धनधान्य से परिपूर्ण है भिलंगना घाटी
- शशि मोहन रवांल्टा
घुत्तू बाजार का मनोहारी दृश्य
टिहरी जनपद के घुत्तू
भिलंग घाटी के पंवाली-त्रियुगीनारायण मार्ग पर स्थित ऋषिधार गांव बहुत ही रमणीक
है। ऋषिधार गांव का प्राचीन नाम ऋषिद्वार है।पंवाली से त्रियुगी नारायण होते हुए कर्णप्रयाग और उसके बाद बद्री-केदार का परंपरागत मार्ग इसी गांव से होकर
जाता है। ऋषिधार प्राचीन काल में ऋषियों की तपस्थली बाताई जाती है। ऋषिधार यानि धार
के ऊपर ऋषियों की तपस्थली। ऋषिधार गांव वाकई धार के ऊपर है, गांव में मकान भी इसी
स्थिति में हैं और बहुत ही सुंदर, मनमोहक है।
सूर्यप्रकाश सेमवाल जी ने जब अपने गांव के बारे में बताया तो मेरी जिज्ञासा और
भी बढ़ी। उन्होंने बताया कि यहां कभी ऋषियों की तपस्थली थी,
यहां बूढ़ा केदार से होते हुए परम्परागत चार धाम के यात्री पीडब्ल्यूडी की सड़क के रास्ते
मार्ग से जाते हैं। मुख्य बाजार घुत्तू से एक मार्ग देवलिंग—गंगी होते
हुए खतलिंग और सहस्रताल की ओर जाता है तो दूसरा रानीडांग—ऋषिधार—सटियाला—मल्ला गवांणा की सीमा को स्पर्श करता हुआ पंवाली
की ओर जाता है। भिलंगना घाटी से ही पांडवों ने खतलिंग की यात्रा की थी। घुत्तू भिलंग घाटी का यह गांव बहुत ही
प्रसिद्ध है, यहां के शास्त्री, आचार्य और परंपरागत कर्मकांडी पंडित पूरी घाटी में मशहूर हैं। गांव के
वयोवृद्ध आचार्य पंडित नत्थी लाल शास्त्री जी हैं। शास्त्री जी बहुत सरल और मृदुभाषी हैं जो लगभग 80 वर्ष की
आयु के हैं। इनके नाम उत्तराखंड के कई जिलों सहित इस क्षेत्र में भी लगभग 5000 (पांच हजार) भागवत, देवीभागवत, शिवपुराण व अन्य सप्ताह कर्म दर्ज हैं। शास्त्री जी ख्याति प्राप्त और अपनी
शास्त्र विद्या के लिए बहुत ही प्रसिद्ध हैं। शास्त्री जी पहले घुत्तू स्कूल में शिक्षक एवं बाद में आर्मी में धर्म शिक्षक के पद
से सेवानिवृत्त हैं। मेरा सौभाग्य है कि मुझे ऐसे विद्वान मनीषी से मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ।
गांव में इस तरह छत पर सुखाया जाता है धान
घुत्तू भिलंग घाटी बहुत ही सुंदर और आकर्षक है, यहां
का वातावरण एकदम स्वच्छ और जल निर्मल है। भिलंगना नदी भले ही देवलंग बांध बनने के बाद कम दिखाई पड़ती है लेकिन सड़क के साथ—साथ बहती भिलंगना राहगीरों को अनायास आकर्षित करती है। इस क्षेत्र में रास्ते में रानीगढ़ का प्रसिद्ध मंदिर, घुत्तू में प्राचीन श्री रघुनाथ मंदिर, भैरव मंदिर, सकरोड़ा देवी का मंदिर सहित अनेक छोटे—छोटे सिद्धपीठ हैं। इस क्षेत्र का सबसे मान्य और सिद्धपीठ प्राचीन बगुलामुखी पीठ है। जहां बुगीलाधार नामक जगह में 25 से भी अधिक गांवों की मुल्क की देवी जगदी जगदम्बा का भव्य मंदिर है। यहां नवरावत्र के दिन मुझे भी व्यक्तिगत रूप से सिद्धपीठ में मां भगवती की आराधना का सुवअसर मिला।
बुगीला से इस पूरे क्षेत्र का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। एक ओर पोरा का डांडा तो
दूसरी ओर खतलिंग ग्लेशियर, खैट पर्वत और विशोन पर्वत दिखाई पड़ते हैं।
भिलंगना की दो बड़ी सहायक नदियां गवांण गढ़ और चड़ोली गांव के साथ निकलने वाली कनगढ़
नदी भी मोहक लगती है।
धान की खेती के लिए मशहूर है यह सेरा
भिलंगना के गांव धनधान्य से परिपूर्ण है, यहां हर किस्म के
अनाज, दालें और विभिन्न किस्म की सब्जियां गांववालों द्वारा उगाई जाती हैं। गांव
के लोग बहुत ही सहज, सरल और मृदुभाषि हैं। मुझे एक रात इस गांव में रहने का सौभाग्य
प्राप्त है।
यहां के लोगों का पहचान उत्तराखंड के विभिन्न
क्षेत्रों की तरह ही है । अन्य व्यवसायों के साथ यहां कई पूर्व सैनिक हैं।
महिलाएं साड़ी-ब्लॉज,
धोती-कुर्ती व सलवार कमीज पहनती है और सिर पर स्कार्फ, साफा बांधे (सिर अक्सर ढका रहता है) रहती है। पुरुषों का पहनावा पैंट-शर्ट एवं
बुजुर्ग लोग कुर्ता-पायजामा और कोट पहनते हैं।
गांव का मुख्य बाजार घुत्तू भिलंग है। गांव के ज्यादातर लोगों ने घुत्तू
बाजार में अपने मकान बनाए हुए हैं। गांव में युवा आबादी न के बराबर है, क्योंकि
यहां के युवा अपने बेहतर भविष्य, पढ़ाई-लिखाई और रोजगार के लिए गांव के पलायन कर
चुके हैं। इनके बच्चे ज्यादातर हरिद्वार और ऋषिकेश में हैं। यह गांव भी पलायन का
दंश झेल रहा है। घुत्तू बाजार आसपास के 35 से 40 गांवों का मुख्य बाजार है। घुत्तू
इंटर कॉलेज इन सभी गांवों का एक मात्र शिक्षा का केन्द्र है। यहां इटर कॉलेज में
छात्रों की संख्या 1000 से भी ज्यादा है। गांव के लोगों का कारोबार इसी बाजार से
चलता है और दैनिक रोजमर्रा की चीजें भी इसी बाजार से उपलब्ध होती हैं। टिहरी जनपद
का अंतिम सीमांत गांव गंगी है। गंगी गांव के बच्चे भी अपनी पढ़ाई के लिए यहां आते
हैं। घुत्तू से गंगी गांव लगभग 25 किमी की दूरी पर है।
इस क्षेत्र के गांवों में पानी की कमी नहीं, और मेरा मानना है कि जिस गांव
में पानी की कमी ना और वहां के लोग मेहनती हों तो वहां की धरती सोना उगल सकती है। गांव का मुख्य व्यवसाय कृषि और पशुपालन है। पूरे उत्तराखंड की तरह यहां भी
महिलाएं ही सारा काम करती हैं, जो सुबह से शाम तक काम में व्यस्त रहती हैं। गांव
के मर्द अक्सर बाजारों में देखे जा सकत हैं।
कुछ इस तरह काम करती है पहाड़ की महिलाए: अपनी पीठ पर गोबर ले जाती ऋषिधार की महिलाएं
गांव से जब आप नीचे घुत्तू बाजर के लिए ऋषिधार से उतरते हैं तो गांव के चारों
ओर नजर दौड़ाने पर सुंदर और खेत मानों आपको अपनी ओर आकर्षित कर रहे हों। खेतों की आकृति में यहां का धान का सबसे बड़ा पट्टा 'बित्ती का सेरा' सबसे बड़ा धान का उत्पादक माना जाता है। इन खेतों में अनाज, गेहूं, जौ, तिल, और विभिन्न प्रकार की दालें पर्याप्त
मात्रा में पैदा होती हैं। यहां की खेती बहुत ही उपजाऊ है, लेकिन खेती आज भी
परंपरागत और पुराने ढंग से ही होती है। यदि इस क्षेत्र के लोग रवांई घाटी के लोगों
की तरह नकदी फसलों जैसे टमाटर, मटर, आलू, प्याज, अदरक की खेती करना शुरू कर दें
तो यह क्षेत्र रवांई घाटी की तर्ज पर उत्तराखंड ही नहीं बल्कि पूरे भारत में एक
अपनी एक विशिष्ट पहचान बना सकता है, क्योंकि इस क्षेत्र में पानी पर्याप्त
मात्रा में उपलब्ध है और यहां सिंचाई वाली खेती पहली से ही होती आ रही है बस
जरूरत है तो आधुनिकीकरण की।
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. हेमचन्द्र सकलानी, आचार्य पं. नत्थी लाल शास्त्री एवं शशि मोहन रवांल्टा
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