Friday, October 23, 2009

गांव की आछरी

जब हम जवां होंगे, जाने कहां होंगे, बचपन के दिन भी क्‍या दिन थे. इन पंक्तियों से यही धुन आती है कि पुरानी यादों को सहेजना है, भूलना है, याद रखना है, वगरैह-वगरैह.
हर किसी के जीवन में कुछ किस्‍से और कहानियां होती हैं. जब हम छोटे होते हैं तो किस तरह हमारे माता-पिता हमें समझाते-बुझाते हैं, हमारे लिए परेशान रहते हैं. ये हमारे बड़े होने पर वो हमें अक्‍सर याद दिलाया करते हैं कि तूने बचपन में ऐसा किया, वैसा किया आदि- आदि.
जहां तक मेरे बचपन का सवाल है. मैं काफी शरारती था. मां कहती है कि मैंने बचपन में बहुत तंग किया था. मैं बहुत जिद्दी हुआ करता था. किसी बात की जिद कर लेता, तब तक अपनी जिद पर अड़ा रहता था जब तक मेरी मांग पूरी नहीं होती थी.
शायद आप लोगों में कई लोग ऐसे रहे होंगे. आज आप शायद इसे स्‍वीकारने में झिझक महसूस करें लेकिन यह सच है. कोई भी अपने बचपन की सारी घटनाएं अगर साल-दर-साल कागज पर उकेर दे तो शायद एक उपन्‍यास बन जाए. लेकिन आप घबराएं नहीं, मैं यहां कोई उपन्‍यास नहीं लिख रहा हूं. बस आपको एक सत्‍य घटना बताने जा रहा हूं. आप लोग शायद इस पर विश्‍वास न करें, लेकिन जो लोग गांवों से जुड़े हुए हैं, खासकर पहाड़ों से उन्‍हें इस बात का एहसास होगा कि यह सच है.
बात उस समय की है जब मैं छठी सातवीं में पढ़ा करता था. सुबह का स्‍कूल हुआ करता था. सुबह सात बजे से दोपहर 12-1 बजे तक. स्‍कूल से लौटने के बाद हम लोग जब घर आते थे तो खाना खाने के बाद पशुओं को चराने के लिए जंगलों में जाया करते थे और सूरज ढलते ही घरों की ओर लौट आते थे.
जंगल जाने से पहले मां-बाप ढेर सारे उपदेश देते थे. जैसे बेटा जंगल में कहीं इधर-उधर भटक मत जाना. सोना नहीं, कहीं पता चला कि तुम सो गए और पशु किसी के खेत में चले गए और लोग उन्‍हें सिंगुड़ी ले जाएं. (सिंगुड़ी उसे कहते हैं जब पशु किसी का नुकसान करते हैं, तो जिसका नुकसान हुआ हो वह पशुओं को अपने घर ले जाता है और आर्थिक दंड देने के बाद ही उन्‍हें अपने कब्‍जे से मुक्‍त करता है.)
बेटा सोना मत, कहीं आछरी, मातरी ले गई तो जान से ही हाथ धोना पड़ेगा. (आछरी या मातरी उसे कहते हैं जिसे शहरी भाषा में परी कहा जाता है.)
रोजाना की तरह ही एक दिन हम लोग जंगल में गए थे. उस दिन गांव की ही एक लड़की हमारे साथ जंगल में पशुओं को चुंगाने आई थी. शायद वह इससे भी पहले जंगल गई हो, लेकिन मेरे साथ उस दिन पहली बार आई थी. उस दिन हम लोग रोज की तरह ही खेल रहे थे कि खेल ही खेल में वह जोर जोर से चीखने-चिल्‍लाने लगी.
हम लोगों को लगा जैसे ऐसे ही चिल्‍ला रही है. लेकिन चुप कराने पर भी जब वह चुप नहीं हुई तो सब लोग घबरा गए कि आखिर अचानक ऐसा क्‍या हो गया जो जो चीखने-चिल्‍लाने लगी.
डर के मारे सबकी हालत पतली हो रही थी. इसी बीच एक घटना अचानक और घट गई वह घर आने के बजाय जंगल की ओर जाने लगी. अब किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर क्‍या किया जाए. सबने थोड़ी-थोड़ी हिम्‍मत जुटाई और उसे पकड़ने लगे, जैसे ही उसके करीब गए तो उसने अपनी आंखें घुमाई और बाल बिखरा दिए. हूं... आओ देखती हूं कौन मुझे रोकता है.
वह फिर दहाड़ी. हूं.... हूस्‍स उसको चेहरा देखने लायक था.
अब सबकी हवा निकल गई. कि आखिर करें तो क्‍या करें. वह आगे बढ़ती ही जा रही थी और हम लोग उसके पीछे-पीछे जा रहे थे. लेकिन किसी की हिम्‍मत नहीं हो रही थी कि उसे पकड़ ले.
एक बार हम सबने हिम्‍मत जुटाई और उसे घसीटते हुए थोड़ा नीचे ले आए. बस हमारा इतना ही करना था कि वह और भी आग बबूला हो गई.
जोर- जोर से चीखने लगी, हूं... हूं... हूं.... shhhhh. किसी को नहीं छोडूंगी, सब के सब मारे जाओगे. आज देखती हूं तुम्‍हें कौन बचाता है. फिर वही हूं... हूं... हूं.... shhhhh.
इस बीच अचानक न जाने मुझे क्‍या हुआ. मैं जोर से चिल्‍लाया. और मैंने उसके बाल खींचें और एक-दो जोरदार थप्‍पड़ उसके गाल पर जड़ दिए. उसके बाद से अचानक एकदम स्थिति ठीक हो गई.
वह सामान्‍य हो गई और हम सब लोग घर की ओर चल पड़े.
घर आने जब पूरी बात मां को बताई, तो मां ने भगवान का लाख-लाख शुक्रिया अदा किया.
हे भगवान तूने मेरे बच्‍चे को सही सलामत घर पहुंचा दिया. हे कुल देवता ये सब तेरी कृपा है जो मेरे बच्‍चे सही सलामत घर लौट आए, ना जाने वो हरामजादी क्‍या-क्‍या करती मेरे बच्‍चों के साथ.
मैंने मां से पूछा तो मां ने बताया कि वह मातरी थी और तुम्‍हें अपने वश में करके वह पहाड़ पर ले जाती और वहां निचे गिरा देती या तुम लोगों के साथ कुछ भी कर सकती थी.
अब मैं और भी डर गया.मैंने पूछा, मां लेकिन मैं भी तो चिल्‍लाया था और उसको एक-दो थप्‍पड़ मारे थे.
मां बोली, वह हमारे कुल देवता तेरी सहायता के लिए आए थे. ये सब उनकी कृपा थी. इतने में मेरी आंखों से आंसू टपक पड़े.
शायद मां समझ गई कि मैं डर गया हूं.
मां बोली, चल कुछ खा ले तुझे भूख लगी होगी.
मैंने कहा, मां लेकिन...मां बोली, लेकिन-वेकिन कुछ नहीं पहले कुछ खा ले फिर...मां, फिर... कुछ नहीं बोली न कुछ नहीं.... कुछ खा ले और मैं खाने के लिए रसाईघर में चल दिया.
उसके बाद मैंने खाना खाया और सब सामान्‍य हो गया.
तीन दिन बाद फिर पता लगा कि गांव में किसी महिला की तबियत अचान खराब हो गई. सुना कि वह खेत से घर लौट रही थी और घर पर आते ही लुंज-मुंज (अचेत अवस्‍था में) हो गई.
गांव के सारे लोग इकट्ठा हो गए. देवता को बुलाया गया. देवता का धामी आया और झूलने लगा, उसने बताया कि यह तो तीन दिन पहले ही गांव में प्रवेश कर गई है. इसे गांव से भगाया जाए. सबने देवता से आग्रह किया कि आप ही कुछ करें.
देवता ने चावल फेंके और कुछ देर बाद वह महिला ठीक हो गई. इतने में मैं भी पहुंच गया. जैसे कि गांव में अक्‍सर होता है कि किसी के घर में यदि कुछ हो जाए तो सारे लोग एकट्ठे हो जाते हैं. मैं पहुंचा तो गांव के ही एक बुजुर्ग आदमी से मैंने पूछा, चाचा क्‍या हुआ?
फिर उन्‍होंने विस्‍तार से बताया-
यह लड़की फलां गांव की है, यह जवान लड़की थी और अल्‍पायु में मर गई, इसके घर वालों ने इसका क्रियाकर्म किया या नहीं, भगवान जाने. अब यह सबको परेशान कर रही है.
अब यह दर-दर भटक रही है और लोगों को परेशान कर रही है. मैंने कहा, चाचा लेकिन, ऐसा क्‍यों?
इस पर चाचा हसंते हुए बोले, बेटा अभी तुम छोटे हो, जब बड़े हो जाओगे तो अपने आप समझ में आ जाएगा ये सब क्‍या होता है.
जारी...

रावत शशि मोहन पहाड़ी

Tuesday, October 6, 2009

काँच की बरनी और दो कप चाय - एक बोध कथा

जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी-जल्दी करने की इच्छा होती है, सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं, उस समय ये बोध कथा , "काँच की बरनी और दो कप चाय" हमें याद आती है ।दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं...उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी (जार) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ... आवाज आई...फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये, धीरे-धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये, फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्या अब बरनी भर गई है, छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ... कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया, वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई, अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ॥ अब तो पूरी भर गई है.. सभी ने एक स्वर में कहा..सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली, चाय भी रेत के बीच में स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई...प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया - इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो... टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान, परिवार, बच्चे, मित्र, स्वास्थ्य और शौक हैं, छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी, कार, बडा़ मकान आदि हैं, और रेत का मतलब और भी छोटी-छोटी बेकार सी बातें, मनमुटाव, झगडे़ है...अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते, रेत जरूर आ सकती थी...ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है...यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो, बगीचे में पानी डालो , सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ, घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको, मेडिकल चेक- अप करवाओ..टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो, वही महत्वपूर्ण है... पहले तय करो कि क्या जरूरी है.... बाकी सब तो रेत है..छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे.. अचानक एक ने पूछा, सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि "चाय के दो कप" क्या हैं ?प्रोफ़ेसर मुस्कुराये, बोले.. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया... इसका उत्तर यह है कि, जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये । अपने खास मित्रों और निकट के व्यक्तियों को यह विचार तत्काल बाँट दो..मैंने अभी-अभी यही किया है.. :)
यह बोध कथा मेरे मित्र महेंद्र सिंह बोरा ने मुझे मेल की। मुझे लगा की इसे अपने और मित्रों तक भी पहुँचाया जाय। इसीलिए ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ।

Friday, July 17, 2009

बाल मजदूरी या मजबूरी! फिर क्‍या हो?

बाल मजदूरी को लेकर आए दिन अखबारों में खबरें पढ़ने को मिलती हैं. आए दिन कई गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) ये दावे करते हैं कि हमने इतने बच्‍चे मुक्‍त कराए. लेकिन क्‍या कभी आपको यह सुनने या पढ़ने को मिला है कि जिन बाल मजदूरों को मुक्‍त कराया बाद में उनका क्‍या हुआ? अगर बाल सुधार ग़ृह भेजे गए तो क्‍या वहां भेजे जाने के बाद उनके जीवन में कोई सुधार आया? शायद नहीं, क्‍योंकि यह एक कड़वा सच है कि जिन बच्‍चों को एनजीओ मुक्‍त कराते हैं, वे एनजीओ पुलिस बुलाने और थाने में मीडिया के सामने बच्‍चों के बीच फोटो खिंचवाने के बाद बच्‍चों के रहन-सहन और खान-पान व दुख-दर्द की सारी जिम्‍मेदारी पुलिस को सौंपकर चलते बनते हैं अपने एसी कार्यालयों में ऐसे ही अन्‍य बाल मजदूरों का 'उद्धार' करने की योजना बनाने.
एनजीओ की इन कारनामों के बाद बच्‍चों पर दोहरी मार पड़ती है. न तो उनके पास काम रहता है, न ही कोई ठिकाना. पेट भरने का साधन तो पहले ही छिन चुका होता है. उनकी इस दशा के समय तब कोई एनजीओ सामने नहीं आती. वे एक बार फिर उसी जगह पहुंच जाते हैं जहां से उन्‍होंने अपनी जिंदगी का कांटोंभरा सफर शुरू किया होता है.
देश का भविष्‍य कहे जाने वाले ये बच्‍चे देश के दूसरे राज्‍यों से अपने और अपने परिवार का पेट भरने, छोटा-मोटा काम सीखने की ललक लेकर दिल्‍ली जैसे महानगरों में आते हैं. काम मिलता है, काम सीखते हैं और पेट भी भरते हैं. सभी ठी‍क-ठाक चल रहा होता है कि तभी सिर्फ मीडिया में वाहवाही लूटने और अपनी दुकानदारी चलाने वाले ये एनजीओ बचपन बचाओ के नाम पर उनकी सारी मेहनत पर पानी फेर देते हैं. और वे बच्‍चे फिर उसी चौराहे पर आ खड़े होते हैं.
क्‍या कभी ये एनजीओ उन बाल मजदूरों को मुक्‍त कराने के बाद उनकी सुध लेते हैं. क्‍या कभी उनके भविष्‍य के बारे में कोई योजना चलाते हैं. क्‍या कभी इन्‍होंने किसी बाल मजदूर का भरण-पोषण का जिम्‍मा उठाया है. हां, इतना जरूर है कि बचपन बचाओ के नाम पर इनको बाल सुधार गृह में भेज दिया जाता है.
बाल सुधार गृह में इनकी क्‍या स्थिति होती है. ये सभी जानते हैं. क्‍या इसमें किसी बच्‍चे के जीवन में कोई सुधार आया है? चलो मान लेते हैं कि बाल सुधार गृह में ये बच्‍चे खुश हैं लेकिन कब तक? तब तक जब तक ये बाल सुधार गृह में है, वहां से निकलते ही ये फिर रोड पर आ जाते हैं. इनके सामने एक नहीं बल्कि कई संकट आ खड़े होते हैं. खाने-पीने, रहने-सोने जैसी तमाम जरूरतों के लिए इन्‍हें कई तरह की दिक्‍कतों का सामना करना पड़ता है.
अभी हाल में हाईकोर्ट ने कहा है कि बाल मजदूरी को खत्‍म किया जाए. खंडपीठ ने कहा कि आज के बच्‍चे ही कल का भविष्‍य हैं. बच्‍चों के बेहतर भविष्‍य के लिए जरूरी है कि उन्‍हें शिक्षित किया जाए न कि वे शोषण का शिकार हो जांए. खंडपीठ ने अपने आदेश में कहा कि वास्‍तव में बच्‍चे समुदाय की सबसे बेशकीमती चीज हैं. शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्‍व न होने के कारण बच्‍चे विशेष ध्‍यान और संरक्षण पाने के हकदार हैं. हमारे देश में यह समस्‍या काफी गंभीर हैं क्‍योंकि यहां इसका मुख्‍य कारण लोगों का अशिक्षित होना है.
कोर्ट का यह फैसला स्‍वागत योग्‍य है, लेकिन क्‍या भारत जैसे विकासशील देश में यह सब हो पाना संभव है जहां की करीब आ‍धी आबादी गरीबी और अशिक्षा का दंश झेल रही हो.
क्‍या हमने कभी यह गौर किया है कि आखिर ये बाल मजदूर आए कहां से, इनकी क्‍या मजबूरी, लाचारी है. इसके पीछे जरूर कोई न कोई कारण होगा, जिसके चलते वे यह सब करने को मजबूर होते हैं.
सवाल यह पैदा होता है कि इनको मुक्‍त कराने के बाद इनका क्‍या होता है. इनको मुक्‍त तो करा दिया जाता है लेकिन इनके सामने जो रोजी रोटी का संकट खड़ा होता है उसके बारे में कोई नहीं सोचता. एनजीओ को सिर्फ अपना उल्‍लू सीधा करना होता है सो वे करते हैं. फिर ये बच्‍चे चाहे जीएं या मरे, इनसे इनको कोई लेना-देना नहीं होता. इनको तो सिर्फ कागजों में खाना-पूर्ति करनी होती है अपनी प्रसिद्धि चाहिए होती है, सरकार से ईनाम और अनुदान चाहिए होता है. जिससे इनका अपना जीवन मजे में चलता है समाज में धाक और सम्‍मान रहता है. क्‍या ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसी तथाकथित खतरनाक काम में लगे इन बाल मजदूरों को सही ढंग से रोजगारपरक शिक्षा-प्रशिक्षण दिया जाए.
यकीन मानिए इनमें कई बच्‍चे ऐसे होते हैं जो अपने घरों को पैसे भेजते रहते हैं. कई ऐसे हैं जो खुद मेहनत करके अपने छोटे भाई-बहनों का खर्चा उठा रहे हैं.
ऐसा नहीं है कि बाल मजदूरी को सही ठहराया जाए, लेकिन यह चिंतनीय विषय है कि इसकी हकीकत क्‍या है?
हम भी बाल मजदूरी के खिलाफ हैं, लेकिन उनका और उनके चंद रुपयों से पलने वाले लोगों का क्‍या होगा?
हमें अपने विचार जरूर भेजिए।
रावत शशिमोहन पहाड़ी

Saturday, July 4, 2009

संग्राली गांव में कंडार देवता का राज

उत्तरकाशी। पहाड़ में सदियों से चली आ रही मान्यताएं आज भी जिंदा है। इसका जीता जागता उदाहरण प्राचीन संग्रामी गांव में देखने को मिलता है। यहां पंडित की पोथी, डाक्टर की दवा और कोतवाल का डंडा यहां काम नहीं आता है। गांव में कंडार देवता का आदेश ही सर्वमान्य है।
देवभूमि उत्तराखंड के उत्तर में उत्तरकाशी के निकट वरुणावत पर्वत के शीर्ष पर बांयी ओर संग्राली गांव में कंडार देवता का प्राचीन मंदिर आस्था और विश्वास का केंद्र ही नहीं, बल्कि एक न्यायालय भी है। इस न्यायालय में फैसले कागजों में नहीं होते और न ही वकीलों की कार्यवाही होती है। यहां फैसला देवता की डोली सुनाती है। संग्राली गांव के लोग जन्मपत्री, विवाह, मुंडन, धार्मिक अनुष्ठान, जनेऊ समेत अन्य संस्कारों की तिथि तय करने के लिए पंडित की तलाश नहीं करते। कंडार देवता मंदिर के पंचायती प्रांगण में जमा होकर ग्रामीण डोली को कंधे पर रख कंडार देवता का स्मरण करते हैं। इस दौरान डोली के डोलने से इसका अग्रभाग जमीन का स्पर्श करता है। इससे रेखाएं खिंचने लगती हैं। इन रेखाओं में तिथि व समय लिख जाता है। आस्था है कि जन्म कुंडली भी जमीन पर रेखाएं खींचकर डोली स्वयं ही बना देती है। कई ऐसे जोड़ों का विवाह भी कंडार देवता करवा चुका है, जिनकी जन्मपत्री को देखने के बाद पंडितों ने स्पष्ट कह दिया था कि विवाह हो ही नहीं सकता। मात्र यहीं नहीं बल्कि गांव में जब कोई व्यक्ति बीमार हो जाता है तो उसे उपचार के लिए कंडार देवता के पास ले जाया जाता है। सिरर्दद, बुखार, दांत दर्द तो ऐसे दूर होता है जैसे पहले रोगी को यह दर्द था ही नहीं।
साभार : याहू दैनिक जागरण

Tuesday, May 12, 2009

मोनाल पर सवाल

हिमाचल के जंगलों की शान स्टेट बर्ड मोनाल के फ्यूचर पर सवाल उठने लगे हैं। इसी पक्षी परिवार का जुजुराणा भी इन दिनों बुरे दौर से गुजर रहा है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर की रेड डाटा बुक में मोनाल को एनडेंजर्ड स्पीशीज में शामिल किया गया है। दोनों की प्रजातियां खत्म होने की कगार पर हैं।
रिपोर्ट का खुलासा :
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर की रिपोर्ट खुलासा करती है कि दुनिया के 10 हजार पक्षियों की प्रजातियों में से दो तिहाई प्रजातियों पर मौजूदा समय में संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इसमें से 875 प्रजातियों को थोड़ा खतरा है, 704 प्रजातियां खतरे की जद में हैं जबकि 903 प्रजातियां खत्म होने के कगार पर हैं। सुरीली आवाज वाले पक्षियों की 542 नस्लें भी मिटने के कगार पर हैं।
पक्षियों के लापता होने की वजह :
एक तरफ पक्षियों के प्राकृतिक ठिकाने नष्ट हो रहे हैं तो दूसरी ओर अवैध शिकार पक्षियों के वजूद को खत्म करने के लिए जिम्मेदार है। जलवायु परिवर्तन के कारण भी पक्षियों के घोसले सूने हो रहे हैं। रिपोर्ट कहती है कि वनीकरण के कारण वनस्पति आवरण बढ़ रहा है लेकिन प्राकृतिक तौर पर पाए जाने वाले वनों के मुकाबले जैव विविधता बेहद निम्न है।
पिछले 15 साल में मोनाल की संख्या आधे भी कम रह गई है। प्रदेश की सोलह वाइल्ड लाइफ सेंक्च्यूरीज में मोनाल मौजूद हैं। विभिन्न सर्वे रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में मोनाल की संख्या 2200 के करीब रह गई है।
कहां कितने पक्षी
तीर्थन 28
नेशनल पार्क कुल्लू 43
तालरा 27
शिकारी देवी 123
सैंज 12
रुपीभावा 229
रकचम चितकुल 67
नेहरू, मंडी 147
मनाली 87
खोखण 17
कनावर 960
गमगुल 160
दरनघाटी 144
चूड़धार 187
बंदर और लंगूरों का अस्तित्व भी सकंट में
लंदन : भविष्य में बंदरों-लंगूरों की कई प्रजातियों हमें किताबों में ही दिखेंगी। वल्र्ड कंजर्वेशन यूनियन की रिपोर्ट के मुताबिक आने वाली सदी में एक तिहाई प्राइमेट (वह स्पीशीज जिससे मानव जाति का विकास हुआ है) समाप्त हो जाएंगी। दुनिया में 394 प्राइमेट स्पीसीज में 114 पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। 21 देशों के 60 विशेषज्ञों ने 25 प्राइमेट स्पीसीज की एक लिस्ट तैयार की है जो डेंजर जोन में हैं। इनकी संख्या अब कम बची है। जिनको नष्ट होने में ज्यादा समय नहीं है।
100 साल ज्यादा खतरनाक
वल्र्ड कंजर्वेशन यूनियन के चेयरमैन रसेल मीटमीयर का कहना है कि ये जीव इस सदी में तो किसी तरह अपना अस्तित्व बचाने में कामयाब हो गए लेकिन अगली सदी में इनका पहुंचना मुश्किल है। ये जीव आधी सदी से अपने अस्तित्व के लिए भयंकर संघर्ष कर रहे हैं।
एशिया में सबसे ज्यादा खतरा
सबसे बुरी हालत एशिया और अफ्रीका की है। डैंजर जोन में 25 स्पीशीज में 11 एशिया, 11 अफ्रीका, 3 साउथ और सेंट्रल अमेरिका से हैं।

साभार : दैनिक भास्‍कर

Thursday, February 12, 2009

किसी को किसी के लिए वक्‍त नहीं...

हर खुशी है लोगों के दामन में,
पर एक हंसी के लिए वक्‍त नहीं.
दिन-रात दौड़ती दुनिया में,
जिंदगी के लिए ही वक्‍त नहीं।

मां की लोरी का एहसास तो है,
पर मां को मां कहने का वक्‍त नहीं.
सारे रिश्‍तों को तो हम मार चुके,
अब उन्‍हें दफनाने का भी वक्‍त नहीं।

सारे नाम मोबाइल में हैं,
पर दोस्‍ती के लिए वक्‍त नहीं.
गैरों की क्‍या बात करें,
जब अपनों के लिए ही वक्‍त नहीं।

आंखों में है नींद बड़ी,
पर सोने का वक्‍त नहीं.
दिल है गमों से भरा हुआ,
पर रोने का भी वक्‍त नहीं।

पैसों की दौड़ में ऐसे दौड़े,
कि थकने का भी वक्‍त नहीं.
पराय एहसास की क्‍या कद्र करें,
जब अपने सपनों के लिए ही वक्‍त नहीं।

तू ही बता ये जिंदगी,
इस जिंदगी का क्‍या होगा.
कि हर पल मरने वालों को,
जीने के लिए भी वक्‍त नहीं।

प्रस्‍तुति - संजीव चंद

Wednesday, February 11, 2009

पंचकेदार

इससे पहले हमने आपको केदारनाथ के बारे में बताया था. इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आपको पंचकेदारों से भी अवगत कराते हैं. उत्तराखंड यानी देव भूमि. जहां लोग अक्सर शांति की खोज के लिए आते-जाते रहते हैं.

पंचकेदारों की गणना इस प्रकार की जाती है.

केदारनाथ, मदमहेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ, कल्पेश्वर

केदारनाथ
भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है. यह मंदाकिनी नदी के तट पर 3584 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. हिन्दू धर्म में केदारनाथ सबसे पवित्र मंदिरों में से एक है.
केदारनाथ एक अत्यंत पवित्र दर्शनीय स्थान है, जो चारों ओर से बर्फ की चादरों से ढ़की पहाड़ियों के केन्द्र में स्थित है. वर्तमान में मौजूद मंदिर 8वीं शती का है. भगवान शिव का यह मंदिर 1000 साल से भी अधिक पुराना है. इसे बड़े भारी पत्थरों को काटकर तैयार किया गया है. किस तरह इतने बड़े पत्थरों को तैयार किया गया होगा, यह अपने आप में एक अजूबा है. मंदिर में पूजा करने के लिए "गर्भगृह' और मंडप हैं, जहां पर श्रद्धालुजन पूजा-अर्चना करते हैं. मंदिर के अंदर भगवान शिव को सदाशिव के रूप में पूजा जाता है.

मदमहेश्वर

ऐसा कहा जाता है कि भगवान शिव के केदारनाथ से विलुप्त होने के बाद उनकी नाभि फिर से मदमहेश्वर में उदित हुई. नाभिनुमा लिंग के रूप में यहां भगवान शिव की पूजा होती है. चौखंबा पर्वत के आधार पर 3289 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर उत्तर भारतीय शैली का है. यहां का पानी इतना पवित्र है कि इसकी कुछ बूंदें ही पाप से मुक्ति दिलाने वाली मानी जाती हैं. यहां की प्राकृतिक छटा अत्यधिक मनोहारी है. यहां हिमाच्छादित ऊंचे-ऊंचे पर्वत, चौड़ी-संकरी घाटी और जंगल हैं, जो सिर्फ गर्मियों में ही हरियाली देते हैं. यहां से केदारनाथ और नीलकंठ पर्वत देखे जा सकते हैं. निकटवर्ती पहाड़ों का सम्पूर्ण वृत्त भगवान शिव से संबद्ध है जो यहां की सर्वसुंदर जगहों में से एक है.
भारत में हरगौरी की सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा जो एक मीटर से भी ज्यादा ऊंची है, यहां के काली मंदिर में विराजमान है. मदमहेश्वर नदी के उद्गम के पास का शिव मंदिर दूसरा केदार है. इकलौते पुजारी एवं स्वयंसेवियों से प्रशासित इस मंदिर की देखरेख केदारनाथ ट्रस्ट करता है. 6 महीनों की सर्दी में सिर्फ शिवलिंग ही यहां रह जाता है. जबकि चांदी की मूर्तियां औपचारिक रूप से पूजा के लिए ऊखीमठ ले जाई जाती हैं. पास ही स्थित है सरस्वती कुण्ड, जहां पितरों को तर्पण किया जाता है.

तुंगनाथ

केदारनाथ मिथक के अनुसार यहां भगवान शिव की भुजा उभरी थी. ऊखीमठ से 23 किमी दूर, चंदनाथ पर्वत की 3680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित तुंगनाथ मंदिर पंचकेदार में सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित मंदिर है. तुंगनाथ क्षेत्र की पवित्रता अपार मानी जाती है. तुंगनाथ की चोटी तीन जलस्रोतों का उद्गम है आकाशकामिनी नदी प्रस्फुटित है.
पर्वत, जंगलों एवं घास के मैदानों से गुजरता हुआ रास्ता हमें तुंगनाथ तक पहुंचाता है. यहां से करीब एक घंटे की चढ़ाई हमें चन्द्रशिला के मनोहारी दृश्यों के दर्शन तक पहुंचाती है. अद्भुत चौखंबा, केदारनाथ और गंगोत्री-यमुनोत्री चोटियां इसकी सुंदरता में चार चांद लगा रही हैं. गढ़वाल मंडल वर्ष भर (दिसंबर और जनवरी के बर्फीले महीनों को छोड़कर) चंद्रशिला के लिए शीतकालीन पर्वतारोहण का आयोजन करता है. मंदिर में शिवलिंग के अलावा आदि गुरु शंकराचार्य की मूर्ति प्रतिस्थापित है. तुंगनाथ में नंदादेवी मंदिर भी स्थित है. पास ही स्वर्ग से उतरता हुआ-सा प्रतीत होता आकाशलिंग प्रपात है जिसे देखकर मन रोमांचित होने लगता है.

रुद्रनाथ
इस स्थान पर भगवान शिव के मुख का पूजन किया जाता है. रुद्रनाथ मंदिर 2286 मीटर की ऊंचाई पर एक मैदान में स्थित है. जहां पहुंचने के लिए काफी ऊंची-ऊंची चोटियों को पार करना पड़ता है. श्रद्धालुजन अपने पूर्वजों के धार्मिक संस्कार पूरे करने के लिए रुद्रनाथ आते हैं, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि शरीर त्यागने के पश्चात आत्मा यहां स्थित वैतरणी नदी को पार करके आगे बढ़ती है. यह गोपेश्वर से 23 किमी दूरी पर स्थित है. जिससे 5 किमी तक ही गाड़ियों का आवागमन है. शेष 18 किमी की यात्रा पैदल ही तय करनी होती है. इस पैदल के रास्ते में कई मनोहारी दृश्य सामने आते हैं तथा ऊंची पहाड़ियों पर से गुजरना पड़ता है. मंदिर चारों ओर से कई छोटे-छोटे तालावों से घिरा हुआ है. जैसे सूर्यकुण्ड, चन्द्रकुण्ड, तारा कुण्ड, मानस कुण्ड इत्यादि, जबकि पीछे की ओर, ऊपर, नंदा देवी, नंदा घंटी, त्रिशूल आदि ऊंची चोटियां हैं. रुद्रनाथ जाने वाले रास्ते पर ही 3 किमी आगे चलने पर अनुसुइया देवी का मंदिर है.

कल्पेश्वर

यह वह स्थान है जहां भगवान शिव के केश प्रकट हुए थे. यह स्थान अप्सरा उर्वशी और क्रोधी ऋषि दुर्वासा, जिन्होंने वरदान देने वाले कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या की थी, के लिए प्रसिद्ध है. यहां साधु अर्घ्य देने के लिए पूर्व प्रण के अनुसार तपस्या करने आते हैं. तीर्थ यात्री 2134 मीटर की ऊंचाई पर, एक पहाड़ पर स्थित मंदिर में पूजा करते हैं, जिसका रास्ता एक प्राकृतिक गुफा से होकर जाता है. तीर्थयात्री मंदिर में चट्टान में स्थित, भगवान शिव की जटाओं की पूजा करते हैं. मंदिर तक पहुंचने के लिए गुफा के अंदर एक किमी चलना पड़ता है.