हर खुशी है लोगों के दामन में,
पर एक हंसी के लिए वक्त नहीं.
दिन-रात दौड़ती दुनिया में,
जिंदगी के लिए ही वक्त नहीं।
मां की लोरी का एहसास तो है,
पर मां को मां कहने का वक्त नहीं.
सारे रिश्तों को तो हम मार चुके,
अब उन्हें दफनाने का भी वक्त नहीं।
सारे नाम मोबाइल में हैं,
पर दोस्ती के लिए वक्त नहीं.
गैरों की क्या बात करें,
जब अपनों के लिए ही वक्त नहीं।
आंखों में है नींद बड़ी,
पर सोने का वक्त नहीं.
दिल है गमों से भरा हुआ,
पर रोने का भी वक्त नहीं।
पैसों की दौड़ में ऐसे दौड़े,
कि थकने का भी वक्त नहीं.
पराय एहसास की क्या कद्र करें,
जब अपने सपनों के लिए ही वक्त नहीं।
तू ही बता ये जिंदगी,
इस जिंदगी का क्या होगा.
कि हर पल मरने वालों को,
जीने के लिए भी वक्त नहीं।
प्रस्तुति - संजीव चंद
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