नये-नये स्रोत फूटते हैं। पौराणिक काल में देवताओं और दानवों के बीच चली वर्चस्व की लंबी लडाई के फलस्वरूप तत्कालीन समाज तमाम समस्याओं से जूझने लगा। हर जगह लोग त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगे। जनता को इस भयावह स्थिति से उबारने के लिए अंततः देवताओं ने दानवों से संधि कर उन्हें समुद्र मंथन यानी विचार मंथन के लिए राजी किया। समुद्र मंथन से चौदह रत्न निकले जिन्हें देवताओं और दानवों ने अपनी पसंद के अनुसार आपस में बांट लिया। चौदहवें और अंतिम रत्न अमृत के लिए छीना-झपटी मच गयी। इसी छीना-झपटी में अमृत कलश छलक पडा। मान्यता है कि अमृत कलश से छलककर जहां-जहां भी अमृत की बूंदें गिरीं, उन्हीं जगहों पर तभी से कुंभ के आयोजन की परंपरा चली आ रही है।
देश में प्रयाग (इलाहाबाद), हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में कुंभ मेले आयोजित किये जाते हैं। वर्षों से आयोजित हो रहे इन मेलों पर हर बार लाखों-करोडों रुपये खर्च होते हैं। देश के बडे-बडे नेता, धर्माचार्य, समाजसेवी अपने-अपने ध्वजों, वातानुकूलित् वाहनों तथा हाथी-घोडों की सवारियों के साथ बडी शान से कुंभ में पहुंचते हैं। अपने को एक-दूसरे से बडा समझने के हठ में या पहले स्नान करने की होड में साधु-संतों के बीच खूनी संघर्ष भी हो जाते हैं। नेताओं से लेकर साधु-संतों तक सभी को अपनी छवि चमकाने की लगी रहती है, लेकिन जनहित के मसलों पर सोचने की दिशा में कहीं से भी कोई पहल नहीं होती। यहां तक कि कोई इस दिशा में भी नहीं सोचना चाहता है कि कुंभ के विकास कार्यों के नाम पर कभी गोदावरी, कभी क्षिप्रा तो कभी गंगा में करोडों रुपये बहा दिये जाते हैं। यह बात समझ से परे है कि कुंभ में हर बार विकास कार्य क्यों करवाने पडते हैं। ऐसे स्थायी निर्माण और विकास कार्य क्यों नहीं करवाये जा सकते हैं जिनका जनता को कुंभ की समाप्ति के बाद भी लाभ मिल सके।
सरकारी मशीनरी पर कुंभ मेलों में धन के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं। जनता चिल्लाती रहती है और नेताओं तथा भ्रष्ट नौकरशाहों का गठजोड सब कुछ सुनते हुए भी बेफिक्र होकर मनमानी करता रहता है। नतीजा यह है कि कुंभ के रूप में वर्षो से चली आ रही संस्कृति का लाभ जनता को नहीं मिल पाता।
इस बार हरिद्वार में सदी का पहला महाकुंभ होने जा रहा है। आगामी कुछ दिनों से स्नान का सिलसिला शुरू हो जायेगा। शासन-प्रशासन बडी मुस्तैदी से मेले की तैयारियों में जुटा हुआ है। यूं समझिये कि तैयारियां लगभग पूरी हो चुकी हैं। राज्य के मुयमंत्री डॉ रमेश पोखरियाल निशंक ने प्रमुख सचिव सुभाष कुमार और अपर सचिव निधिमणि त्रिपाठी को खासतौर पर कुंभ पर नजर रखने की जिमेदारी सौंपी है। चारों तरफ कुम्भ मेले की चहल-पहल है। हिमालय की चिंता को लेकर जिस प्रकार नेपाल सरकार के प्रधानमंत्री और मंत्री एवरेस्ट के बेस कैंप में जुटे ठीक उसी तर्ज पर उत्तराखंड सरकार के कर्णधार भी गंगा के किनारे अपनी कैबिनेट बैठक करने की तैयारी में हैं। इसके माध्यम से लोगों को गंगा को स्वच्छ और निर्मल रखने का संदेश दिया जायेगा।
अच्छी बात है कि कुंभ से पहले उत्तराखंड के कर्णधारों को गंगा को स्वच्छ और निर्मल रखने का अहसास हुआ, लेकिन उनका यह प्रयास तभी सार्थक साबित हो सकेगा, जब इसके लिए ठोस धरातल पर काम किया जायेगा। विडंबना ही है कि जो राजनेता और साधु-संत गंगा को बचाने की बडी-बडी बातें कर रहे हैं या करते रहे हैं, वहीं गंगा को प्रदूषित करने में पीछे नहीं हैं। राज्य के एक बडे मंत्री और उनके चेलों पर हरिद्वार में जमीनों पर अवैध कब्ज़ा करने के आरोप लगते रहे हैं। अवैध कब्जों की वजह से कुंभ की धरती सिकुडती जा रही है। साधु-संत भी इसमें पीछे नहीं हैं। हरिद्वार और ऋषिकेश में धर्मशालाओं और आश्रमों का धडल्ले से व्यावसायिक इस्तेमाल हो रहा है। कुछ साधु-संतों के आश्रमों की गंदगी सीधे गंगा में समा रही है। ये वही साधु-संत हैं जो बडे दमखम से गंगा को बचाने का संकल्प लेते हैं।
उत्तराखंड की कैबिनेट बैठक हरिद्वार में हो या फिर हिमालय में यह कैबिनेट और मुख्यमंत्री का अपना फैसला है, इसमें कोई आम आदमी भला क्या कर सकता है, लेकिन इतना अवश्य है कि जनता को गंगा की स्वच्छता का संदेश देने को आतुर कैबिनेट को इस बात का अहसास हो जाना चाहिए कि गंगा आज गौमुख से ही मैली हो चुकी है। गौमुख और बदरीनाथ से ही इसमें तमाम शहरों की गंदगी समा रही है। हाल के वर्षों में हुए शोधों के मुताबिक ऋषिकेश और हरिद्वार में भी इसके पानी में हानिकारक ई कोलीफार्म की काफी मात्रा पायी गयी है। जिस गंगा को बचाने की मुहिम हरिद्वार में शुरू की जाती है, उसकी तमाम धाराएं जल विद्युत परियोजनाओं ने लील ली हैं। ग्लेशियर खतरे में हैं। बडी जल विद्युत परियोजनाओं ने जगह-जगह बडी बेतरतीबी से हिमालय का सीना चीर डाला है। अपने अस्तित्व के लिए जूझता हिमालय आंसू बहा रहा है। वह चिंतित है कि सदियों से उसकी रक्षा करते रहे पहाडवासियों को विशालकाय बांध परियोजनाओं ने अपनी जडों से उजडने के लिए विवश कर दिया है। उनके विकास और आजीविका के लिए कोई ऐसी नीति नहीं बन पा रही है ताकि वे हिमालय में ही ठहरे रहें। पलायन के चलते उनकी बस्तियां वीरान हो चुकी हैं। राज्य के नीति-नियंताओं को यह बात समझ में नहीं आती है कि यदि हिमालय पर बसावट ही नहीं रहेगी तो इसकी रक्षा कौन करेगा? जब हिमालय ही नहीं रहेगा तो फिर गंगा कहां से बचेगी? इसलिए गंगा को बचाने की कोई भी बात वास्तविक धरातल पर ही होनी चाहिए। हवाई नारों और गंगा किनारे कैबिनेट की बैठक कर देने भर से गंगा नहीं बच पायेगी। राज्य के राजनेताओं में जरा भी राजनीतिक इच्छाशक्ति है तो इस महाकुंभ में स्नान कर संकल्प लें कि भविष्य में राज्य में जो भी विकास योजनायें बनेंगी वे हिमालय और गंगा के लिए किसी भी तरह से घातक नहीं होंगी।
एक बात यह महत्वपूर्ण है कि कुंभ का स्नान सिर्फ रस्म अदायगी के लिए नहीं है, बल्कि आत्मशुद्धि के लिए है। राज्य और देश के नेताओं को इस शुभ अवसर पर अपने अंदर झांककर देखना चाहिए कि हिमालय में विकास की जो नीतियां वे बनाते आये हैं, वे कहां तक उचित हैं? हिमालय में पर्यावरण सुरक्षा और गंगा सफाई अभियान के नाम पर अब त्क जो अरबों रुपये खर्च किये गये, उनसे गंगा का विषैलापन कहां तक शुद्ध हुआ? विचारमंथन (कुंभ) का यह मौका हाथ से न जाने दें। देश और दुनिया के लिए गंगा और हिमालय का बचना बहुत् जरूरी है, लेकिन यह तभी संभव है जब वहां आबादी बसी रहेगी। उत्तराखंडवासियों को केंद्र में रखे बिना हरिद्वार में कुंभ के आयोजन की कल्पना करना व्यर्थ है। सदियों से वे कुंभ की महान संस्कृति को जीवित रखे हुए हैं। यहां तक कि मंथन से जो हलाहल विष निकलता है उसे पीने न तो कोई नेता आगे आता है और न ही कोई धर्माचार्य। अमृत तो नेता और नौकरशाह चट कर जाते हैं, लेकिन विष अंततः जनता को ही पीना पडता है।

Friday, February 12, 2010

हिमालय को बसाये बिना नहीं बचेगी गंगा

  • दाताराम चमोली
'गंगा बचाओ’ का नारा एक बार फिर सुर्खियों में है। कभी कोई पदयात्रा पर निकल पड़ता है तो कोई अनशन कर गंगा की रक्षा का संकल्प ले रहा है। वर्षों से गंगा को मैली होते देखते आ रहे कुछ साधु-संत भी एकाएक चिंतित हो पड़े हैं। वास्तव में देश के लिए गंगा का बचना बहुत जरूरी है। यह सदियों से राष्ट्र की सांस्कृतिक एवं धार्मिक आस्था का आधार रही है। इसका जल करोड़ों लोगों को जीवन देता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या महज नारों से ही गंगा का अस्तित्व बचा रह पाएगा? यदि ऐसा संभव होता तो वर्षों से गंगा और हिमालय को बचाने की दुहाई देते आ रहे तमाम गैर सरकारी संगठनों को अपने उद्देश्य में कब की कामयाबी मिल गई होती।
उत्तराखण्ड हिमालय के 16 हजार गांवों में इस समय करीब 45 हजार गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) हैं। इनमें अधिकांश पर्यावरण संरक्षण और हिमालय को बचाने में जुटे हैं। इसके एवज में उन्हें देश-विदेश से करोड़ों की धन राशि मिल जाती है। लेकिन हालत यह है कि पिछले वर्ष जिन लोगों को उत्तराखण्ड में समाज सेवा के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया, उनके बारे में समाचार माध्यमों से जानकारी पाकर जनता हैरान रह गई। दरअसल जनता उन्हें जानती ही नहीं थी। समाज सेवा के उनके प्रयास उत्तराखण्ड के किस क्षेत्र में रंग लाए, इससे भी लोग अनभिज्ञ हैं। पलायन की पीड़ा और प्राकृतिक संसाधनों के सही नियोजन न होने से एक कहावत प्रचलित हो गयी कि पहाड़ का पानी और जवानी कभी भी वहां के काम नहीं आयी। यह सच भी है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि हिमालय बचाने के नाम पर लूट-खसोट करने वालों के लिए वह धरती बेहद उर्वरा साबित हुई है। देश-विदेश से धन बटोरने वाले संगठन यहां कुकुरमुत्तों की तरह पनपते रहे हैं। हिमालय को बचाने के नाम पर हिमालय को बेचा जा रहा है। राज्य की जनता असहाय होकर यह सब देखने को विवश है। सरकारें भी उन्हीें लोगों को तवज्जो देती हंै जो हिमालय या गंगा को बचाने के नाम पर अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति करते हंै या फिर अपनी धार्मिक एवं सामाजिक दुकानें चमका रहे हैं। यही वजह है कि जनता को ऐसे लोगों का कोई समर्थन नहीं मिलता।
दरअसल पहाड़ के लोग भली भांति जानते हैं कि विस्थापन और पलायन अब उनकी नियति बन गई है। परियोजना चाहे तपोवन-विष्णुगाड हो या मनेरी भाली या फिर कोटली भेल, हर जगह नुकसान अंततः उन्हें ही झेलना पड़ेगा। सरकारी नीतियां विकास की आड़ में विनाश को आमंत्रित कर रही हैं। उत्तराखण्ड को ऊर्जा प्रदेश बनाने के लिए पहाड़ों को बुरी तरह खोदा जा रहा है। टिहरीवासियों की तरह ही संपूर्ण पहाड़ के लोगों को उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक जड़ों से काट दिया जाएगा। मध्य हिमालय में 200 से अधिक बांध परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। इनके लिए 700 किलोमीटर लंबी सुरंगों का निर्माण कर धरती को खोखला कर दिया जाएगा। इनके उपर लगभग डेढ़ हजार गांव होंगे। कई गांव बिजली घरों के ऊपर अपने मिटने की घड़ी गिनेंगे। सैकड़ों गांवों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। विष्णुगाड परियोजना के लिए बनी सुरंग के नीचे बने पावर हाउस से संकट में पड़े चांई गांव के लोगों की तरह वे भी अपने भाग्य को कोसेंगे। सरकार नदियों का सीना चीरने पर आमादा है। वह भूल जाती है कि वर्ष 2008 में राज्य की अपनी बिजली की कुल खपत 737 मेगावाट है। अन्य राज्यों को दी जाने वाली बिजली को मिलाकर ऊर्जा की कुल खपत 1500 मेगावाट है। वर्ष 2022 तक राज्य की ऊर्जा की कुल खपत बढ़कर 2849 मेगावाट होगी। इतनी ऊर्जा नदियों के नैसर्गिक प्रवाह को रोके बिना या लघु पन बिजली योजनाओं से भी पैदा की जा सकती है।
विशेषज्ञ शुरू से ही कहते आए हैं कि उत्तराखण्ड हिमालय के लिए बड़ी बांध परियोजनाएं विनाशकारी और लघु जल विद्युत परियोजनाएं हर दृष्टि से वरदान हैं। उत्तराखण्ड राज्य की मांग वास्तव में सत्ता के विकेन्द्रीकरण के साथ ही योजनाओं के विकेन्द्रीकरण को लेकर भी उठी थी। वहां के लोगों को लगता था कि पृथक राज्य गठन के बाद सरकारी विकास योजनाएं पहाड़ की विषम भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखकर बनंेगी, लेकिन आज भी उत्तर प्रदेश की तर्ज पर ही अव्यावहारिक योजनाएं बन रही हैं। बेतरतीब निर्माण कार्यों में विस्फोटकों के बेतहाशा इस्तेमाल से पहाड़ हिल रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है। सदियों से जल, जंगल और जमीन की रक्षा करते आ रहे पहाड़वासियों के इन प्राकृतिक संसाधनों से हक-हकूक छीने जाने का सिलसिला जारी है। लोगों को सुखद जीवन जीने की सुविधाएं देने के वजाय पलायन और विस्थापन के लिए मजबूर किया जा रहा है। गंभीर चिंता का विषय है कि पिछले 10 सालों के दौरान उत्तराखण्ड के 10 लाख से ज्यादा लोग स्थाई रूप से अपने गांव-घर छोड़ चुके हैं। करीब दो लाख घरों में ताले पड़ गए हैं। इनमें एक लाख से अधिक ग्रामीण क्षेत्रों के हैं। युवा शक्ति के बड़ी संख्या में बाहर चले जाने से गांवों में अक्सर यह समस्या खड़ी हो जाती है कि शव को श्मशान तक कैसे पहुंचाया जाए।
असल में गंगा बचाने का सवाल धार्मिक एजेण्डे को मजबूत करने और इसी बहाने किसी के लिए ख्याति अर्जित करने का साधन बना हुआ है। गंगा सिर्फ गंगोत्री से निकलने वाली धारा नहीं है, बल्कि इसकी मुख्य धारा अलकनंदा है। धार्मिक रूप से भी पंच प्रयाग अलकनंदा पर ही हैं। इन पांच नदियों के मिलन से भागीरथी गंगा बनती है। इसलिए इसे सिर्फ 48 किलोमीटर तक शुद्ध रखने की और अविरल बहने देने की बात बहुत कमजोर है। अलकनंदा के उद्गम से लेकर नंदप्रयाग तक इसमें सात बांध प्रस्तावित हैं। इनमें अधिकांश में सुरंगें बननी हैं। कई-कई किलोमीटर तक यह जीवनदायिनी नदी मृत पड़ी है। लेकिन किसी पर्यावरणविद् को इस बात की चिन्ता नहीं है। सही बात यह कि गंगा को बचाने के लिए उन लोगों की भागीदारी जरूरी है जो परंपरागत तरीके से जलधाराओं को बचाने और जल संवर्धन को अपना धर्म समझते हैं। जहां तक पहाड़ का सवाल है वहां सिर्फ गंगा ही गंगा पवित्र नहीं है बल्कि वह सभी 17 नदियां उसकी अराध्य हैं जो उसको जीवन प्रदान करती हैं। उन्हें बचाने के लिए उसका अपना दर्शन है। पेड़ों को बचाने, जमीन को सुरक्षित रखने और पानी के संवर्धन के उसके अपने तरीके ने गंगा और उसकी सहायक नदियों को बचाने की पुरातन से कोशिश की है।
योजनाकारों ने विकास का जो विनाशकारी माॅडल तैयार किया उससे नदियां, जंगल और जमीन उनसे अलग होने लगी। जो नदियां कभी उन्हें भाई-चारे, सौहार्द और सहकारिता का संदेश दिया करती थी अब बांधों ने उनके रोटी-बेटी के रिश्तों तक में दूरियां ला दी हैं। बिगड़ती पारिस्थितिकी और संसाधनों पर से हटते अधिकारों ने जनता को प्रकृति के साथ उसके पौराणिक अन्र्तसंबंधों से दूर किया है। रही-सही कसर सरकारी कानूनों ने पूरी कर दी। वन आधिनियम 1980 जैसेे काले कानून आने के बाद तो जंगल सरकारी हो गये। घास-पत्ती, लकड़ी और पत्थर से छिने हक-हकूकों ने जंगल के दावेदारों को इसके प्रति संवेदनहीन कर दिया। मौजूदा समय में परंपरागत जंगलों के समाप्त होने से चीड़ और यूकेलिप्टस के रोपड़ से यहां के जल स्रोत तेजी के साथ घटे हैं। चैड़ी पत्ती के वृक्षों के अभाव में ग्लोबल वार्मिंग से हिमालय पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। ग्लेशियर खिसक रहे हैं। पहाड़ पर नया संकट है। यह भी कहा जा सकता है हिमालय प्रतिकार की मुद्रा में है। कभी पहाड़ के लोग नारा लगाते थे कि ‘हिमालय रूठेगा।’ देश टूटेगा यह अब सत्य साबित हो रहा है। इसी संदर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है कि पिछले चार दशक से हिमालय को बचाने के लिए आंदोलनरत जनता की आवाज सुनने के लिए नीति-नियंता तैयार नहीं हैं। लेकिन हवाई नारों और गंगा से कुछ पा लेने के लिए जुटे लोग सरकार के लिए गंगा बचाने के पैरोकार बन बैठे। यही इस आंदोलन और हिमालय को बचाने की त्रासदी है।
पलायन की समस्या ने सीमाओं की सुरक्षा का भी सवाल खड़ा कर दिया है। जब सीमाओं पर लोग ही नहीं रहेंगे, तो उनकी चैकसी कौन करेगा? कभी सरकार इस सीमांत क्षेत्र के लोगों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देती थी। सेवा सुरक्षा बंधुत्व (एसएसबी) के जवान गांव-गांव में जाकर युवाओं, महिलाओं और पुरुषों को दुश्मन से लड़ने के गुर सिखाते थे। यह बात समझ से परे है कि न जाने अब सरकार इसकी जरूरत क्यों महसूस नहीं करती? पलयान और विस्थापन न सिर्फ उत्तराखण्ड बल्कि अन्य हिमालयी राज्यों की भी समस्या है। एक तरह से विकास की गलत होती परिभाषा और संसाधनों से एक साथ ज्यादा लाभ पाने की नफाखोरी की प्रवृत्ति से उपजी स्थितियां हैं। इसका निशाना जल, जंगल और जमीन पर आश्रित सभी समुदायों के लिए खतरे की घंटी है। आदिवासी क्षेत्रों में भी इस नफाखोरी को हिंसक पंजे फैले हैं। हिमालयी राज्यों में 400 से अधिक बांध परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। विशालकाय बांध परियोजनाएं न सिर्फ विस्थापन की समस्या खड़ी करेंगी बल्कि हिमालय में पारिस्थितिकी असंतुलन का कारण भी बनेंगी। इनसे भूस्खलन और भूकंप का खतरा बढ़ेगा और हिमालय का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा। ऐसी स्थिति में न तो गंगा बच पाएगी और न ब्रह्मपुत्र। इंटरनेशनल कमीशन फाॅर स्नो एण्ड आइस के एक अध्ययन के मुताबिक अगले 50 सालों में हिमालय के 50 हिमखंड समाप्त हो जाएंगे। गोमुख ग्लेशियर खतरे में है। 1935 से अब तक इसकी लंबाई 6 किमी और चैड़ाई 2 ़5 किमी घटी है। सन् 2007 में जारी संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि ग्लेशियर इसी तरह सिमटता रहा तो 2030 तक गंगा लुप्त हो जाएगी। ऐसे में गंगा को बचाने के लिए कहीं से भी आवाज उठती है तो वह स्वागत योग्य है। वर्षों सरकारी सेवा का सुख भोगने के बाद रातों-रात कोई पर्यावरणविद् का चोला पहनकर आगे आए या फिर जीवन भर अपने आश्रमों के नजदीक गंगा को मैली होती देखने के बादवजूद 80-90 साल की उम्र में किसी शंकराचार्य को गंगा की रक्षा का बोध हो जाए, इस पर किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है। यह उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है कि वे कब और किस उम्र में गंगा की रक्षा का संकल्प लेते हैं। लेकिन इतना अवश्य है कि गंगा को बचाने की कोई भी बात ठोस धरातल पर ही की जानी चाहिए। गंगा से पहले हिमालय को बचाने की के लिए आवाज उठनी चाहिए। हिमालय बचा रहेगा तो गंगा खुद बच जाएगी। हां, एक अहम बात सच्चाई यह है कि हिमालय को बचाने के लिए उसका बसना बेहद जरूरी है। हिमालय पर आबादी बसी रहनी चाहिए। वहां से लोगों का पलायन देश और दुनिया के हित में नहीं है।