Sunday, December 20, 2015

हमारी संस्कृति और कानफोड़ू संगीत यानी संस्कृति की रक्षा



शशि मोहन रवांल्टा

पिछले तीन दिनों से महाकौथिक में शाम को बतौर ए दर्शक मुझे भी जाने का अवसर मिला। पहाड़ से महानगरों में रोजगार की तलाश में पलायन कर गए लोगों द्वारा जब अपनी संस्कृति, समाज और बोलियों के माध्यम से अपने लोगों से रूरू होने का मौका मिलता है, तो अच्छा लगता है। कौथिक में पहाड़ की संस्कृति, वहां की वेशभूषा, खाने पीने की चीजें भी अक्सर देखने को मिलती है, जिससे लगता है मानो पहाड़ ही मैदान पर उतर आया हो। बहुत अच्छा लगाता है तब जब पहाड़ का कोई अपना गाहेबगाहे ऐसे कार्यक्रमों में मिल जाया करता है और बड़ी आत्मीयता और आदर सत्कार के साथ एकदूजे की साधपूछ होती है। संस्कृति को बचाने के लिए महानगरों में अक्सर ऐसे छोटे बड़े कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं और होते रहने चाहिए जिससे कि हम महानगरों में रह रहे अपने बच्चों को अपनी संस्कृति, रीतिरिवाज, भाषाबोली और रहनसहन आदि से परिचित करवा कर उनको पहाड़ के दर्शन करवा सकें, साथ ही उनको अपनी इस संस्कृति को विरासत के रूप में संजोए रखने का संकल्प भी करवाते हैं।

अपनी संस्कृति, रीतिरिवाज और भाषा बोलियों को बचाने के नाम पर राजधानी ​दिल्ली समेत अनेक शहरों में अक्सर छोटेबड़े कार्यक्रम होते रहते हैं, मुझे नहीं पता कि इस तरह के आयोजनों से हमारी संस्कृति को कितना फायदा या नुकसान हो रहा है, लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि इस बहाने हमको एक होने का मौका जरूर मिलता है। महानगरों के इस कंक्रीट भरे जंगल में हमारा जीवन भी इसी शैली का हो गया है, अक्सर सार्वजनिक वाहनों में धक्के खाना अब हमारी आदतों में शुमार हो गया है, एकदो धक्के लग भी जाते हैं तो हमे कोई फर्क भी नहीं पड़ता। हमारी लाइफ भी इसी रफ्तार के साथ दौड़ती हुई दिखती है।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है, इसलिए हम लोग भी इस परिवर्तन को सहज ही स्वीकारते हैं और पहाड़ों से किसी न किसी बहाने महानगरों की ओर पलायन करते हैं। एकदो दिन के इस तरह के आयोजन करने के बाद हम संस्कृति के सबसे बड़े रक्षक भी हो जाते हैं और इस गुमान से हमारा सीना भी फूलकर 52 इंच का हो जाता है कि हमने अपनी संस्कृति को बचाने के अमुक कार्य को तसल्लीबख्श अंजाम दिया है।

बहुत अच्छी बात है कि इस तरह के आयोजन होते रहे लेकिन इन आयोजनों के समाप्त होने के बाद क्या हम फिर कभी अपनी संस्कृति और भाषाबोली और अपने लोंगो की चिंता करते हैं? क्या हम इन आयोजनों से लौटने के बाद अपने बच्चों के ​साथ इस तरह के कार्यक्रमों पर अपने घरों में कोई चर्चा करते हैं? सही मायने में यदि कहा जाए तो इस कानफोडू गीतसंगीत से हमारी संस्कृति को बचाने की बजाय खत्म होने का डर ज्यादा है, क्योंकि जब भी हम इस तरह के कार्यक्रमों को आयोजित करते हैं तो म्यूजिक के शोरगुल में हमारी संस्कृति और भाषा बोली को बचाने और गाने वाले इन लोगों की आवाज उसमें अक्सर गुम होती चली जाती है।

आप किसी भी कार्यक्रम में गौर फरमायें कि जब भी हमारा कोई गीतकार या गायक अपने गीतों से अपनी मधुर आवाज में गा रहा होता है तो म्यूजिक इन्स्टूमेंट बजाने वाले साथी इतनी तेज से थाप देते हैं कि सिंगर की आवाज कम और इनका हो हल्ला ज्यादा होता है, मैं आज तक यही नहीं समझ पाया कि जब यही लोग स्टूडियों में अपने वाद्य यंत्रों को बचाते हैं तो वहां कितनी तनमयता के साथ गायक के साथ तारतम्य बैठाते हैं, फिर लाइव शो में कानफोडूं संगीत क्यों? क्या इन आयोजनों में हमारा मकसद सिर्फ शोरशराबा करने और लोगों के हो हल्ला करने तक ही सीमित है या फिर हम वाकई अपनी संस्कृति की चिंता करते हैं?


पहाड़ से पलायन हो रहा है इसके लिए हम सब चिंतित हैं, हमारे कुछ साथी इस पलायन को रोकने के लिए अपनेअपने स्तर पर जितना हो सके प्रयास कर रहे हैं, जिन प्रयासों के सार्थक परिणाम हमको देखने को मिल जाते हैं। मेरा मानना है कि जितने भी लोग हम महानगरों में किसी न किसी बहाने अपना घर छोड़कर आए हैं यदि साल में 4 से 6 बार हम अपने गांवों में जाएं और वहां के विलुप्त होते तीज त्याहारों को बड़ी धूमधाम के साथ मनाएं तो यह एक सार्थक पहल हो सकती है और हमारी आने वाली पीढ़ी को भी अपने गांव की मिट्टी और संस्कृति से रूरू होने का अवसर मिलेगा और यदि महानगरों की तर्ज पर हम अपने गांवों में ऐसे बड़े आयोजन कर पाएं तो निश्चित ही हमारी संस्कृति बचेगी और हमारे बच्चों को भी अपनी जड़ों से जुडने मौका मिलेगा। इसी के साथ महानगरों में संस्कृति बचाने और बसाने के लिए प्रयासरत आयोजकों को बहुतबहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।