Saturday, November 10, 2012
Monday, October 1, 2012
कार्यशाला में बच्चों को दी विज्ञान की जानकारी
नौगांव (उत्तरकाशी)। स्कूली बच्चों में विज्ञान के प्रति रुचि पैदा करने के उद्देश्य से कार्यशाला आयोजित की गई। जिसमें बच्चों को अनुभव के आधार पर विज्ञान के रहस्यों की जानकारी दी गई।
सामाजिक एवं पर्यावरण कल्याण समिति तथा प्रथम एजूकेशन फाउंडेशन की ओर से यमुना वैली पब्लिक स्कूल में चार दिवसीय बाल विज्ञान कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस मौके पर विषय विशेषज्ञों ने किताबों में पढ़ाए जाने वाले विज्ञान को प्रयोग के माध्यम से बच्चों के सामने प्रस्तुत किया। उन्हाेंने प्रकृति अन्वेषण, हवा के गुण, चुंबक और चुंबकत्व तथा सूक्ष्मजीवियों की दुनिया के बारे में बताया। कार्यक्रम के संयोजक आशुतोष उपाध्याय ने बताया कि विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से यह कार्यक्रम चलाया जा रहा है। सेवा संस्था के सचिव शशिमोहन रावत ने भी महत्वपूर्ण जानकारियां दीं। कार्यशाला में प्रखंड के दस विद्यालयों के 90 छात्र-छात्राओं ने प्रतिभाग किया। समापन मौके पर अच्छा प्रदर्शन करने वाले बच्चों को प्रमाणपत्र वितरित किए गए।
सामाजिक एवं पर्यावरण कल्याण समिति तथा प्रथम एजूकेशन फाउंडेशन की ओर से यमुना वैली पब्लिक स्कूल में चार दिवसीय बाल विज्ञान कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस मौके पर विषय विशेषज्ञों ने किताबों में पढ़ाए जाने वाले विज्ञान को प्रयोग के माध्यम से बच्चों के सामने प्रस्तुत किया। उन्हाेंने प्रकृति अन्वेषण, हवा के गुण, चुंबक और चुंबकत्व तथा सूक्ष्मजीवियों की दुनिया के बारे में बताया। कार्यक्रम के संयोजक आशुतोष उपाध्याय ने बताया कि विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से यह कार्यक्रम चलाया जा रहा है। सेवा संस्था के सचिव शशिमोहन रावत ने भी महत्वपूर्ण जानकारियां दीं। कार्यशाला में प्रखंड के दस विद्यालयों के 90 छात्र-छात्राओं ने प्रतिभाग किया। समापन मौके पर अच्छा प्रदर्शन करने वाले बच्चों को प्रमाणपत्र वितरित किए गए।
साभार : अमर उजाला
http://www.amarujala.com/city/Uttar_Kashi/Uttar_Kashi-50277-17.html
Thursday, August 2, 2012
हरियाली दिवस पर 'सेवा' ने सौ पौधे रोपे
बड़कोट/नौगांव। सामाजिक एवं पर्यावरणीय कल्याण समिति (सेवा) और वन
पंचायत भाटिया के संयुक्त तत्वावधान में अमर शहीद श्रीदेव सुमन की
पुण्यतिथि हरियाली दिवस के अवसर पर वृहद् पौधारोपण किया गया। इस अवसर पर
सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए गए। सभी लोगों ने श्रीदेव सुमन के
पदचिन्हों पर चलने का संकल्प लिया। कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि
उपजिलाधिकारी बड़कोट परमानन्द राम मौजूद रहे।
पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत ग्राम पंचायत भाटिया में सेवा संस्था तथा वन पंचायत ने मिलकर गांव के 'तरका' तोक में बांज, सिल्वर ओक, अगरंडा, कचनार, अंगू के सौ पौधे रोपे और हरियाली दिवस को भव्य तरीके से मनाने का संकल्प लेते हुए गांव को हरा-भरा बनाने की शपथ ली। मुख्य अतिथि उपजिलाधिकारी श्री राम ने कहा कि पर्यावरण के प्रति ग्रामीणों को जागरूक किया जाना एक अच्छी पहल है और सभी को संस्था के साथ मिलकर गांव को हरा-भरा बनाना चाहिए। उन्होंने कहा कि पर्यावरण को बचाना है तो अधिक से अधिक पौधे लगाए जाने चाहिए।
मुगरसन्ती रेंज के रेंज अधिकारी नीलम दास ने कहा कि आज जो सौ पौधे लगाये गये, उनकी सुरक्षा के लिए ग्रामीणों को आगे आना होगा तथा वनों की सुरक्षा में सभी को सहयोग करना चाहिए। उन्होंने कहा कि इस वर्ष वनों में भीषण आग से विभिन्न प्रजातियों के अनेकों पौधे नष्ट हुए। आग की विभीषिका से वनों को बचाने के लिए ग्रामीणों को न सिर्फ वन कर्मियों की ओर ताकना चाहिए, बल्कि स्वयं आगे आकर वनों की आग को बुझाना चाहिए।
वन पंचायत सरपंच यशवन्त सिंह रावत ने कहा कि सेवा संस्था के साथ वन पंचायत ने गांव को हरा-भरा बनाने का जो बीड़ा उठाया है, उसे हम इन पौधों की रक्षा कर पूरा करेंगे।
संस्था के सचिव शशिमोहन रावत ने श्रीदेव सुमन की पुण्यतिथि पर आयोजित हरियाली दिवस पर पौधारोपण करने वालों और सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले बच्चों व उनके शिक्षकों का आभार जताया। श्री रावत ने क्षेत्र को हरा भरा करने का आहवान करते हुए कहा कि यदि हमें अपना पर्यावरण बचाना है, तो इसके लिए हर व्यक्ति को पौधारोपण पर जोर देना होगा। उन्होंने कहा कि सेवा संस्था पर्यावरण शिक्षा के क्षेत्र में निरन्तर कार्य कर रही है। संस्था रवाईं घाटी में कंप्यूटर के क्षेत्र में क्रांति लाना चाहती है और इस दिशा में संस्था कार्य भी कर रही है।
श्री रावत ने कहा कि शिक्षा और पर्यावरण का पारस्परिक संबंध है। बिना जागरूकता के पर्यावरण को नहीं बचाया जा सकता। इसके लिए गांव-गांव व हर गांववासी को अपनी जिम्मेदारी का उचित निर्वहन करना होगा, तभी हम लोग पर्यावरण के सच्चे प्रहरी बन सकेंगे। उन्होंने कहा कि संस्था शीघ्र ही विज्ञान पर आधारित बच्चों की चार दिवसीय कार्यशाला आयोजित करने जा रही है।
इस अवसर पर राजकीय जूनियर हाईस्कूल के छात्रों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए। इन छात्रों ने पर्यावरण जागरूकता पर आधारित गीतों से दर्शकों का मन मोहा। बच्चों ने 'यूं डाईयों न काट', न काट मेरी मधुलि बांदा' आदि गीतों के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण का संदेश दिया।
इस मौके पर संस्था की कोषाध्यक्ष श्रीमती सीमा रावत, ग्राम प्रधान श्रीमती प्रतिमा देवी, गांव के गणमान्य व्यक्ति टीकाराम सिंह रावत, केन्द्र सिंह राणा, रूकम सिंह रमोला, देवेन्द्र सिंह रावत, गजेन्द्र सिंह रावत, सुरेश राणा, पन्ना लाल, दिनेश लाल, सज्जन लाल, नरेश लाल, आनंद राणा, कृष्णदेव रावत आदि उपस्थित थे।
इसके अलावा वन दारोगा वीरेन्द्र दत्त गौड़, केशवानन्द डिमरी, वीट अधिकारी यशपाल सिंह सज्वाण, रा0उ0प्रा0वि0 भाटिया के प्रधानाध्यापक रामपाल सिंह, सहायक अध्यापक सुभाष शाह, रा0प्रा0वि0 की प्रधानाध्यापिका श्रीमती विनोद जैन सहित सैकड़ों ग्रामीण कार्यक्रम में मौजूद थे। कार्यक्रम का संचालन सोबेन्द्र सिंह रावत ने किया।
Monday, June 11, 2012
होता खूबसूरत इतना ये प्यार अगर
चले वो कदम-कदम साथ मेंरे,
तो उनके साथ से प्यार हो जाए।
थामें जो प्यार से हाथ मेरा,
तो अपने हाथ से प्यार हो जाए।
जब भी आएं ख्वाब में वो, तो
उस हसीन ख्वाब से प्यार हो जाए।
जिस बात में आए जिक्र उनका,
उस बात से प्यार हो जाए।
जब पुकारो प्यार से तुम नाम मेरा,
तो अपने नाम से प्यार हो जाए।
होता खूबसूरत इतना ये प्यार अगर,
तो काश
तुमको भी मेरे प्यार से प्यार हो जाए।
- शशि
तो उनके साथ से प्यार हो जाए।
थामें जो प्यार से हाथ मेरा,
तो अपने हाथ से प्यार हो जाए।
जब भी आएं ख्वाब में वो, तो
उस हसीन ख्वाब से प्यार हो जाए।
जिस बात में आए जिक्र उनका,
उस बात से प्यार हो जाए।
जब पुकारो प्यार से तुम नाम मेरा,
तो अपने नाम से प्यार हो जाए।
होता खूबसूरत इतना ये प्यार अगर,
तो काश
तुमको भी मेरे प्यार से प्यार हो जाए।
- शशि
Monday, May 21, 2012
मेरे दुःख की कोई दवा ना करो
मेरे दुःख की कोई दवा ना करो
मुझको मुझ से अभी जुदा ना करो
नाखुदा को खुदा कहा है तो फिर
डूब जाओ, खुदा खुदा ना करो
ये सिखाया है दोस्ती ने हमें
दोस्त बनाकर कभी वफ़ा ना करो
इश्क है इश्क, ये मज़ाक नहीं
चंद लम्हों में फैसला ना करो
आशिकी हो या बंदगी 'फाकिर'
बे-दिल्ली से तो इबतिदा ना करो
Saturday, February 18, 2012
`बाहर´ से आने वालों का सच
कुमाऊं के श्रेष्ठियों में खुद को राजवंशों से जोड़ने का शगल बड़ा पुराना है। किसी पंडित जी से उनकी रागभाग पूछो तो तत्काल बताएंगे कि हम फलां राजपुरोहितों के वंशज है और हमारे पुरखे उत्तर प्रदेश, महराष्ट्र, बंगाल या राजस्थान आदि से यहां आकर बस गए थे। ठाकुर साहबान भी महाराणा प्रताप से अपनी वंशावली जोड़ने में देर नहीं लगाते। खास तौर पर देस-परदेस में रहने वाले श्रेष्ठियों को ऐसी बातों में बड़ा मन लगता है। ऊंची शिक्षा और अच्छी पोजीशन वाले पहाड़ी इन बातों को खूब तवज्जो देते हैं। श्रेष्ठियों के बड़े-बूढ़ों ने कभी अपने `बाहरी´ मूल का होने की यह कहानी गढ़ी होगी। जिसे समय-समय पर अनपढ़ इतिहासकारों ने श्रद्धा-भक्ति के साथ स्वर्णाक्षरों में आगे बढ़ाया और यह अब यह धारणा इतनी रूढ़ हो चली है कि आम पर्वतवासी इसे अपनी विरासत मानकर अगली पीढ़ियों को सौंपते हैं।
कुछ वर्ष पहले हमने इस `ऐतिहासिक´ कहानी के सूत्रों को तलाशने की कोशिश की। कुमाऊं के श्रेष्ठियों की बाहरी मूल की अवधारणा को सबसे व्यवस्थित ढंग से पं बद्री दत्त पाण्डे ने अपनी पुस्तक `कुमाऊं का इतिहास´ में लिखा है। यह पुस्तक उन्होंने जेल में रहते लिखी थी। यह भी ध्यान देने लायक तथ्य है कि पाण्डे जी इतिहासकार नहीं थे और इस बात को उन्होंने अपनी भूमिका में विनम्रतापूर्वक स्वीकार भी किया है। बावजूद इसके उन्होंने पुस्तक को इतिहास शीर्षक दिया, यह बात हैरान करने वाली है। पुस्तक के माध्यम से उन्होंने विभिन्न जातियों को उनके `मूल´ के आधार पर श्रेणीबद्ध करने का भी प्रयास किया है। उन्होंने बताया है कि कुमाऊं की कौन सी जाति कहां से आई और कितनी श्रेष्ठ है। मजेदार बात यह है कि उन्होंने यह कहीं नहीं बताया कि ऐसा उन्होंने किन साक्ष्यों के आधार पर कहा। पाण्डे जी ने तो अपने संदर्भों का कहीं जिक्र नहीं किया लेकिन यहां हम बताते हैं कि उन्होंने यह `बाहरी मूल´ की थ्योरी कहां से मारी। कुमाऊं की श्रेष्ठ जातियों के बाहरी होने संबंधी धारणा का जिक्र सबसे पहले अंग्रेज गजटकार एटकिंसन ने किया था। उन्होंने अपने प्रसिद्ध गजेटियर में लिखा है कि कुमाऊं की कतिपय ऊपरी जातियां खुद को बाहर से आया हुआ बताती हैं। लेकिन एटकिंसन को इस धारणा पर विश्वास नहीं हुआ, इसलिए उन्होंने साथ में यह भी जोड़ा है कि भाषा-बोली, रहन-रहन और दूसरी सांस्कृतिक मान्यताओं को देखते हुए इस पर सहसा विश्वास नहीं होता।
उत्तराखण्ड में उपलब्ध कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य (प्राचीन शिलालेख, दानपात्र, ताम्रपत्र, बही आदि) किसी काल विशेष में यहां बाहरी लोगों (पड़ोसी नेपाल के अलावा) के आ बसने की पुष्टि नहीं करता। यदि ऐसा कोई साक्ष्य किसी सज्जन की नजर से गुजरा हो तो कृपया ज्ञानवर्धन करें।
आप खुद भी सोचिए, जो लोग खुद को महाराष्ट्र या किसी अन्य राज्य के राजा या राजपुरोहित का वंशज बताते हैं, अपने रीति-रिवाजों, पूजा पद्धतियों और भाषा बोली में स्थानीय संस्कृति का अनुसरण क्यों करते है? वे शासक थे। उनके लिए पिछड़े खसों की संस्कृति को अपनाने की कोई मजबूरी भी नहीं थी। उन्होंने अपनी श्रेष्ठ संस्कृति को बचा कर क्यों नहीं रखा? क्यों कमतर जातियों की भाषा-बोली को अपनाया और उनके देवी-देवताओं और भूत-प्रेतों को अपना अराध्य मान पूजना शुरू किया?
उत्तराखण्ड का अतीत हमेशा पिछड़ा नहीं रहा। खास तौर पर कत्यूरी काल स्थापत्य और अन्य विधाओं में अपेक्षाकृत उन्नत रहा है। लगभग इसी दौर से यहां के लोग धातुशोधन सीख चुके थे। प्रख्यात पुरातत्वविद प्रो दी पी अग्रवाल के अनुसार इस जमाने में गंगा-यमुना के मैदान को लोहा और तांबा उत्तराखंड से ही जाता था। पहाड़ के लोग दूसरी शताब्दी से जलशक्ति का इस्तेमाल करना जाते थे। आज घराट (पनचक्की) हमें तकनीकी दृष्टि से जरूर मामूली लग सकती है, लेकिन दूसरी शताब्दी के हिसाब से यह एक बड़ी तकनीकी उपलब्धि कही जाएगी। कत्यूरी काल के मंदिर स्थापत्य के लिहाज से परवर्ती चंदकाल से कहीं उन्नत है। यह दौर शानदार काष्ठकला का भी है। यदि हमारी सभी श्रेष्ठ जातियां बाहर से आई तो ज्ञान-विज्ञान की इस समृद्ध विरासत का सबंध किनसे है?
`बाहरी´ धारणा का खोखलापन उस वक्त पूरी तरह उजागर हो जाता है, जब इसके अनुयायियों से उनकी वंशावलियों का ब्यौरा मांगा जाता है। लोग कहते हैं कि उनके पुरखे मुगलों के अत्याचार (खासतौर पर औरंगजेब के) से बचने के लिए पहाड़ों की ओर आ गए। लेकिन भारत के लिखित इतिहास में ऐसा जिक्र कहीं नहीं मिलता। मजेदार तथ्य यह भी है कि औरंगजेब अपेक्षाकृत नए शासक थे। उनका शासनकाल 1658-1707 है। अब इस काल से बाहर से आने वालों की वंशावलियों का गणित मिलाइए, सारी हकीकत सामने आ जाएगी (इतिहास में एक पीढ़ी को लगभग 20-25 वर्ष माना जाता है)।
नोट: कुमाऊं के इतिहास का यह विमर्श गढ़वाल के श्रेष्ठियों पर भी शब्दश: लागू होता है। वहां बद्री दत्त पाण्डे की भूमिका निभाते हुए पं हरिकृष्ण रतूड़ी ने 1928 में `गढ़वाल का इतिहास´ लिख डाला।
साभार : क्वीड़-काटनी
http://kweed-kaatni.blogspot.in/
कुछ वर्ष पहले हमने इस `ऐतिहासिक´ कहानी के सूत्रों को तलाशने की कोशिश की। कुमाऊं के श्रेष्ठियों की बाहरी मूल की अवधारणा को सबसे व्यवस्थित ढंग से पं बद्री दत्त पाण्डे ने अपनी पुस्तक `कुमाऊं का इतिहास´ में लिखा है। यह पुस्तक उन्होंने जेल में रहते लिखी थी। यह भी ध्यान देने लायक तथ्य है कि पाण्डे जी इतिहासकार नहीं थे और इस बात को उन्होंने अपनी भूमिका में विनम्रतापूर्वक स्वीकार भी किया है। बावजूद इसके उन्होंने पुस्तक को इतिहास शीर्षक दिया, यह बात हैरान करने वाली है। पुस्तक के माध्यम से उन्होंने विभिन्न जातियों को उनके `मूल´ के आधार पर श्रेणीबद्ध करने का भी प्रयास किया है। उन्होंने बताया है कि कुमाऊं की कौन सी जाति कहां से आई और कितनी श्रेष्ठ है। मजेदार बात यह है कि उन्होंने यह कहीं नहीं बताया कि ऐसा उन्होंने किन साक्ष्यों के आधार पर कहा। पाण्डे जी ने तो अपने संदर्भों का कहीं जिक्र नहीं किया लेकिन यहां हम बताते हैं कि उन्होंने यह `बाहरी मूल´ की थ्योरी कहां से मारी। कुमाऊं की श्रेष्ठ जातियों के बाहरी होने संबंधी धारणा का जिक्र सबसे पहले अंग्रेज गजटकार एटकिंसन ने किया था। उन्होंने अपने प्रसिद्ध गजेटियर में लिखा है कि कुमाऊं की कतिपय ऊपरी जातियां खुद को बाहर से आया हुआ बताती हैं। लेकिन एटकिंसन को इस धारणा पर विश्वास नहीं हुआ, इसलिए उन्होंने साथ में यह भी जोड़ा है कि भाषा-बोली, रहन-रहन और दूसरी सांस्कृतिक मान्यताओं को देखते हुए इस पर सहसा विश्वास नहीं होता।
उत्तराखण्ड में उपलब्ध कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य (प्राचीन शिलालेख, दानपात्र, ताम्रपत्र, बही आदि) किसी काल विशेष में यहां बाहरी लोगों (पड़ोसी नेपाल के अलावा) के आ बसने की पुष्टि नहीं करता। यदि ऐसा कोई साक्ष्य किसी सज्जन की नजर से गुजरा हो तो कृपया ज्ञानवर्धन करें।
आप खुद भी सोचिए, जो लोग खुद को महाराष्ट्र या किसी अन्य राज्य के राजा या राजपुरोहित का वंशज बताते हैं, अपने रीति-रिवाजों, पूजा पद्धतियों और भाषा बोली में स्थानीय संस्कृति का अनुसरण क्यों करते है? वे शासक थे। उनके लिए पिछड़े खसों की संस्कृति को अपनाने की कोई मजबूरी भी नहीं थी। उन्होंने अपनी श्रेष्ठ संस्कृति को बचा कर क्यों नहीं रखा? क्यों कमतर जातियों की भाषा-बोली को अपनाया और उनके देवी-देवताओं और भूत-प्रेतों को अपना अराध्य मान पूजना शुरू किया?
उत्तराखण्ड का अतीत हमेशा पिछड़ा नहीं रहा। खास तौर पर कत्यूरी काल स्थापत्य और अन्य विधाओं में अपेक्षाकृत उन्नत रहा है। लगभग इसी दौर से यहां के लोग धातुशोधन सीख चुके थे। प्रख्यात पुरातत्वविद प्रो दी पी अग्रवाल के अनुसार इस जमाने में गंगा-यमुना के मैदान को लोहा और तांबा उत्तराखंड से ही जाता था। पहाड़ के लोग दूसरी शताब्दी से जलशक्ति का इस्तेमाल करना जाते थे। आज घराट (पनचक्की) हमें तकनीकी दृष्टि से जरूर मामूली लग सकती है, लेकिन दूसरी शताब्दी के हिसाब से यह एक बड़ी तकनीकी उपलब्धि कही जाएगी। कत्यूरी काल के मंदिर स्थापत्य के लिहाज से परवर्ती चंदकाल से कहीं उन्नत है। यह दौर शानदार काष्ठकला का भी है। यदि हमारी सभी श्रेष्ठ जातियां बाहर से आई तो ज्ञान-विज्ञान की इस समृद्ध विरासत का सबंध किनसे है?
`बाहरी´ धारणा का खोखलापन उस वक्त पूरी तरह उजागर हो जाता है, जब इसके अनुयायियों से उनकी वंशावलियों का ब्यौरा मांगा जाता है। लोग कहते हैं कि उनके पुरखे मुगलों के अत्याचार (खासतौर पर औरंगजेब के) से बचने के लिए पहाड़ों की ओर आ गए। लेकिन भारत के लिखित इतिहास में ऐसा जिक्र कहीं नहीं मिलता। मजेदार तथ्य यह भी है कि औरंगजेब अपेक्षाकृत नए शासक थे। उनका शासनकाल 1658-1707 है। अब इस काल से बाहर से आने वालों की वंशावलियों का गणित मिलाइए, सारी हकीकत सामने आ जाएगी (इतिहास में एक पीढ़ी को लगभग 20-25 वर्ष माना जाता है)।
नोट: कुमाऊं के इतिहास का यह विमर्श गढ़वाल के श्रेष्ठियों पर भी शब्दश: लागू होता है। वहां बद्री दत्त पाण्डे की भूमिका निभाते हुए पं हरिकृष्ण रतूड़ी ने 1928 में `गढ़वाल का इतिहास´ लिख डाला।
साभार : क्वीड़-काटनी
http://kweed-kaatni.blogspot.in/
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