उत्ताराखंड में बडे बांधों के खिलाफ वर्षों से चले जनांदोलनों को नीत्-नियंत्ाओं ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। टिहरी जैसे बड़े बांधों के खिलाफ विश्वव्यापी आंदोलन के बावजूद राज्य की सभी नदियों में छोटे-बडे पांच सौ से अधिक बांध बन रहे हैं। बिजली बनाने की जिद में सुरंगें खोदकर पहाड को खोखला किया जा रहा है। जिस उत्तराखण्ड को देवभूमि माना जाता रहा है वहां अब भगवान भी सुरक्षित नहीं हैं। विस्थापन से लेकर पर्यावरणीय प्रभावों के अलावा भूस्खलन के खत्रों से पूरा हिमालय मौत के मुहाने पर खडा है। इन तमाम प्रभावों का आकलन करती दाताराम चमोली की रिपोर्ट
हाल में देहरादून में इंस्टीटयूट ऑफ इंजीनियर्स की ओर से हाइड्रो पावर डेवलपमेंट एंड एन्वायरमेंट इश्यूज विषय पर आयोजित एक सेमिनार में केंद्रीय ऊर्जा सलाहकार प्रदीप चतुर्वेदी ने कहा कि देश में अभी त्क 34 हजार मेगावाट क्षमता की परियोजनाएं स्थापित की जा चुकी हैं। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में इस क्षमता को एक लाख मेगावाट तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए पर्यावरणीय विवादों को सुलझाना जरूरी है। उत्तराखण्ड के पेयजल मंत्री प्रकाश पंत ने पर्यावरण विवादों से निपटने का सुझाव दिया कि छोटी परियोजनाएं बननी चाहिए, जबकि टिहरी जल विकास निगम (टीएचडीसी) के सीएमडी आरएसटी सांई ने जोर दिया कि पुनर्वास, पर्यावरण जैसे सवालों के चलते परियोजनाएं स्थगित करने के बजाय उन्हें सुलझाया जाना चाहिए। वहीं राज्य विद्युत नियामक आयोग के चेयरमैन वीजे तलवाड़ ने भी ऊर्जा जरूरतों को देखते हुए विद्युत उत्पादन पर बल दिया।
सेमिनार का निचोड़ यही है कि बांध निर्माण से विस्थापन और पर्यावरण जैसी कितनी ही बड़ी समस्यायें क्यों न पैदा हो जायें, लोग अपने इतिहास, संस्कृति और उपजाऊ कृषि भूमि को बचाने के लिए भले ही कितने बडे़ आंदोलन क्यों न खडा़ कर दें, ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए बांधों का निर्माण नहीं रोका जा सकता है। नीति-नियंता जगह-जगह पर बांध निर्माण के लिए आमादा हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि आजादी के बाद देशभर में बने 5100 बांधों से साढे़ पांच करोड़ लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पडा़। करीब 44 लाख हेटेयर जमीन 4528 बांधों की झीलों में समा गयी। विस्थापितों में लगभग आधी आबादी गरीबों और आदिवासियों की है, लेकिन अरबों रुपये की लागत से निर्मित बिजली परियोजनाएं अपने निर्धारित लक्ष्य के अनुसार बिजली पैदा नहीं कर सकीं।
'टिहरी बांध की आयु सौ वर्ष
बतायी गयी है। प्रो. खड़ग सिंह
बल्दिया ने इसकी आयु तीस वर्ष
बतायी है, लेकिन मेरे विचार से
यह सिर्फ 15 वर्षों तक ही रहेगा।'
- सुंदरलाल बहुगुणा
देश में बने एशिया के सबसे बडे़ टिहरी बांध को ही ले लीजिये। वर्ष 1965 में बांध निर्माण की घोषणा के साथ ही स्थानीय लोगों ने इसके खिलाफ लामबंदी शुरू कर दी थी। चार दशक तक लोग इसके खिलाफ लड़ते रहे। देश और दुनिया के जाने-माने पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों ने भी इसे पर्यावरण की दृष्टि से बहुत बडा़ खतरा बताया। वर्ष 1991 को उत्तरकाशी और वर्ष 1999 में चमोली में आये भयंकर भूकंपों के बाद भी सवाल उठे कि क्यों राष्ट्रहित में इस परियोजना को बनाया जाना जरूरी है? जनता बांध निर्माण को लेकर लड़ती रही, अपनी संस्कृति और उपजाऊ जमीन की रक्षा के लिए मरती रही। वर्षों तक निरंतर आंदोलन चलाने से लेकर न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का सिलसिला चलता रहा। अंत तक लोग लड़ते रहे, लेकिन विकास की दुहाई देकर 190 वर्ष पुराने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर को डुबो दिया गया।
बयालीस वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल, लगभग साठ किलोमीटर लंबी एवं 160 किलोमीटर परिधि वाली विशालकाय कृत्रिम झील में टिहरी शहर सहित 125 गांव पूर्ण रूप से तथा 88 गांव आंशिक रूप से समा गये। भागीरथी और भिलंगना घाटी की लगभग सवा लाख आबादी को अपनी पैतृक जगहों से विस्थापित होना पडा़। कई हजार एकड़ जमीन, हरी भरी घाटियां और जल स्रोत जल में समा गये। इस सबके बावजूद टिहरी उजडे़ हुए लोगों की दास्तां बनकर रह गया। विस्थापित और प्रभावित परिवारों को न तो उनकी अपेक्षानुसार रोजगार मिला और न ही उनका उचित पुनर्वास ही हो पाया।
वर्ष 1996 में केंद्र ने पर्यावरण और पुनर्वास के पहलुओं पर हनुमंत राव कमेटी गठित की थी। कमेटी ने वर्ष 1997 में अपनी रिपोर्ट पेश की। केंद्र ने इसकी कुछ ही सिफारिशें लागू कीं। नतीजा यह हुआ कि लोगों को अपने पुनर्वास के लिए वर्षों सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने पडे़ और सडकों पर भी आंदोलन चलाना पडा़। विस्थापित परिवारों को देहरादून में कई जगहों पर पथरीली जमीन दी गयी। पुरानी टिहरी में जिन लोगों के पास घर, आंगन और पुश्तैनी मकान थे वे आज नई टिहरी में छोटे-छोटे बंद फ्लैटों में रह रहे हैं। यहां उन्हें पीने के पानी और बिजली की किल्लत झेलनी पड़ रही है। और तो और शवों के अंतिम संस्कार के लिए करीब 30-40 किलोमीटर दूर लाना पड़ता है। अब वे महसूस कर रहे हैं कि विकास और रोजगार के नाम पर उनके साथ बहुत बडा़ धोखा हुआ है। इसके बावजूद यह परियोजना अपने लक्ष्य 2400 मेगावाट के मुकाबले महज 700 मेगावाट बिजली ही पैदा कर पा रही है।
खास बात यह है कि टिहरी बांध के खिलाफ जब कभी भी जनता ने आंदोलन तेज किया तो बांध निर्माण की पक्षधर सरकारी लॉबी ने बडी़ चालाकी से यह बात फैलायी कि अब करोड़ों रुपये खर्च होने के बाद निर्माण कार्य नहीं रोका जा सकता। बांध का विरोध करने वालों को शुरू से ही आंदोलन करना चाहिए था, जबकि हकीकत यह है कि टिहरी में बांध निर्माण की घोषणा के साथ ही लोगों ने इसके विरोध में आवाज बुलंद कर दी थी। यही चालाकी अब दूसरी जगहों पर भी अपनायी जा रही है।
श्रीनगर गढ़वाल में अलकनंदा पर बन रही 330 मेगावाट की श्रीनगर जल विद्युत परियोजना के बारे में शुरू में जनता को बताया गया था कि यह एक माइक्रोहाइडल परियोजना है। अंदरखाने जनता में यह भी प्रचार किया गया था कि इससे स्थानीय युवाओं को बडी़ संख्या में रोजगार मिलेगा और लोगों को सिंचाई की सुविधा एवं बिजली भी मिलेगी। लेकिन आज इस परियोजना ने इतना बड़ा आकार ले लिया है कि अलकनंदा नदी के किनारे बीस मीटर ऊंची चट्टान पर स्थित प्राचीन धरी देवी मंदिर अब डूब क्षेत्र में है। टिहरी गढ़वाल में भी यही हुआ। यहां पहले 11 मेगावाट की फलेण्डा परियोजना का श्रीगणेश हुआ, लेकिन बाद में इसे बाईस मेगावाट का कर दिया गया। जनता ने अपने जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए प्रचण्ड आंदोलन चलाया। फलेण्डा को भी छोटी परियोजना के रूप में प्रचारित किया गया।
अब जबकि राज्य के लोग समझने लगे हैं कि केंद्रीय जल आयोग, बडे़ बांधों के आयोग और विश्व बांध आयोग जैसी संस्थाओं की मान्य परिभाषाओं के अनुसार पांच से 15 मीटर ऊंचे बांध जिनकी भंडारण क्षमता तीस लाख घनमीटर हो, बडे बांधों की श्रेणी में आते हैं तो नीति-नियंता रन ऑफ दि रीवर का नया शिगूफा लेकर आये हैं। अलकनंदा और उसकी सहायक नदियों पर जब लोग बांधों के खिलाफ आंदोलन चलाने लगे तो वर्ष 2006 में उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खण्डूडी़ ने रन ऑफ द रीवर परियोजनाओं को बढावा देने का राग अलाप दिया। राज्य के तत्कालीन पर्यटन और संसदीय कार्यमंत्री ने भी बयान दिया कि भविष्य में गंगा को सुरंगों में डालने से परहेज रहेगा और बडे़ बांधों से उनका भी विरोध है। पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने भी इसी त्रह के वायदे किये थे, लेकिन रन ऑफ दि रीवर परियोजनाओं की असलियत यह है कि सरकार निर्माण कंपनियों से समझौते कर मनमाने ढंग से बांध निर्माण को बढा़वा देती रही है।
अब जबकि राज्य के लोग समझने लगे हैं कि केंद्रीय जल आयोग, बडे़ बांधों के आयोग और विश्व बांध आयोग जैसी संस्थाओं की मान्य परिभाषाओं के अनुसार पांच से 15 मीटर ऊंचे बांध जिनकी भंडारण क्षमता तीस लाख घनमीटर हो, बडे बांधों की श्रेणी में आते हैं तो नीति-नियंता रन ऑफ दि रीवर का नया शिगूफा लेकर आये हैं। अलकनंदा और उसकी सहायक नदियों पर जब लोग बांधों के खिलाफ आंदोलन चलाने लगे तो वर्ष 2006 में उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खण्डूडी़ ने रन ऑफ द रीवर परियोजनाओं को बढावा देने का राग अलाप दिया। राज्य के तत्कालीन पर्यटन और संसदीय कार्यमंत्री ने भी बयान दिया कि भविष्य में गंगा को सुरंगों में डालने से परहेज रहेगा और बडे़ बांधों से उनका भी विरोध है। पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने भी इसी त्रह के वायदे किये थे, लेकिन रन ऑफ दि रीवर परियोजनाओं की असलियत यह है कि सरकार निर्माण कंपनियों से समझौते कर मनमाने ढंग से बांध निर्माण को बढा़वा देती रही है।
राज्य में लगभग सभी नदी-नालों को सुरंगों में डाला जा रहा है। अनुमान के मुताबिक विद्युत परियोजनाओं के लिए 1500 किलोमीटर लंबी सुरंगें बनायी जायेंगी। इन सुरंगों के ऊपर वर्षों से बसे सैकड़ों गांवों का भगवान ही मालिक है। टिहरी जल विद्युत निगम से राज्य सरकार ने टौंस नदी पर 236 मीटर ऊंचा बांध बनाने का समझौता किया। जनता के भारी विरोध के बावजूद काली नदी पर 280 मीटर का पंचेश्वर बांध प्रस्तावित कर दिया गया। इससे डेढ़ लाख लोगों के विस्थापन की आशंका है। भागीरथी और अलकनंदा पर प्रस्तावित जिन कोटली-भेल परियोजनाओं को रन ऑफ दि रीवर की संज्ञा दी जा रही है, वे भी क्रमश: 17 किलोमीटर, 29 किलोमीटर और 32 किलोमीटर लंबे जलाशयों का निर्माण करेंगी। लगभग 2800 हेटेयर भूमि इन परियोजनाओं की भेंट चढे़गी और इससे हजारों लोग प्रभावित होंगे।
साफ है कि रन ऑफ दि रीवर के बहाने भी जनता को गुमराह किया जा रहा है। उत्तराखण्ड हिमालय में बांध बनते रहेंगे, पर्यावरण नष्ट होगा और लोग अपनी पैतृक जगहों से उजड़ने को मजबूर होते रहेंगे। वे चिल्लाते रहेंगे, लेकिन सरकारी सुनवाई सिर्फ खानापूर्ति तक सीमित रहेगी। हिमालय में बडे़ बांधों के खिलाफ मुखर माटू जन संगठन ने अपने तथ्यान्वेषण में पाया है कि नदी-घाटियों में पर्यावरणीय जन सुनवाइयों में भयंकर कानूनी, प्रशासनिक और प्रक्रियागत समस्याएं रही हैं। किसी भी जन सुनवाई में सच्चाई सामने नहीं रखी गयी। लोगों के मांगने पर भी उन्हें कागजात हिंदी में नहीं मिले।
राज्य निर्माण के बाद भागीरथी घाटी में लोहारीनाग-पाला, पाला-मनेरी आदि एवं अलकनंदा घाटी में लाता-तपोवन, तपोवन विष्णुगाड़, विष्णुगाड़-पीपलकोटी, कोटली भेल-अ, ब और कोटली भेल-दो आदि जल विद्युत परियोजनाओं में लोगों के कानूनी हकों को दरकिनार करके जनसुनवाई के नाम पर महज औपचारिकता की गयी। लोगों को पता ही नहीं था कि पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट एवं प्रबंध योजना (ईआईए) जैसे कोई कागजात होते हैं, इनमें जन-जीवन, जंगल-धूल, वायु प्रदूषण, जीव-जंतुओं, नदी-घाटी आदि पर परियोजना के प्रभावों का अध्ययन शामिल होता है। पुनर्वास सहित प्रभावों के प्रबंधन पर प्रस्तावित खर्च का ब्यौरा भी होता है। जनता से यह सब छिपाया गया। राज्य के प्रदूषण नियंत्रण एवं संरक्षण बोर्ड की भूमिका इस संदर्भ में हमेशा संदेह की रही है।
दुर्भाग्य ही है कि जहां एक ओर भारी जन विरोध को दरकिनार कर नदी-घाटियों को तबाह किया जा रहा है, वहीं जनोपयोगी परियोजनाओं के निर्माण की दिशा में लापरवाही दिखायी जाती रही है। आज बडे़ बांधों के निर्माण में इस्तेमाल हो रहे अंधाधुंध विस्फोटकों से नदी घाटियां बुरी तरह हिल चुकी हैं। गढ़वाल के सीमांत चमोली जिले के चांई, सेलंग, हेलंग आदि गांवों से लेकर कुमाऊं मंडल के सीमांत पिथौरागढ़ जिले के तवाघाट और कपकोट तक हर जगह लोग इन बांधों के चलते दहशत की जिंदगी जी रहे हैं। चमोली जिले का चांई गांव उजड़ चुका है। विस्फोटकों से दहले इस गांव के लोगों को अपने घरों को छोडकर गुफाओं की शरण लेनी पडी़। जिले के चालीस अन्य गांवों पर भी खतरा मंडरा रहा है। विकास की एक परिभाषा चांई गांव है और दूसरा जमरानी बांध। जनता करीब साढे़ तीन दशक से इस बांध निर्माण की आस लगाये बैठी है।
पंद्रह मेगावाट बिजली उत्पादन के साथ ही इससे उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश की डेढ़ लाख हेटेयर भूमि सिंचित हो सकती थी। हजारों लोगों को पीने का पानी मिलता, लेकिन विकास की दुहाई देकर पहाड़ों को खुर्द-बुर्द करती आ रही सरकारों को इस तरह की योजनाओं में कोई दिलचस्पी नहीं रही।
साफ है कि रन ऑफ दि रीवर के बहाने भी जनता को गुमराह किया जा रहा है। उत्तराखण्ड हिमालय में बांध बनते रहेंगे, पर्यावरण नष्ट होगा और लोग अपनी पैतृक जगहों से उजड़ने को मजबूर होते रहेंगे। वे चिल्लाते रहेंगे, लेकिन सरकारी सुनवाई सिर्फ खानापूर्ति तक सीमित रहेगी। हिमालय में बडे़ बांधों के खिलाफ मुखर माटू जन संगठन ने अपने तथ्यान्वेषण में पाया है कि नदी-घाटियों में पर्यावरणीय जन सुनवाइयों में भयंकर कानूनी, प्रशासनिक और प्रक्रियागत समस्याएं रही हैं। किसी भी जन सुनवाई में सच्चाई सामने नहीं रखी गयी। लोगों के मांगने पर भी उन्हें कागजात हिंदी में नहीं मिले।
राज्य निर्माण के बाद भागीरथी घाटी में लोहारीनाग-पाला, पाला-मनेरी आदि एवं अलकनंदा घाटी में लाता-तपोवन, तपोवन विष्णुगाड़, विष्णुगाड़-पीपलकोटी, कोटली भेल-अ, ब और कोटली भेल-दो आदि जल विद्युत परियोजनाओं में लोगों के कानूनी हकों को दरकिनार करके जनसुनवाई के नाम पर महज औपचारिकता की गयी। लोगों को पता ही नहीं था कि पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट एवं प्रबंध योजना (ईआईए) जैसे कोई कागजात होते हैं, इनमें जन-जीवन, जंगल-धूल, वायु प्रदूषण, जीव-जंतुओं, नदी-घाटी आदि पर परियोजना के प्रभावों का अध्ययन शामिल होता है। पुनर्वास सहित प्रभावों के प्रबंधन पर प्रस्तावित खर्च का ब्यौरा भी होता है। जनता से यह सब छिपाया गया। राज्य के प्रदूषण नियंत्रण एवं संरक्षण बोर्ड की भूमिका इस संदर्भ में हमेशा संदेह की रही है।
दुर्भाग्य ही है कि जहां एक ओर भारी जन विरोध को दरकिनार कर नदी-घाटियों को तबाह किया जा रहा है, वहीं जनोपयोगी परियोजनाओं के निर्माण की दिशा में लापरवाही दिखायी जाती रही है। आज बडे़ बांधों के निर्माण में इस्तेमाल हो रहे अंधाधुंध विस्फोटकों से नदी घाटियां बुरी तरह हिल चुकी हैं। गढ़वाल के सीमांत चमोली जिले के चांई, सेलंग, हेलंग आदि गांवों से लेकर कुमाऊं मंडल के सीमांत पिथौरागढ़ जिले के तवाघाट और कपकोट तक हर जगह लोग इन बांधों के चलते दहशत की जिंदगी जी रहे हैं। चमोली जिले का चांई गांव उजड़ चुका है। विस्फोटकों से दहले इस गांव के लोगों को अपने घरों को छोडकर गुफाओं की शरण लेनी पडी़। जिले के चालीस अन्य गांवों पर भी खतरा मंडरा रहा है। विकास की एक परिभाषा चांई गांव है और दूसरा जमरानी बांध। जनता करीब साढे़ तीन दशक से इस बांध निर्माण की आस लगाये बैठी है।
पंद्रह मेगावाट बिजली उत्पादन के साथ ही इससे उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश की डेढ़ लाख हेटेयर भूमि सिंचित हो सकती थी। हजारों लोगों को पीने का पानी मिलता, लेकिन विकास की दुहाई देकर पहाड़ों को खुर्द-बुर्द करती आ रही सरकारों को इस तरह की योजनाओं में कोई दिलचस्पी नहीं रही।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और टिहरी बांध विरोधी आंदोलन से जुड़े रहे हैं
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