सांकेतिक फोटो
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शशि मोहन रवांल्टा
पहाड़ों से पलायन हो
रहा है, इसलिए
चिंतन भी जरूरी है। चिंतन होगा, तो मनन भी होगा। मनन होगा तो
मंथन भी होगा। पलायन रोकने के लिए हम चिंतित होंगे, तो चार
लोगों से बात करेंगे। चार लोग आपस में मिल बैठेंगे तो चर्चा और परिचर्चा होगी।
चर्चा-परिचर्चा के बीच सवाल उभरेंगे और उन सवालों के हल खोजने के लिए हम उसकी जड़
तक पहुंचने की कोशिश करेंगे। जब हम किसी चीज की तह तक पहुंचते हैं तो हमें पता
चलता है उनकी असली वजह क्या है? और ऐसा क्यों हो रहा है?
पहाड़ों
से लोग अपने घरों को छोड़कर महानगरों का रुख कर रहे हैं। इसका मतलब पहाड़ों से
पलायन हो रहा है। पहाड़ वीरान हो रहे हैं, लोग अपनी आजीविका की खोज में
पहाड़ छोड़़ रहे हैं तो कोई अच्छी शिक्षा और नौकरी की तलाश में महानगरों का रुख
कर चुके हैं या कर रहे हैं।
उत्तराखंड में राज्य
स्थापना के 15 साल
के बाद भी स्थिति जस की तस है। आज भी कई ऐसे गांव हैं जहां न तो बिजली है और न ही
सड़क। पानी तो वहां कुदरती तौर पर उपलब्ध है, लेकिन कुछ
गांवों को पानी भी नसीब नहीं हो पाता, खासकर गर्मियों के
मौसम में।
उत्तराखंड का राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक ढांचा
गड़बड़ाया हुआ है। भ्रष्टाचार जोरों पर है (जैसे कि आए दिन खबरों में पढ़ने-सुनने
या देखने को मिलता है)। एक छोटे से प्रधानी के चुनाव में भी लोग लाखों रुपए खर्च
कर रहे हैं, और यह स्वाभाविक सी बात है कि अमुख व्यक्ति जो
किसी चुनाव में पैसा खर्च करके जीतेगा तो उससे आप किस हद तक विकास की उम्मीद कर
सकते हैं। राजनीति को आजतक सेवा व त्याग का पर्याय माना जाता था, वह अब फैशन हो गई है, और जब कोई चीज फैशन बन जाए,
तो फिर उससे जनता की भलाई की उम्मीद बेमानी साबित होती
है, क्योंकि फैशन तो फैशन होता है।
उत्तराखंड की
स्थितियां चरमराई हुई हैं इसलिए वहां हस्तक्षेप जरूरी है। हस्तक्षेप इसलिए भी
जरूरी है कि वहां लोगों को जागरुक करना होगा। लोगों को यह बताना और समझाना होगा कि
निकट भविष्य में विवेकपूर्ण तरीके से ही कोई फैसला करें। बात चाहे वोट की हो या
नोट की? हमको
भ्रष्टाचार की इस मंडी में बिकना नहीं, बल्कि बुराई के
खिलाफ आवाज उठानी है। मातृभूमि व पावन माटी के प्रति समर्पित जुझारू, कर्मठ, स्वच्छ और ईमानदार छवि के लोगों को जगह-जगह
से एकत्रित कर आगे लाने के लिए भी हस्तक्षेप जरूरी है।
हमारी गौरवमयी पंरपराएं
और रीति-रिवाज धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहे हैं। गांव के गांव खाली हो गए हैं।
गांवों की पुरानी परम्परा समाप्त हो रही है। हमारे बुजुर्गों ने गांव इसलिए बनाए थे कि हम
एक कुटुंब और एक थाती के रखवाले के रूप में मिल-जुलकर एक दूसरे का दु:ख-दर्द
समझें। यही वह सुखद परिपाटी है जिसके चलते गांव में हम एक दूसरे के दु:ख-दर्द में
शरीक होते हैं इसलिए वह गांव हैं। लेकिन वहां भी अब आत्मकेंद्रित, स्वार्थी और दिखावे वाले शहरी जीवन (फ्लैटि संस्कृति) के छींटे यदा-कदा
पड़ने लगे हैं। शहरों में जहां एक दूसरे को यह पता नहीं होता कि हमारा पड़ोसी कौन
है। इस शहरी नितांत वैयक्तिक (फ्लैटि) संस्कृति की छाया हमारे गांवों में न पड़े
इसलिए वहां खाली इवेंट के रूप में नहीं, बल्कि संवेदनाओं से
जुड़कर लगातार ग्राम सम्मेलनों का आयोजन जरूरी है। कुछ गांवों में ऐसे ग्राम सम्मेलन
बहुत सफल हो रहे हैं, जो एक सुकून और आशा का भाव जगाने वाले
हैं।
हिमालय प्राकृतिक
आपदाओं के बोझ से कराह रहा है। वहां के लोग भयभीत हैं। घंटे-दो घंटे लगातार बारिश
होने से वे अपनी जिंदगी के अस्तित्व को लेकर ही खौफजदा हो जाते हैं। उनके आंखों
के सामने बीते हुए समय की प्रकृति की निर्दयतापूर्ण यंत्रणाएं और विभीषिकाएं उभर
आती हैं जो उन्होंने देखे और झेले हैं। इन सब प्राकृतिक आपदाओं के लिए कौन जिम्मेदार
है? इसके
लिए प्रकृति के बदलते रुख को जिम्मेदार माना जाए या फिर पहाड़ में विकास के नाम
पर हो रहे बांधों और सड़कों के निर्माण को जिम्मेदार ठहराया जाए? जिनको बनाने के लिए पहाड़ों मे विस्फोट किए जा रहे हैं और मलवा नदियों
में समाया जा रहा है। 'हिमालय बचाओ और हिमालय बसाओ' इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि आज हिमालय घायल हो रहा है। 'गांव बचाओ और गांव बसाओ' भी जरूरी है क्योंकि गांव
के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहे हैं। नारों की वास्तविकता जमीन पर उतारने से ही
हम अपनी माटी के प्रति प्रतिबद्धता व कृतज्ञता के भाव को जीवंत एवं साकार कर
पाएंगे।
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