जिन्हें ख्वाजा बुलाते हैं।
संप्रति : तीन सालों से दैनिक 'हिन्दुस्तान' नई दिल्ली में सेवारत।तमाम कविताएं, कहानियां, लेख, दूरदर्शन, आकाशवाणी और समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रसारित एवं प्रकाशित हो चुकी हैं।सांप्रदायिकता के संदर्भ में 'गुजरात 2002' पर आधारित कविताओं जैसे ज्वलंत विषय पर जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से एम।फिल की डिग्री।संपर्क : inam.md@gmail.com
देश विदेश के तमाम नेताओं-महान हस्तियों और फिल्मी कलाकरों का राजस्था न के अजमेर स्थित महान सूफी संत हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती (रहमतुल्ला अलैह) की मजार में आना और चादर पेश करना साथ ही उनके दर पर माथा टेकने की खबरें आए दिन आती रहती हैं. इसके अलावा हर वर्ग, जाति का व्यक्ति यहां आकर अपने आपको धन्य मानता है.
एक ऐसी जगह जहां पर मुसलमानों से ज्यादा गैर मुस्लिम उनके दर पर माथा टेकने जाते हैं. एक ऐसी शख्सियत जिसके नाम पर लाखों कुरबान हो जाएं. जिनके नूर को देखकर हजारों एक साथ उनके साथ हो लिये हों. ऐसे ही अल्लाह के करीबी हैं राजस्थान के अजमेर स्थित हजरत ख्वाजा मोइन उद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह. यहां पर न सिर्फ पूरे हिन्दुस्तान से बल्कि समूची दुनिया से लोग रोजाना हजारों की तादाद में उनके दरबार में अपनी हाजिरी देने के लिए आते हैं. खास बात ये है कि यहां वे लोग ही आते हैं, कहते हैं जिन्हें ख्वाजा बुलाते हैं.
यूं तो बारह महीने यहां आने वालों का तांता लगा रहता है. मगर साल में एक बार अरबी कलेंडर के रज्जब महीने में पहली तारीख से लेकर नौ तारीख तक यहां उर्स का आयोजन होता है, जिसमें पूरी दुनिया से अकीदतमंद लाखों की तादाद में यहां पहुंचते हैं. गरीबों की हिमायत करने वाले और इनसानियत के अलमबरदार ख्वाजा गरीब नवाज की मजार पर लाखों बच्चे, जवाने, बूढे़ अमीर-गरीब सभी अपनी-अपनी श्रद्धा जताते हैं. इस महान सूफ संत का संदेश मानव एकता का एक नायाब पैगाम है.
मानवता की एक अलग मिसाल कायम करने वाले महान सूफी संत ख्वाजा हजरत मोइन उद्दीन चिश्ती पूरी दुनिया में आध्यात्मिक क्षेत्र में एक अलग मुकाम रखते हैं.
परिचय
ख्वाजा साहब के नाम से विख्यात इस महान सूफी संत का पूरी दुनिया में सम्मान के साथ नाम लिया जाता है. अपनी जिंदगी में मानवता, आध्यात्मिक आजादी और व्यक्तित्व विकास, ध्यान, प्रैक्टिस, करिश्माई और एक आदर्श संत के तौर पर जाने जाते हैं. उन्होंने हमेशा सच्चाई को अपनाया. वे प्रेम, त्याग और सच्चाई के प्रतीक हैं. वे अपनी पूरी जिंदगी में पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के रास्तों को अख्तियार करते रहे और उनकी बातों को लोगों तक पहुंचाते रहे.
जन्म
गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) का जन्म संजर के सीस्तान नामक गांव में 9 रज्जब 537 हिजरी यानी 1143 ईस्वी में हुआ था. यह जगह उत्तरी कंधार में स्थित है. उनके पिता सैयद गयासुद्दीन हसन (रहमतुल्ला अलैह) जो कि हजरत मूसा करीम (रहमतुल्ला अलैह) के नाती थे. ख्वाजा गरीब नवाज की बीबी उम्मुल वरा जिन्हें बीबी माहे नूरे के नाम से जानते हैं हजरत इमाम हसन (रहमतुल्ला अलैह) की नातिन थीं. वे मां की तरफ से हसनी सैयद के परिवार से संबंध रखते थे. इनके पूर्वज संजर में रहते थे, इसलिए आपको संजरी कहा जाता है और उनके खानदान के ख्वाजा इशहाक शामी हिरात के पास चिश्त कस्बे में आकर रहने के कारण उन्हें और उनके शिष्यों को चिश्ती के नाम से भी जाना जाता है.
शिक्षा (तालीम)
ख्वाजा गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) ने शुरुआती शिक्षा घर पर ही हासिल की. ख्वाजा साहब (रहमतुल्ला अलैह) को नौ साल की उम्र में ही कुरआन मुंहजबानी याद हो गई थी. बाद में वे संजर में मकतब में गए जहां पर उन्होंने बहुत कम समय में तफ्सीर और फिकाह व हसीद की शिक्षा हासिल की. उन्होंने इन सब विषयों पर गंभीर ज्ञान प्राप्त किया.
जीवन में नया मोड़
जब ख्वाजा साहब महज 14 साल की उम्र के थे, तब उनके पिता इस दुनिया से पर्दा कर गए. उनके पिता का एक बाग और कारखाना था. पिताजी के इंतकाल के कुछ महीने बाद ही मां भी इस दुनिया से चल बसीं. इस तरह बहुत कम उम्र में ही ख्वाजा साहब दर्वेश और फकीरों की मंडली में शामिल हुए और वहां उन्हें बहुत सम्मान मिला.
एक दिन जब वे बाग में पौधों पर पानी सींच रहे थे, एक मजूब वहां पहुंचे. वह मजूब शेख इब्राहीम कुन्दौजी (रहमतुल्ला अलैह) थे. जब ख्वाजा साहब ने उस बुजुर्ग आदमी को देखा तो वे अपना काम छोड़कर उस बुजुर्ग आदमी के स्वागत के लिए दौड़े. उन्होंने उस आदमी के हाथों को चूमा और उन्हें एक पेड़ की छांव की ओर ले जाकर बैठने का आग्रह किया. उस समय ख्वाजा साहिब ने कुछ भी नहीं मांगा. वह मौसम अंगूरों का था और पेड़ों पर अंगूर के गुच्छे लटक रहे थे. उन्होंने अंगूर का एक गुच्छा तोडा़ और रस वाला अंगूर लाकर उन्हें दिया और चुपचाप उनके पास बैठ गए. अल्लाह के प्यारे मजूब की खातिरदारी और कुछ अंगूर के फली से खुशी का आनंद का नजारा ही कुछ और था. तब मजूब ने तुरंत माना कि यह बच्चा सच्चाई की तलाश में है. इसलिए उन्होंने तेल का एक टुकडा़ उठाया और उसे अपने दांतों के नीचे दबाया और उसको ख्वाजा साहिब के मुंह पर रख दिया. जैसा कि वे दर्वेश और फकीरों का सम्मान किया करते थे, उन्होंने इसे निगल लिया और अचानक से पूरी दुनिया के बीच खाई खत्म हो गई. फिर उनके और अल्लाह के बीच की दूरी मिट गई. तेल के टुकड़े को निगलने के साथ ही, वे आध्यात्मिक दुनिया में मशगूल हो गए और अपने आपको अकेला पाने लगे.
हालांकि शेख इब्राहीम (रहमतुल्ला अलैह) ने ख्वाजा साहिब को अकेला छोड़ दिया, लेकिन वे उनकी आध्यात्मिक दुनिया के साक्षी हैं. इसे कोई कैसे भुला सकता है. उन्होंने बहुत ही सब्र के साथ काम लिया. वे खुद पर काबू नहीं रख सके. उन पर प्रेम का प्रभाव और सच्चाई के प्रति लगाव की सीमाएं पार हो गईं. पूरी दुनिया उनके लिए कुछ भी नहीं रह गई. इस तरह उन्होंने सबको छोड़ दिया और अपना खजाना अपने मानने वालों में बांट दिया, साथ ही जरूरतमंदों और गरीबों में इसे खर्च किया और सच्चाई की खोज में अपनी जिंदगी बिता दी.
पीर-और-मुर्शिद के साथ बैठकें
हालांकि हारून एक छोटा सा कस्बा था लेकिन अल्लाह का करम कि उन दिनों लोग इस बारे में काफी कुछ जान गए. हजरत ख्वाजा शेख उसमान हारूनी (रहमतुल्ला अलैह) उस समय वहां पर थे और उनकी मौजूदगी में वहां पर अल्लाह की रहमतें बरसती थीं. हजरत शेख उसमान हारूनी (रहमतुल्ला अलैह) माशाइक-ए-कुब्रा में थे जहां पर दूर-दूर से लोग अपनी मन्नतों को पूरी करवाने के लिए आया करते थे.
आखिरकार प्रेम और सच्चाई का उनका जज्बा अपने मकसद को पाने में कामयाब हुआ और वे हारून शहर में पहुंचे और जब वहां पर उनको ख्वाजा गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) के बारे में पता लगा तो हजरत शेख उसमान हारूनी (रहमतुल्ला अलैह) और पीर-ए-कामिल ने मुर्शिद के तौर पर उनको अपना लिया. ख्वाजा गरीब नवाज ने यूं बयां किया -
मैं खुद को उन हस्तियों में शामिल करना चाहता हूं जहां पर विशेष सम्मान दिया जाता है.
हुजूर ने फरमाया है कि
"दो रकआत नमाज अदा करो."
मैंने इसे अपनाया
तब उन्होंने मुझसे पूछा -
"बैठ जाओ और किबला का सम्मान करो."
मैं बड़े सम्मान के साथ किबला की ओर बैठ गया.
तब उन्होंने मुझसे पूछा- "सूरे बकर पढ़ो."
मैंने उनकी बात मानी. तब उन्होंने फरमाया कि "सुब्हानअल्लाह" 60 बार पढ़ो. मैंने ऐसा ही किया. हुजूर ने मेरे हाथ को अपने हाथ पर रखा और आसमान की ओर देखा और कहा कि "मैंने आपको अल्लाह को दिया."
आखिर में हजरत ख्वाजा शेख उसमान हारूनी (रहमतुल्ला अलैह) ने एक विशेष टोपी रखी जिसे कुलह-ए-चहार-तुर्की कहते हैं और उनको चुगा-ए- मुबारक (गाउन) से नवाजा और तब बैठने के लिए कहा. अब उन्होंने सूरा-ए-इखलास को एक हजार बार पढ़ने के लिए कहा. जब मैंने इसे पूरा किया तब उन्होंने कहा कि "हमारी मशाइक दिन और रात की एक पूरी मुशाहिदा है, इसलिए जाओ और मुशाहिदा पूरी करो. इस तरह मैंने एक दिन और एक रात इबादत में गुजारी और अल्लाह की इबादत की. अगले दिन मैंने उनसे पहले ही अपने आपको पेश किया. उन्होंने मुझे बैठने के लिए कहा और मैं बैठ गया. उन्होंने कहा कि "आसमान की ओर देखो" मैने ऐसा ही किया. तब उन्होंने कहा कि "आप कहां देख रहे हैं?" मैंने जवाब दिया "अर्श-ए-मुअल्लाह की ओर."
उन्होंने मुझे जमीन की ओर देखने के लिए कहा. मैंने ऐसा ही किया. तब उन्होंने मुझसे सवाल किया कि "आप कहां देख रहे हैं?"
मैंने कहा कि "तैतुस्सरा की ओर." उन्होंने कहा कि सूरा ए इखलास को हजार बार पढ़ो. जब मैंने इसे पूरा किया तब हजरत ने कहा कि आसमान की ओर देखो. मैंने देखा और कहा कि "मुझे हिजाब-ए-हिजमत तक स्पष्ट दिखाई दे रहा है." तब उन्होंने मुझसे आंखें बंद करने को कहा. मैंने वैसा ही किया. तब उन्होंने दो उंगलियां दिखाईं और मुझसे कहा कि आप क्या देख रहे हैं? मैंने जवाब दिया कि 18000 ब्रह्मांड मेरी आंखों से पहले हैं. जैसे ही मैंने अपना वाक्य पूरा किया उन्होंने कहा कि "अब काम हो गया."
इसके बाद उन्होंने पत्थर की ओर इशारा किया और इसे किनारे करके मुझसे पूछा कि इसे हटाओ. उसके नीचे कुछ दिनार थीं. उन्होंने मुझसे कहा कि इनको गरीबों में बांट दो और मैंने ऐसा ही किया. आखिर में उन्होंने कहा कि "हमारे साथ कुछ दिन रहो." और उनके साथ रहने के लिए यह मेरे लिए बेहद खुशी का पल था.
हजरत ख्वाजा गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) ने लंबे समय तक पीर-और-मुर्शिद की सेवा में जीवन बिताया और इस दौरान उन्होंने एक किताब लिखी जिसे नाम दिया "अनीस-उल-अरवा" जिसमें उन्होंने अध्यात्मिक दिशा-निर्देश और अपने गुरु हजरत ख्वाजा उसमान हारूनी (रहमतुल्ला अलैह) के बारे में बताया है कि किस तरह से उन्होंने उसे सजदानशीं बनाया और उनको पैगंबर हजरत मुहम्मद (सल्लललाहु अलैह वसल्लम) की पवित्र श्रृंखला में से चिश्ती की गद्दी सौंपी.
अपने पीर-और-मुर्शिद को फलों की सेवा करने के बाद ख्वाजा गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) सच्चाई और अमन की खोज में निकल पड़े और अपना ज्यादातर वक्त अल्लाह की इबादत में बिताया.
भारत में आगमन
गरीब नवाज अपने पीर की आज्ञा का पालन करते हुए भारत और अजमेर को अपना निवास स्थान बनाया. कहा जाता है कि ख्वाजा साहब को मदीना में रहते हुए एक बार ख्वाब में अजमेर के भौगोलिक क्षेत्र का दर्शन हुआ और यहां आने की प्रेरणा प्राप्त हुई.
अल्लाह के वली हरजत गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) ने भारत की ओर रुख किया और अपने मुरीदों के साथ अल्लाह की इबादत और नबी-हुजूर सल्लललाहु अलैह वसल्लम की राह में चल दिये. सबसे पहले वे सब्जवार पहुंचे जहां का बादशाह शेख मोहम्मद यादगार था जिसका चरित्र गिरा हुआ था, लेकिन वह वली के संपर्क में आया और अपने पुराने गुनाहों की माफी मांगी और गरीब नवाज ने उनको सही रास्ते पर चलने का रास्ता दिखाया. गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) बहुत दयालु थे और अल्लाह के बताए रास्ते को अख्तियार करने के लिए कहते थे और बाद में यही बादशाह खुश हुआ और हजरत ख्वाजा गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) के बताए रास्ते को अपनाने लगा.
सब्जवार के बाद गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) गजनी पहुंचे और वहां पर वली सुल्तान उल मशाइख सैयद अब्दुल वाहिद (रहमतुल्ला अलैह) से मिले. वहां वे हजर कुतबुल अक्ताब (रहमतुल्ला अलैह), ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तयार काकी (रहमतुल्ला अलैह) , शेखुल मशाइख हजरत मुहम्मद यादगार (रहमतुल्ला अलैह) और सैयदना सदात हजरत ख्वाजा फखरुद्दीन गुर्देजी (मेरे उत्तराधिकारी) ख्वाजा गरीब नवाज (रहमतुल्ला अलैह) के सफर में शामिल हुए.
अल्लाह के संतों का यह कारवां अब भारत की सीमा पर पहुंचा. ऊंचे पहाड़ रास्ते पर थे लेकिन ख्वाजा साहिब (रहमतुल्ला अलैह) इससे किसी भी तरह से विचलित नहीं हुए. अल्लाह की शान में उन्होंने पहाड़ों की ओर कदम रखा और पहाड़ियों, घाटियों को पार करने के बाद वे पंजाब की सीमा में पहुंचे.
अजमेर आगमन
अजमेर पहुंचने पर ख्वाजा साहिब ने पेड़ के नीचे आराम किया. कुछ ही समय के बाद ऊंट वहां आ पहुंचे और चरवाहे ने उनसे कहीं और आराम करने के लिए जाने को कहा क्योंकि वह जगह राजा के ऊंटों के लिए थी. ख्वाजा साहिब ने उनसे कहा कि वे ऊंटों को कहीं और बैठा दें. उन्होंने बहुत ही सादगी से उस चरवाहे से ऐसा कहा था, मगर वह आपे से बाहर हो गया.
"लो हम यहां से जाते हैं अब आपके ऊंट भी यहां नहीं बैठ सकेंगे."
यह कहकर वे और उनके मानने वाले अन्न सागर (अजमेर में झील) की पहाड़ी में जाकर ठहरे. अगले दिन चरवाहे से वे ऊंट वहां पर खड़े न हो सके. इसका मतलब उस जमीन में कुछ करिश्मा हो गया. इससे वे आश्चर्यचकित हो गए. आखिरकार वे पृथ्वीराज की अदालत में पहुंचे. जब राजा से पूरी कहानी दोहराई गई तो वह भौंचक्के रह गए. उसे पृथ्वीराज की बहादुरी पर बेहद गर्व था, लेकिन ख्वाजा साहिब (रहमतुल्ला अलैह) के मानने वालों के लिए यह पहला करिश्मा कुछ भी नहीं था. इसलिए उन्होंने चरवाहे से कहा कि वह फकीर से भीख मांगे. तब चरवाहा ख्वाजा साहब के पास पहुंचा और माफी मांगी और उनके सम्मान में झुक गया. उन्होंने दयालुता से कहा कि "जाओ और अल्लाह की मर्जी से आपके ऊंट अपने पैरों पर खड़े हो सकेंगे."
जब लौटकर चरवाहे ने देखा कि वाकई ऊंट वहां पर खड़े दिखाई दिये.
ख्वाजा गरीब नवाज और उनके मानने वाले रोजाना गुसल करने अन्ना सागर के किनारे जाते थे और इबादत किया करते थे. एक दिन उनके मानने वालों को राजा के कुछ आदमियों ने अन्ना सागर के किनारे गुसल करने से मना किया और उनको धमकाया. उनके मानने वाले ख्वाजा साहब के पास वापस आए और आपबीती सुनाई. उन्होंने अपने मानने वालों में से एक को कहा कि जाओ और एक कुजा (एक बर्तन) में पानी भर लाओ. जब उनके मानने वाले ने कुजा में पानी भरा तो पूरे अन्ना सागर का पानी उसमें समा गया. वह कुजा को ख्वाजा साहिब (रहमतुल्ला अलैह) के पास ले आए जब राजा के आदमियों को इस बारे में पता चला तो वे लौटे और पूरा शहर भौंचक्का रह गया और यह सबको पता चल गया कि एक महान सूफी संत ने इस झील को सुखा दिया क्योंकि राजा ने मुसलमानों को अन्नासागर में जाने से मना किया था. और आखिर में स्थानीय लोग आ गए और उनसे माफी मांगने को कहा, ख्वाजा साहब बहुत ही दयालु थे और उन्होंने इस झील को फिर से पानी से लबालब कर दिया.
इस करिश्मे से बड़ी तादाद में लोगों को इस्लाम में भरोसा जागा और अजमेर में एक साथ हज़ारों लोग इस्लाम में शरीक हो गए.
ख्वाजा साहब ने अपने जीवनकाल के विभिन्न अवसरों पर जो उपदेश दिये, उनमें से कुछ हैं-
8 अल्लाह का कृपा पात्र वही मानव होता है जिसके दिल में दरिया जैसी दानशीलता और सूर्य जैसी दयालुता और जमीन जैसी खातिरदारी हो।
8 ज्ञानी वह है जिसकी नजर भाग्य का निरीक्षण कर सके.
8 ज्ञान वह है जो सूर्य की तरह उभरे और सारा संसार उसके प्रकाश से रोशन हो जाए.
8 दुनिया में दो बातों से बढ़कर कोई बात नहीं - एक विद्वानों की संगति और दूसरा बड़ों का सम्मान
8 सदाचारी लोगों की संगति सदाचार से अच्छी है और दुराचारी लोगों की संगति दुराचार से बुरी है.
8 भक्ति और तपस्या में सबसे बडा़ काम विनम्रता है।
8 अगर मित्र की मित्रता में सारा संसार त्याग दिया जाए तब भी वह कम है.
8 ज्ञानी हृदय सत्य का घर होता है.
ऐतिहासिक मजार
दरगाह का मुख्य धरातल सफेद संगमरमर का बना हुआ है. इसके ऊपर एक आकर्षक गुम्बद है, जिस पर सुनहरी कलश है. मजार पर मखमल की गिलाफ चढ़ी हुई है. इसके चारों ओर परिक्रमा के स्थान पर चांदी के कटहरे बने हुए हैं. यह वह स्थल है जिसके सामने चंद लम्हे गुजारने की तमन्ना लिए दूर-दूर से जायरीन आते हैं और इस महान सूफी संत के निकटस्थ संपर्क स्थापित कर सत्यम् शिवम् सुदरम् की कल्पना में स्वयं को भूल जाते हैं. यह वह स्थल है जहां मनुष्यों के बीच व्याप्त धर्म या जाति के भेद समाप्त हो जाते हैं. यहां पर गुलाब के फूलों, चंदन, अगरबत्ती और लोभान की खुशबू महकती रहती है.
ख्वाजा साहब की मजार-ए-मुबारक बहुत दिनों तक कच्ची ही बनी रही. सुल्तान गयासुद्दीन ने इसका गुंबद बनवाया था. गुंबद पर नक्काशी का काम सुल्तान महमूद बिन नासिरुद्दीन के जमाने में हुआ. मजार का दरवाजा बादशाह मांडू ने बनवाया था. मजार के अंदर सुनहरी कटहरा बादशाह जहांगीर का और दूसरा नूकरई कटहरा शाहजी जहांआरा बेगू द्वारा चढा़या हुआ है. मजार के दरवाजे में मुगल बादशाह अकबर द्वारा भेंट की हुई किवाड़ों की जोड़ी लगी हुई है. इसके अंदर के हिस्से में बहुत सुंदर सुनहरा काम किया हुआ है और छत में मखमल की छतगिरी लगी हुई है. इसे 1047 हिजरी में मुगल बादशाह शाहजहां ने लाल पत्थर से बनवाया था. नक्कारखाने के ऊपरी हिस्से पर अकबरी नक्कारखाने रखे हुए हैं.
बुलंद दरवाजा
इस दवाजे का निर्माण सुल्तान महमूद खिलजी ने 700 हिजरी में करवाया था. यह 85 फुट ऊंचा है. अंदर के फर्श पर संगमरमर के पत्थर जुड़े हुए हैं. दरवाजे के बुर्जियों पर ढाई फुट लम्बे सुनहरे कलश लगे हुए हैं. इस नक्कारखाने का निर्माण 1331 हिजरी में हैदराबाद के नवाब मीर महबूब अली खान ने करवाया था. इसके दरवाजे की ऊंचाई 70 फुट है, इस पर रोजाना पां चार नौबत बजाई जाती है.
अकबरी मस्जिद
मुगल बादशाह अकबर ने 978 हिजरी में लाल पत्थर से यह मस्जिद बनवाई थी. यह मस्जिद जमीन से 15 फुट की ऊंचाई पर बनी हुई है.
महफिल खाना
दरगाह का एक प्रमुख स्थान महफिलखाना है. यहां उर्स के दिनों में कव्वालियां होती हैं. झाड़फानूस लगे हुए इस भवन की अपनी अलग अहमियत है. इसका निर्माण हैदराबाद के नवाब बशीरुद्दौला ने कराया था.
सहन चिराग
यह चिराग दरगाह के प्रवेश द्वार बुलंद दरवाजे के सामने आंगन में रखा हुआ है. इसको मुगल बादशाह अकबर ने भेंट किया था.
बड़ी देग
बुलंद दरवाजे के पश्चिमी हिस्से में यह देग रखी हुई है. इसे 976 हिजरी में मुगल बादशाह अकबर ने भेंट किया था. इस देग में करीब 40 कुंतल चावल पकाया जाता है. घी, छुआरा, किशमिश एवं खोपरे आदि मेवों से बनी खाद्य सामग्री को तबर्रुक कहा जाता है. पकने के बाद सारा तबर्रुक गरीबों और जरूरतमंदों में बांटा जाता है.
छोटी देग
बुलंद दरवाजे के पूर्वी हिस्से में यह देग रखी हुई है. इसे 1022 हिजरी में मुगल बादशाह जहांगीर ने भेंट किया था. इसमें करीब 32 कुंतल चावल पकता है.
लंगरखाना
दरगाह के उत्तर में लंगरखाना बना हुआ है. इसके दालान में रोजाना गरीबों के लिए लंगर का खाना पकाया जाता है.
शाहजहांनी जामा मस्जिद
यह मस्जिद मुगल बादशाह शाहजहां ने बनवाई थी. सफेद और काले संगमरमर के काले पत्थरों से तैयार और बेहतरीन कटाई के खम्भों वाली यह मस्जिद वास्तव में शाहजहां के वास्तुकला के प्रेम का प्रतीक है. इसके निर्माण में करीब दो लाख चालीस हजार रुपये खर्च हुए और इसकी तामीर में 14 साल लगे.
मस्जिद सुल्तान खिलजी
यह मस्जिद सुल्तान महमूद खिलजी की बनवाई हुई है. इसका फर्श संगमरमर का बना हुआ है. बाद में जहांगीर एवं औरंगजेब ने इसे और सुंदरता प्रदान की.