Friday, October 23, 2009

गांव की आछरी

जब हम जवां होंगे, जाने कहां होंगे, बचपन के दिन भी क्‍या दिन थे. इन पंक्तियों से यही धुन आती है कि पुरानी यादों को सहेजना है, भूलना है, याद रखना है, वगरैह-वगरैह.
हर किसी के जीवन में कुछ किस्‍से और कहानियां होती हैं. जब हम छोटे होते हैं तो किस तरह हमारे माता-पिता हमें समझाते-बुझाते हैं, हमारे लिए परेशान रहते हैं. ये हमारे बड़े होने पर वो हमें अक्‍सर याद दिलाया करते हैं कि तूने बचपन में ऐसा किया, वैसा किया आदि- आदि.
जहां तक मेरे बचपन का सवाल है. मैं काफी शरारती था. मां कहती है कि मैंने बचपन में बहुत तंग किया था. मैं बहुत जिद्दी हुआ करता था. किसी बात की जिद कर लेता, तब तक अपनी जिद पर अड़ा रहता था जब तक मेरी मांग पूरी नहीं होती थी.
शायद आप लोगों में कई लोग ऐसे रहे होंगे. आज आप शायद इसे स्‍वीकारने में झिझक महसूस करें लेकिन यह सच है. कोई भी अपने बचपन की सारी घटनाएं अगर साल-दर-साल कागज पर उकेर दे तो शायद एक उपन्‍यास बन जाए. लेकिन आप घबराएं नहीं, मैं यहां कोई उपन्‍यास नहीं लिख रहा हूं. बस आपको एक सत्‍य घटना बताने जा रहा हूं. आप लोग शायद इस पर विश्‍वास न करें, लेकिन जो लोग गांवों से जुड़े हुए हैं, खासकर पहाड़ों से उन्‍हें इस बात का एहसास होगा कि यह सच है.
बात उस समय की है जब मैं छठी सातवीं में पढ़ा करता था. सुबह का स्‍कूल हुआ करता था. सुबह सात बजे से दोपहर 12-1 बजे तक. स्‍कूल से लौटने के बाद हम लोग जब घर आते थे तो खाना खाने के बाद पशुओं को चराने के लिए जंगलों में जाया करते थे और सूरज ढलते ही घरों की ओर लौट आते थे.
जंगल जाने से पहले मां-बाप ढेर सारे उपदेश देते थे. जैसे बेटा जंगल में कहीं इधर-उधर भटक मत जाना. सोना नहीं, कहीं पता चला कि तुम सो गए और पशु किसी के खेत में चले गए और लोग उन्‍हें सिंगुड़ी ले जाएं. (सिंगुड़ी उसे कहते हैं जब पशु किसी का नुकसान करते हैं, तो जिसका नुकसान हुआ हो वह पशुओं को अपने घर ले जाता है और आर्थिक दंड देने के बाद ही उन्‍हें अपने कब्‍जे से मुक्‍त करता है.)
बेटा सोना मत, कहीं आछरी, मातरी ले गई तो जान से ही हाथ धोना पड़ेगा. (आछरी या मातरी उसे कहते हैं जिसे शहरी भाषा में परी कहा जाता है.)
रोजाना की तरह ही एक दिन हम लोग जंगल में गए थे. उस दिन गांव की ही एक लड़की हमारे साथ जंगल में पशुओं को चुंगाने आई थी. शायद वह इससे भी पहले जंगल गई हो, लेकिन मेरे साथ उस दिन पहली बार आई थी. उस दिन हम लोग रोज की तरह ही खेल रहे थे कि खेल ही खेल में वह जोर जोर से चीखने-चिल्‍लाने लगी.
हम लोगों को लगा जैसे ऐसे ही चिल्‍ला रही है. लेकिन चुप कराने पर भी जब वह चुप नहीं हुई तो सब लोग घबरा गए कि आखिर अचानक ऐसा क्‍या हो गया जो जो चीखने-चिल्‍लाने लगी.
डर के मारे सबकी हालत पतली हो रही थी. इसी बीच एक घटना अचानक और घट गई वह घर आने के बजाय जंगल की ओर जाने लगी. अब किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर क्‍या किया जाए. सबने थोड़ी-थोड़ी हिम्‍मत जुटाई और उसे पकड़ने लगे, जैसे ही उसके करीब गए तो उसने अपनी आंखें घुमाई और बाल बिखरा दिए. हूं... आओ देखती हूं कौन मुझे रोकता है.
वह फिर दहाड़ी. हूं.... हूस्‍स उसको चेहरा देखने लायक था.
अब सबकी हवा निकल गई. कि आखिर करें तो क्‍या करें. वह आगे बढ़ती ही जा रही थी और हम लोग उसके पीछे-पीछे जा रहे थे. लेकिन किसी की हिम्‍मत नहीं हो रही थी कि उसे पकड़ ले.
एक बार हम सबने हिम्‍मत जुटाई और उसे घसीटते हुए थोड़ा नीचे ले आए. बस हमारा इतना ही करना था कि वह और भी आग बबूला हो गई.
जोर- जोर से चीखने लगी, हूं... हूं... हूं.... shhhhh. किसी को नहीं छोडूंगी, सब के सब मारे जाओगे. आज देखती हूं तुम्‍हें कौन बचाता है. फिर वही हूं... हूं... हूं.... shhhhh.
इस बीच अचानक न जाने मुझे क्‍या हुआ. मैं जोर से चिल्‍लाया. और मैंने उसके बाल खींचें और एक-दो जोरदार थप्‍पड़ उसके गाल पर जड़ दिए. उसके बाद से अचानक एकदम स्थिति ठीक हो गई.
वह सामान्‍य हो गई और हम सब लोग घर की ओर चल पड़े.
घर आने जब पूरी बात मां को बताई, तो मां ने भगवान का लाख-लाख शुक्रिया अदा किया.
हे भगवान तूने मेरे बच्‍चे को सही सलामत घर पहुंचा दिया. हे कुल देवता ये सब तेरी कृपा है जो मेरे बच्‍चे सही सलामत घर लौट आए, ना जाने वो हरामजादी क्‍या-क्‍या करती मेरे बच्‍चों के साथ.
मैंने मां से पूछा तो मां ने बताया कि वह मातरी थी और तुम्‍हें अपने वश में करके वह पहाड़ पर ले जाती और वहां निचे गिरा देती या तुम लोगों के साथ कुछ भी कर सकती थी.
अब मैं और भी डर गया.मैंने पूछा, मां लेकिन मैं भी तो चिल्‍लाया था और उसको एक-दो थप्‍पड़ मारे थे.
मां बोली, वह हमारे कुल देवता तेरी सहायता के लिए आए थे. ये सब उनकी कृपा थी. इतने में मेरी आंखों से आंसू टपक पड़े.
शायद मां समझ गई कि मैं डर गया हूं.
मां बोली, चल कुछ खा ले तुझे भूख लगी होगी.
मैंने कहा, मां लेकिन...मां बोली, लेकिन-वेकिन कुछ नहीं पहले कुछ खा ले फिर...मां, फिर... कुछ नहीं बोली न कुछ नहीं.... कुछ खा ले और मैं खाने के लिए रसाईघर में चल दिया.
उसके बाद मैंने खाना खाया और सब सामान्‍य हो गया.
तीन दिन बाद फिर पता लगा कि गांव में किसी महिला की तबियत अचान खराब हो गई. सुना कि वह खेत से घर लौट रही थी और घर पर आते ही लुंज-मुंज (अचेत अवस्‍था में) हो गई.
गांव के सारे लोग इकट्ठा हो गए. देवता को बुलाया गया. देवता का धामी आया और झूलने लगा, उसने बताया कि यह तो तीन दिन पहले ही गांव में प्रवेश कर गई है. इसे गांव से भगाया जाए. सबने देवता से आग्रह किया कि आप ही कुछ करें.
देवता ने चावल फेंके और कुछ देर बाद वह महिला ठीक हो गई. इतने में मैं भी पहुंच गया. जैसे कि गांव में अक्‍सर होता है कि किसी के घर में यदि कुछ हो जाए तो सारे लोग एकट्ठे हो जाते हैं. मैं पहुंचा तो गांव के ही एक बुजुर्ग आदमी से मैंने पूछा, चाचा क्‍या हुआ?
फिर उन्‍होंने विस्‍तार से बताया-
यह लड़की फलां गांव की है, यह जवान लड़की थी और अल्‍पायु में मर गई, इसके घर वालों ने इसका क्रियाकर्म किया या नहीं, भगवान जाने. अब यह सबको परेशान कर रही है.
अब यह दर-दर भटक रही है और लोगों को परेशान कर रही है. मैंने कहा, चाचा लेकिन, ऐसा क्‍यों?
इस पर चाचा हसंते हुए बोले, बेटा अभी तुम छोटे हो, जब बड़े हो जाओगे तो अपने आप समझ में आ जाएगा ये सब क्‍या होता है.
जारी...

रावत शशि मोहन पहाड़ी

No comments: