दाताराम चमोली
उत्तराखण्ड का प्राचीन परंपरागत तीर्थाटन राज्य की अर्थव्यवस्था को सुदृढ करने के साथ ही स्वरोजगार का बेहतर जरिया साबित होता, लेकिन अपनी जडों से कट चुके राजनेताओं में इसे पुनर्जीवित करने की इच्छाशक्ति नहीं रही।
उत्तराखण्ड में तीर्थाटन की परंपरा काफी प्राचीन है। सदियों से श्रद्धालु यहां के तीर्थ स्थलों की यात्रा करते रहे हैं। आदि जगदगुरु शंकराचार्य ने सातवीं सदी में केदारनाथ की यात्रा की। बदरीनाथ में बौद्धों के प्रभाव को समाप्त कर उन्होंने नारद कुंड में फेंकी गयी विष्णु प्रतिमा को पुन: मंदिर में स्थापित कर वहां पूजा-अर्चना शुरू करवाई। पूर्णागिरी के महात्म्य को समझते हुए उन्होंने उत्तर भारत की आराध्य देवी के रूप में इसकी पूजा की। कुमाऊं के तीर्थ स्थलों का भ्रमण करने के बाद स्वामी विवेकानंद को इस बात का मलाल रहा कि शरीर कमजोर होने के कारण वे केदारनाथ की यात्रा नहीं कर सके। गंगोत्री, यमुनोत्री में दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है। जागेश्वर का महामृत्युंजय मंदिर श्रद्धा का प्रमुख केंद्र है। कटारमल के सूर्य मंदिर का महात्म्य कोणार्क से कम नहीं। देवप्रयाग में भगवान राम की विश्व में सबसे ऊंची प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। सचमुच तीर्थस्थल और परंपरागत तीर्थयात्राएं उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था के लिए वरदान साबित हो सकती हैं। लेकिन पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने तीर्थाटन विकास पर ध्यान नहीं दिया और राज्य गठन के नौ साल बीत जाने के बावजूद उत्तराखण्ड की सरकारें भी इस दिशा में बेहद उदासीन
रही हैं।
तीर्थ स्थलों पर श्रद्धालुओं को लगातार अव्यवस्थाओं का सामना करना पडता है। सुरक्षा की स्थित यह है कि पहली निर्वाचित सरकार के शपथ ग्रहण करने के साथ ही पूर्णागिरी मेले में एक ग्रामीण लड़की से पुलिसकर्मियों द्वारा बलात्कार किये जाने का मामला सुर्खियों में छाया रहा। इसके बाद हरिद्वार में वर्ष 2004 में संपन्न अर्द्धकुभ मेले में महिलाओं से छेड़छाड़ का मामला काफी दिनों तक जनाक्रोश का कारण बना रहा। लोग हैरान हुए कि तीर्थस्थलों पर इस प्रकार की शर्मनाक वारदातें अंग्रेजों और उत्तर प्रदेश के शासन में भी घटित नहीं हुई थीं। इससे श्रद्धालुओं के दिलों में असुरक्षा का भाव पैदा हुआ है।
संरक्षण के अभाव में उत्तराखण्ड के कई मंदिर जर्जर हो चुके हैं। देव मंदिरों से मूर्ति चोरी की घटनाएं आम हैं। आजादी के बाद और राज्य बनने के कुछ समय पहले तक मंदिरों से महत्वपूर्ण मूर्तियां और दस्तावेज चोरी होने का सिलसिला राज्य बनने के नौ साल बाद भी थमा नहीं। बदरी-केदार धाम जहां कि व्यवस्था पूरी तरह सरकार के हाथ में है, वहां भी अव्यवस्थाओं का साया है। कुछ साल पहले नंदकिशोर नौटियाल के बदरी-केदार मंदिर समित के अध्यक्ष रहते हुए हुए केदारनाथ धाम में छत्र चोरी होने का मामला सुर्खियों में रहा तो अनुसूया प्रसाद मैखुरी के अध्यक्षीय काल में बदरीनाथ मंदिर के गर्भगृह की सीडी बनने का मामला सामने आया। जबकि मंदिर के प्रवेशद्वार पर स्पष्ट लिखा हुआ है कि मंदिर की फोटो लेनी वर्जित है। इसी तरह विनोद नौटियाल के समय में भी तत्लीन रावल पी. विष्णु नबूदरी ने मंदिर में निन किस्म की पूजा सामग्री और चावल सप्लाई किये जाने के खिलाफ जोर-शोर से आवाज उठाई थी।
मंदिर के पदाधिकारियों पर अपने-अपने परिजनों, रिश्तेदारों और चहेतों को नौकरियों और ठेके दिलवाने को लेकर भी उंगुलियां उठती रही हैं। उत्तराखण्ड के कई जिलों में स्थित मंदिर समिति की करोडों की संपत्तियों पर अवैधा कजे हैं, लेकिन समिति इन्हें हटवा नहीं पायी है। नंदकिशोर नौटियाल के अध्यक्षीय काल में मंदिर समिति के तत्कालीन मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) इंद्रजीत मल्होत्रा ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें राजनीती का शिकार होना पडा। अत: वे वे इस्तीफा देने को मजबूर हुए। तीर्थ स्थलों पर अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का सिलसिला थमने की संभावनाएं नहीं हैं। राज्य की सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं में न तो तीर्थाटन विकास की कोई सोच है और न ही दृढ़ इच्छाशक्ति। कुछ माह पूर्व ऋषिकेश में एक अंतरराष्ट्रीय योग सप्ताह का आयोजन किया गया था। इसमें देश-विदेश के सैकडों लोगों ने भाग लिया, लेकिन आयोजन का जिमा गढ़वाल मंडल विकास निगम के बजाए एक निजी धार्मिक संस्था परमार्थ निकेतन को दे दिया गया। संस्था ने इससे लाखों कमाये, लेकिन गढ़वाल मंडल विकास निगम, स्थानीय व्यवसायी एवं बेरोजगार युवा हाथ मलते रह गये। इसके बावजूद तत्कालीन पर्यटन एवं तीर्थाटन मंत्री प्रकाश पंत को यह कहने में जरा भी संकोच नहीं हुआ कि गढ़वाल मंडल विकास निगम इतने बड़े कार्यक्रम को करवाने में सक्षम नहीं था।
नेताओं की इसी सोच और समझ का नतीजा है कि आज उत्तराखण्ड का परंपरागत प्राचीन तीर्थाटन अपनी जड़ों की ओर नहीं लौट पा रहा है। कभी उत्तराखण्ड के तीर्थों में आने वाले श्रद्धालुओं के ठहरने और भोजन की व्यवस्था स्थानीय लोग करते थे। जगह-जगह पर लगने वाली चट्टियों, छोटी-छोटी दुकानों और देव मंदिरों से स्थानीय युवाओं को आय होती थी। बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं की जेब पर भी बोझ नहीं पडता था। पैदल यात्रा कर जहां वे उत्तराखण्ड की धार्मिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक धरोहरों से परिचित होते थे, वहीं प्राकृतिक सौंदर्य का भरपूर आनंद भी लेते थे, लेकिन आज इसके एकदम उलट स्थितियां हैं। पैदल यात्रा मार्ग नष्ट हो चुके हैं। चट्टियों और छोटी-छोटी दुकानों की जगह आलीशान होटलों और होटलनुमा बड़ी-बड़ी धर्मशालाओं ने ले ली है। तीर्थस्थलों पर धन्नासेठों और हाइटेक बाबाओं की धर्मशालाओं में व्यावसायिकता की अंधी होड़ के चलते पहाड़ के पर्यावरण पर भी बुरा असर पड़ रहा है। होटल तो क्या धर्मशालाओं में भी श्रद्धालुओं से ठहरने का मनमाना पैसा वसूला जा रहा है।
तर्क दिया जा सकता है कि भागदौड़ और व्यस्तता की आज की जिंदगी में भला प्राचीन तीर्थाटन को कैसे जीवित किया जा सकता है, लेकिन यह भी सच है कि हेमकुण्ड साहिब और केदारनाथ तक सड़क पहुंचाने की जिद पहाड़ ही नहीं, बल्कि पूरे देश और दुनिया के लिए घातक साबित होगी। उत्तराखण्ड के निवासी शुरू से ही काफी सुलझे हुए रहे हैं। ग्लेशियरों को मानवीय आबादी के दबाव से बचाने के लिए लोगों ने शीत्काल में छह माह के लिए बदरी, केदार, गंगोत्री, यमुनोत्री धाम को बंद करने की परंपरागत व्यवस्था शुरू की थी जो आज तक जारी है। डर है कि राजनेताओं की कुंठित सोच कहीं इसे खंडित न कर दे। पूर्व कांग्रेस सरकार के शासन में तत्कलीन पर्यटन मंत्री टीपीएस रावत ने कहा भी था कि बदरी-केदार में साल भर तक यात्रा जारी रखने के लिए वहां स्नोकटर का उपयोग किया जाएगा। शुक्र है कि उनकी यह सोच व्यावहारिक धरातल पर नहीं उतरी। जिस बदरी-केदार, गंगोत्री-यमुनोत्री को हमारे कर्मधार आय का जरिया बनाने की सोचते हैं, उन्हें विकसित करने और लाइमलाइट (प्रकाश) में लाने का श्रेय पहाड़वासियों, खासकर देवप्रयाग और ऊखीमठ के उन लोगों का है जिन्होंने वर्षों से भारत भर में घूम-घूमकर तीर्थयात्रियों को इन तीर्थ स्थलों के महात्म्य से अवगत कराया। प्रचार-प्रसार के सरकारी प्रयास सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहे हैं।
तीर्थाटन की परंपरागत जडों की ओर अभी भी लौटा जा सकता है। माना कि आज के समय में लोग वाहनों और हैलीकॉप्टरों से केदारनाथ पहुंचना चाहें, सड़कों पर पांच सितारा होटलों की सुविधाएं चाहें, लेकिन सवाल यह है कि ऐसे लोगों की संख्या कितनी है? अधिकांश तीर्थयात्री आज भी पवित्र भावना से तीर्थ स्थलों के दर्शन करने आते हैं। सरकार चाहे तो पैदल यात्रा मार्गों का जीर्णोद्धार कर उन पर फिर से यात्रा शुरू करवा सकती है। वे लोग जो साहसिक पर्यटन और पहाड़ की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लेना चाहते हैं, जिन्हें उत्तराखण्ड की धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक महत्व की जानकारी चाहिए, निश्चित ही इन पैदल मार्गों को पसंद करेंगे। गरीब श्रद्धालु भी इन मार्गों पर चलने लगेंगे। इससे चट्टादि और पूजादि को फिर से बढ़ावा मिलेगा और तीर्थाटन की सदियों पुरानी परंपरा पुनर्जीवित हो उठेगी। बाहर से आने वाले तीर्थयात्री महसूस कर सकेंगे कि उत्तराखण्ड सचमुच देवभूमि है। देश के लोगों में भावनात्मक लगाव और सांस्कृत्कि आदान-प्रदान को बढावा मिलेगा।
यात्रा मार्गों को दुरुस्त करने के साथ ही उत्तराखण्ड से कैलाश मानसरोवर जाने वाले मार्गों को फिर से खोलने की पहल की जानी चाहिए। अभी तक राज्य में सीमांत पिथौरागढ़ जिले से ही यह यात्रा संपन्न हो रही है। कहा जाता है कि कभी बदरीनाथ से भी काफी यात्री कैलाश मानसरोवर जाते थे। शासन-प्रशासन से जुडे बड़े अधिकारी और रजनेता जितनी दिलचस्पी ऊंची राजनीतिक पकड़ रखने वाले हाइटेक बाबाओं को प्रश्रय देने और उनकी जी हुजूरी करने में दिखाते हैं, उतनी दिलचस्पी तीर्थस्थलों की व्यवस्था दुरुस्त करने में दिखाएं तो निश्चित ही स्थिति काफी हद तक सुधर जायेगी। नेताओं और अधिकारियों में इच्छा शक्ति हो तो धन्नसेठों के होटलों और बाबाओं की व्यावसायिक धर्मशालाओं पर अंकुश लगाकर तीर्थयात्रियों को ठहरने की सस्ती व्यवस्था मुहैया कराई जा सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
उत्तराखण्ड का प्राचीन परंपरागत तीर्थाटन राज्य की अर्थव्यवस्था को सुदृढ करने के साथ ही स्वरोजगार का बेहतर जरिया साबित होता, लेकिन अपनी जडों से कट चुके राजनेताओं में इसे पुनर्जीवित करने की इच्छाशक्ति नहीं रही।
उत्तराखण्ड में तीर्थाटन की परंपरा काफी प्राचीन है। सदियों से श्रद्धालु यहां के तीर्थ स्थलों की यात्रा करते रहे हैं। आदि जगदगुरु शंकराचार्य ने सातवीं सदी में केदारनाथ की यात्रा की। बदरीनाथ में बौद्धों के प्रभाव को समाप्त कर उन्होंने नारद कुंड में फेंकी गयी विष्णु प्रतिमा को पुन: मंदिर में स्थापित कर वहां पूजा-अर्चना शुरू करवाई। पूर्णागिरी के महात्म्य को समझते हुए उन्होंने उत्तर भारत की आराध्य देवी के रूप में इसकी पूजा की। कुमाऊं के तीर्थ स्थलों का भ्रमण करने के बाद स्वामी विवेकानंद को इस बात का मलाल रहा कि शरीर कमजोर होने के कारण वे केदारनाथ की यात्रा नहीं कर सके। गंगोत्री, यमुनोत्री में दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है। जागेश्वर का महामृत्युंजय मंदिर श्रद्धा का प्रमुख केंद्र है। कटारमल के सूर्य मंदिर का महात्म्य कोणार्क से कम नहीं। देवप्रयाग में भगवान राम की विश्व में सबसे ऊंची प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। सचमुच तीर्थस्थल और परंपरागत तीर्थयात्राएं उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था के लिए वरदान साबित हो सकती हैं। लेकिन पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने तीर्थाटन विकास पर ध्यान नहीं दिया और राज्य गठन के नौ साल बीत जाने के बावजूद उत्तराखण्ड की सरकारें भी इस दिशा में बेहद उदासीन
रही हैं।
तीर्थ स्थलों पर श्रद्धालुओं को लगातार अव्यवस्थाओं का सामना करना पडता है। सुरक्षा की स्थित यह है कि पहली निर्वाचित सरकार के शपथ ग्रहण करने के साथ ही पूर्णागिरी मेले में एक ग्रामीण लड़की से पुलिसकर्मियों द्वारा बलात्कार किये जाने का मामला सुर्खियों में छाया रहा। इसके बाद हरिद्वार में वर्ष 2004 में संपन्न अर्द्धकुभ मेले में महिलाओं से छेड़छाड़ का मामला काफी दिनों तक जनाक्रोश का कारण बना रहा। लोग हैरान हुए कि तीर्थस्थलों पर इस प्रकार की शर्मनाक वारदातें अंग्रेजों और उत्तर प्रदेश के शासन में भी घटित नहीं हुई थीं। इससे श्रद्धालुओं के दिलों में असुरक्षा का भाव पैदा हुआ है।
संरक्षण के अभाव में उत्तराखण्ड के कई मंदिर जर्जर हो चुके हैं। देव मंदिरों से मूर्ति चोरी की घटनाएं आम हैं। आजादी के बाद और राज्य बनने के कुछ समय पहले तक मंदिरों से महत्वपूर्ण मूर्तियां और दस्तावेज चोरी होने का सिलसिला राज्य बनने के नौ साल बाद भी थमा नहीं। बदरी-केदार धाम जहां कि व्यवस्था पूरी तरह सरकार के हाथ में है, वहां भी अव्यवस्थाओं का साया है। कुछ साल पहले नंदकिशोर नौटियाल के बदरी-केदार मंदिर समित के अध्यक्ष रहते हुए हुए केदारनाथ धाम में छत्र चोरी होने का मामला सुर्खियों में रहा तो अनुसूया प्रसाद मैखुरी के अध्यक्षीय काल में बदरीनाथ मंदिर के गर्भगृह की सीडी बनने का मामला सामने आया। जबकि मंदिर के प्रवेशद्वार पर स्पष्ट लिखा हुआ है कि मंदिर की फोटो लेनी वर्जित है। इसी तरह विनोद नौटियाल के समय में भी तत्लीन रावल पी. विष्णु नबूदरी ने मंदिर में निन किस्म की पूजा सामग्री और चावल सप्लाई किये जाने के खिलाफ जोर-शोर से आवाज उठाई थी।
मंदिर के पदाधिकारियों पर अपने-अपने परिजनों, रिश्तेदारों और चहेतों को नौकरियों और ठेके दिलवाने को लेकर भी उंगुलियां उठती रही हैं। उत्तराखण्ड के कई जिलों में स्थित मंदिर समिति की करोडों की संपत्तियों पर अवैधा कजे हैं, लेकिन समिति इन्हें हटवा नहीं पायी है। नंदकिशोर नौटियाल के अध्यक्षीय काल में मंदिर समिति के तत्कालीन मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) इंद्रजीत मल्होत्रा ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें राजनीती का शिकार होना पडा। अत: वे वे इस्तीफा देने को मजबूर हुए। तीर्थ स्थलों पर अव्यवस्था और भ्रष्टाचार का सिलसिला थमने की संभावनाएं नहीं हैं। राज्य की सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं में न तो तीर्थाटन विकास की कोई सोच है और न ही दृढ़ इच्छाशक्ति। कुछ माह पूर्व ऋषिकेश में एक अंतरराष्ट्रीय योग सप्ताह का आयोजन किया गया था। इसमें देश-विदेश के सैकडों लोगों ने भाग लिया, लेकिन आयोजन का जिमा गढ़वाल मंडल विकास निगम के बजाए एक निजी धार्मिक संस्था परमार्थ निकेतन को दे दिया गया। संस्था ने इससे लाखों कमाये, लेकिन गढ़वाल मंडल विकास निगम, स्थानीय व्यवसायी एवं बेरोजगार युवा हाथ मलते रह गये। इसके बावजूद तत्कालीन पर्यटन एवं तीर्थाटन मंत्री प्रकाश पंत को यह कहने में जरा भी संकोच नहीं हुआ कि गढ़वाल मंडल विकास निगम इतने बड़े कार्यक्रम को करवाने में सक्षम नहीं था।
नेताओं की इसी सोच और समझ का नतीजा है कि आज उत्तराखण्ड का परंपरागत प्राचीन तीर्थाटन अपनी जड़ों की ओर नहीं लौट पा रहा है। कभी उत्तराखण्ड के तीर्थों में आने वाले श्रद्धालुओं के ठहरने और भोजन की व्यवस्था स्थानीय लोग करते थे। जगह-जगह पर लगने वाली चट्टियों, छोटी-छोटी दुकानों और देव मंदिरों से स्थानीय युवाओं को आय होती थी। बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं की जेब पर भी बोझ नहीं पडता था। पैदल यात्रा कर जहां वे उत्तराखण्ड की धार्मिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक धरोहरों से परिचित होते थे, वहीं प्राकृतिक सौंदर्य का भरपूर आनंद भी लेते थे, लेकिन आज इसके एकदम उलट स्थितियां हैं। पैदल यात्रा मार्ग नष्ट हो चुके हैं। चट्टियों और छोटी-छोटी दुकानों की जगह आलीशान होटलों और होटलनुमा बड़ी-बड़ी धर्मशालाओं ने ले ली है। तीर्थस्थलों पर धन्नासेठों और हाइटेक बाबाओं की धर्मशालाओं में व्यावसायिकता की अंधी होड़ के चलते पहाड़ के पर्यावरण पर भी बुरा असर पड़ रहा है। होटल तो क्या धर्मशालाओं में भी श्रद्धालुओं से ठहरने का मनमाना पैसा वसूला जा रहा है।
तर्क दिया जा सकता है कि भागदौड़ और व्यस्तता की आज की जिंदगी में भला प्राचीन तीर्थाटन को कैसे जीवित किया जा सकता है, लेकिन यह भी सच है कि हेमकुण्ड साहिब और केदारनाथ तक सड़क पहुंचाने की जिद पहाड़ ही नहीं, बल्कि पूरे देश और दुनिया के लिए घातक साबित होगी। उत्तराखण्ड के निवासी शुरू से ही काफी सुलझे हुए रहे हैं। ग्लेशियरों को मानवीय आबादी के दबाव से बचाने के लिए लोगों ने शीत्काल में छह माह के लिए बदरी, केदार, गंगोत्री, यमुनोत्री धाम को बंद करने की परंपरागत व्यवस्था शुरू की थी जो आज तक जारी है। डर है कि राजनेताओं की कुंठित सोच कहीं इसे खंडित न कर दे। पूर्व कांग्रेस सरकार के शासन में तत्कलीन पर्यटन मंत्री टीपीएस रावत ने कहा भी था कि बदरी-केदार में साल भर तक यात्रा जारी रखने के लिए वहां स्नोकटर का उपयोग किया जाएगा। शुक्र है कि उनकी यह सोच व्यावहारिक धरातल पर नहीं उतरी। जिस बदरी-केदार, गंगोत्री-यमुनोत्री को हमारे कर्मधार आय का जरिया बनाने की सोचते हैं, उन्हें विकसित करने और लाइमलाइट (प्रकाश) में लाने का श्रेय पहाड़वासियों, खासकर देवप्रयाग और ऊखीमठ के उन लोगों का है जिन्होंने वर्षों से भारत भर में घूम-घूमकर तीर्थयात्रियों को इन तीर्थ स्थलों के महात्म्य से अवगत कराया। प्रचार-प्रसार के सरकारी प्रयास सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहे हैं।
तीर्थाटन की परंपरागत जडों की ओर अभी भी लौटा जा सकता है। माना कि आज के समय में लोग वाहनों और हैलीकॉप्टरों से केदारनाथ पहुंचना चाहें, सड़कों पर पांच सितारा होटलों की सुविधाएं चाहें, लेकिन सवाल यह है कि ऐसे लोगों की संख्या कितनी है? अधिकांश तीर्थयात्री आज भी पवित्र भावना से तीर्थ स्थलों के दर्शन करने आते हैं। सरकार चाहे तो पैदल यात्रा मार्गों का जीर्णोद्धार कर उन पर फिर से यात्रा शुरू करवा सकती है। वे लोग जो साहसिक पर्यटन और पहाड़ की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लेना चाहते हैं, जिन्हें उत्तराखण्ड की धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक महत्व की जानकारी चाहिए, निश्चित ही इन पैदल मार्गों को पसंद करेंगे। गरीब श्रद्धालु भी इन मार्गों पर चलने लगेंगे। इससे चट्टादि और पूजादि को फिर से बढ़ावा मिलेगा और तीर्थाटन की सदियों पुरानी परंपरा पुनर्जीवित हो उठेगी। बाहर से आने वाले तीर्थयात्री महसूस कर सकेंगे कि उत्तराखण्ड सचमुच देवभूमि है। देश के लोगों में भावनात्मक लगाव और सांस्कृत्कि आदान-प्रदान को बढावा मिलेगा।
यात्रा मार्गों को दुरुस्त करने के साथ ही उत्तराखण्ड से कैलाश मानसरोवर जाने वाले मार्गों को फिर से खोलने की पहल की जानी चाहिए। अभी तक राज्य में सीमांत पिथौरागढ़ जिले से ही यह यात्रा संपन्न हो रही है। कहा जाता है कि कभी बदरीनाथ से भी काफी यात्री कैलाश मानसरोवर जाते थे। शासन-प्रशासन से जुडे बड़े अधिकारी और रजनेता जितनी दिलचस्पी ऊंची राजनीतिक पकड़ रखने वाले हाइटेक बाबाओं को प्रश्रय देने और उनकी जी हुजूरी करने में दिखाते हैं, उतनी दिलचस्पी तीर्थस्थलों की व्यवस्था दुरुस्त करने में दिखाएं तो निश्चित ही स्थिति काफी हद तक सुधर जायेगी। नेताओं और अधिकारियों में इच्छा शक्ति हो तो धन्नसेठों के होटलों और बाबाओं की व्यावसायिक धर्मशालाओं पर अंकुश लगाकर तीर्थयात्रियों को ठहरने की सस्ती व्यवस्था मुहैया कराई जा सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)